नई दिल्ली. जलवायु संकट अब भविष्य का खतरा नहीं रहा, वह आज की भयावह हकीकत बन चुका है, जिसका सीधा असर हमारे शरीर, सांस, और जेब, तीनों पर एक साथ पड़ रहा है। 'लैंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज' (Lancet Countdown on Health and Climate Change) की 2025 की रिपोर्ट ने एक गंभीर चेतावनी जारी की है, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि हर साल बढ़ती गर्मी, वायु प्रदूषण और जलवायु अस्थिरता अब सीधे तौर पर लोगों की सेहत और वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपूरणीय क्षति पहुंचा रही है।
रिपोर्ट के निष्कर्ष बताते हैं कि 2024 वैश्विक तापमान के इतिहास में अब तक का सबसे गर्म साल साबित हुआ। इस साल औसत वैश्विक तापमान 1.4°C के चिंताजनक स्तर तक पहुँच गया, जिसने दुनिया के कई हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ हीटवेव (लू) की घटनाएँ पैदा कीं। इस अत्यधिक गर्मी ने न सिर्फ़ खेतों में फसलों को झुलसा दिया, बल्कि दुनिया भर में, खासकर विकासशील देशों में, काम करने की क्षमता को भी बुरी तरह प्रभावित किया।
भारत सहित दक्षिण एशिया के सघन आबादी वाले क्षेत्रों में हीटवेव के कारण औसत श्रम-घंटे में भारी गिरावट दर्ज की गई, जिसका सीधा और गंभीर आर्थिक असर कृषि (खेती-किसानी) और निर्माण (कंस्ट्रक्शन) जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर पड़ा। लैंसेट काउंटडाउन के अनुसार, 2024 में गर्मी से जुड़े स्वास्थ्य संकटों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई, जिसमें गर्मी से संबंधित मृत्यु दर (heat-related mortality) और अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों की संख्या (hospital admissions) में अभूतपूर्व वृद्धि शामिल है। यह आँकड़ा स्पष्ट करता है कि जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय चिंता नहीं, बल्कि एक भीषण जन-स्वास्थ्य संकट बन चुका है।
भारत पर विशेष रूप से केंद्रित विश्लेषण बताता है कि देश में अब हीटवेव की अवधि और उसकी तीव्रता दोनों ही खतरनाक रूप से बढ़ रही हैं। इस वजह से बुजुर्गों, बच्चों और मेहनतकश मजदूर वर्ग के लिए स्वास्थ्य जोखिम कई गुना बढ़ गया है। रिपोर्ट में एक चौंकाने वाला खुलासा किया गया है कि भारत में 2010 की तुलना में 2024 में गर्मी से संबंधित मौतों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है, और 65 वर्ष से ऊपर की आबादी में यह खतरा सबसे अधिक देखा गया है। गर्मी के साथ-साथ, वायु प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों, जैसे कि क्रॉनिक रेस्पिरेटरी डिजीज और हृदय संबंधी समस्याओं (Heart Problems), में भी लगातार बढ़ोतरी दर्ज की गई है, जिससे देश की स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव बढ़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन के कारण भारत की खाद्य सुरक्षा और खेती पर दोहरी मार पड़ रही है। रिपोर्ट ने आगाह किया है कि जलवायु अस्थिरता भोजन की उपलब्धता और उसकी पौष्टिकता दोनों को प्रभावित कर रही है। 2024 में भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे प्रमुख कृषि प्रधान देशों में अनाज उत्पादन में महत्वपूर्ण गिरावट दर्ज की गई, खासकर चावल और गेहूं जैसी मुख्य फसलों में। रिपोर्ट के आँकड़ों के मुताबिक, अत्यधिक गर्मी और अनियमित वर्षा के कारण अकेले भारत में कृषि उत्पादकता में लगभग 7% की बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। इस गिरावट का सीधा परिणाम भोजन की कीमतों में उछाल और देश में कुपोषण के खतरे के बढ़ने के रूप में सामने आया है, जो एक सामाजिक और आर्थिक चुनौती है।
जलवायु-जनित आपदाओं के कारण 2024 में दुनिया भर में लगभग 350 अरब डॉलर का भारी आर्थिक नुकसान हुआ, जिसमें एशिया महाद्वीप का हिस्सा सबसे बड़ा रहा। भारत में, गर्मी से संबंधित बीमारियों के इलाज पर बढ़ता खर्च और श्रम की हानि (काम करने की क्षमता में कमी) ने देश की अर्थव्यवस्था पर करोड़ों डॉलर का अतिरिक्त बोझ डाल दिया है। लैंसेट काउंटडाउन की कार्यकारी निदेशक, डॉ. रेचल आर्सेनॉल्ट ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए कहा, “हर डिग्री तापमान बढ़ना सिर्फ़ मौसम की बात नहीं है; यह स्वास्थ्य, आय और समानता—तीनों पर सीधा हमला है। यह संकट अब हमारे घरों और कार्यस्थलों तक पहुँच चुका है।”
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर दुनिया के देश पेरिस समझौते के लक्ष्य के मुताबिक वैश्विक तापमान को 1.5°C के भीतर रोकने की कोशिशों को तुरंत और प्रभावी ढंग से तेज करते हैं, तो लाखों अनमोल जिंदगियाँ और अरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान रोका जा सकता है। भारत के संदर्भ में, रिपोर्ट ने नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (NCAP), अक्षय ऊर्जा लक्ष्य (Renewable Energy Targets), और हीट एक्शन प्लान्स जैसे सरकार के कई महत्वपूर्ण प्रयासों का सकारात्मक रूप से जिक्र किया है। हालांकि, साथ ही यह चेतावनी भी दी गई है कि इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू करने की रफ्तार अभी भी धीमी है और मौजूदा चुनौती की भयावहता के सामने अपर्याप्त है।
लैंसेट काउंटडाउन 2025 की रिपोर्ट का मुख्य संदेश एकदम स्पष्ट है: जलवायु कार्रवाई अब केवल पर्यावरण संरक्षण की नीति नहीं, बल्कि एक अनिवार्य जन-स्वास्थ्य नीति बन चुकी है। भारत जैसे बड़े और घनी आबादी वाले देश के लिए इसका मतलब है कि ऊर्जा, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा की नीतियों को अब अलग-अलग करके नहीं, बल्कि एक ही साझा और एकीकृत दृष्टिकोण से देखना होगा। क्योंकि अब सवाल सिर्फ़ ये नहीं है कि मौसम कितना बदलेगा, बल्कि ये है कि हम उस तेज़ी से बदलते हुए और अधिक गर्म हो रहे मौसम में खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को कितने स्वस्थ और सुरक्षित रख पाएँगे। यह रिपोर्ट सरकारों, नीति-निर्माताओं और नागरिकों के लिए एक अंतिम आह्वान है कि जलवायु संकट को तत्काल प्राथमिकता के आधार पर निपटा जाए।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

