घर बनाना हर व्यक्ति के जीवन का सबसे बड़ा सपना होता है, लेकिन इस सपने को साकार करने की प्रक्रिया सिर्फ ईंट-पत्थरों और धन से पूरी नहीं होती। भारतीय परंपरा में यह विश्वास गहराई से जुड़ा है कि भवन निर्माण के समय किए गए सही कर्म, शुभ मुहूर्त और उचित दिशानिर्देश सुख-समृद्धि और स्थायित्व लेकर आते हैं। वास्तुशास्त्र और ज्योतिष के आधार पर सदियों से चले आ रहे कुछ उपाय आज भी ग्रामीण और शहरी भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। लोगों का मानना है कि इनसे निर्माण कार्य में आ रही बाधाएँ दूर होती हैं और घर में शांति, स्वास्थ्य तथा वैभव स्थायी होता है।
भवन निर्माण की शुरुआत भूमि पूजन से होती है। परंपरागत मान्यताओं के अनुसार, नींव की खुदाई ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्व दिशा से शुरू की जानी चाहिए। इसे देवताओं की दिशा माना गया है। कहा जाता है कि इस दिशा से निर्माण प्रारंभ करने पर कार्य में गति आती है और बाधाएँ दूर रहती हैं। वहीं, दक्षिण-पश्चिम दिशा से खुदाई शुरू करना अशुभ माना गया है क्योंकि यह राहु और पितृदोष से संबंधित दिशा मानी जाती है। निर्माण आरंभ करते समय नींव पूजन में तुलसी की जड़ को मिट्टी के कलश में रखना भी शुभ बताया गया है। लोक मान्यता है कि इससे भवन प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रहता है।
नींव भरने के समय शहद से भरा बर्तन डालना भी एक पारंपरिक रिवाज है। ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि शहद की मधुरता भवन में स्थायी सुख और धन की वृद्धि का प्रतीक है। ग्रामीण इलाकों में आज भी ऐसे पूजन के समय ब्राह्मणों को बुलाकर वैदिक मंत्रों के साथ यह प्रक्रिया की जाती है। यह सिर्फ धार्मिक कर्म नहीं बल्कि भूमि और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक भी माना जाता है।
वास्तुशास्त्र में यह भी बताया गया है कि यदि किसी कारणवश भवन निर्माण बार-बार रुकता हो या आर्थिक अड़चनें आ रही हों, तो ईशान कोण में अनार का पौधा लगाना चाहिए। यह उपाय विशेषकर गुरु-पुष्य नक्षत्र जैसे शुभ मुहूर्त में करने की सलाह दी जाती है। माना जाता है कि अनार के पौधे का लाल रंग मंगल ग्रह की सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है और धन संबंधी समस्याओं को कम करता है। इसी तरह, प्लॉट के मध्य भाग यानी ब्रह्मस्थान में तुलसी का पौधा लगाकर नियमित रूप से दूध और दीप अर्पित करने से भी कार्य में तेजी आने की मान्यता है।
भवन निर्माण के दौरान ग्रह दोष या वास्तु बाधा की स्थिति भी कई बार सामने आती है। इसके निवारण के लिए लाल कपड़े में कुमकुम, लौंग, बिंदी, कौड़ियाँ और मिट्टी बांधकर पोटली बनाकर किसी पवित्र नदी में प्रवाहित करने का प्रचलन है। कहा जाता है कि इससे ग्रहों की नकारात्मक ऊर्जा शांत होती है। कई ज्योतिषाचार्य इसे प्रतीकात्मक रूप से कर्मों की शुद्धि की प्रक्रिया भी बताते हैं।
भवन निर्माण में रुकावट या अनचाही बाधाओं के समय हर मंगलवार को श्वेत गाय और उसके बछड़े को मसूर दाल और गुड़ खिलाने की परंपरा भी देखी जाती है। यह उपाय मंगल ग्रह की प्रसन्नता से जुड़ा माना गया है। इसी क्रम में 21 दिनों तक भगवान गणेश को लाल फूल चढ़ाने से कार्य में सफलता मिलने की लोकमान्यता है।
कई परंपराओं में मिट्टी का मटका लेकर उसमें दूध, दही, घी, शक्कर, मिश्री, कपूर और शहद डालकर दुर्गा नवार्ण मंत्र के साथ उसे नदी या तालाब के किनारे गाड़ने की परंपरा भी प्रचलित है। यह कर्म ग्रह शांति और भूमि की ऊर्जा को स्थिर करने का प्रतीक माना गया है। ग्रामीण अंचलों में इसे ‘भूमि शुद्धिकरण यज्ञ’ का सरल रूप माना जाता है।
भवन निर्माण से जुड़ी कुछ सावधानियाँ भी प्रचलित हैं जिनका पालन आज भी अनुभवी वास्तुविद करने की सलाह देते हैं। कहा जाता है कि मकान बनाना शुरू करके बीच में रोकना दुर्भाग्य का कारण बनता है, क्योंकि इससे राहु का प्रभाव बढ़ता है और आर्थिक संकट आ सकता है। यदि खुदाई के दौरान चींटियाँ दिखाई दें तो उन्हें आटा और शक्कर खिलाना शुभ माना गया है, यह भूमि में रहने वाले सूक्ष्म जीवों की रक्षा का संकेत है। निर्माण कार्य में नई ईंट, पत्थर और लकड़ी का ही उपयोग करने की परंपरा इस विचार से जुड़ी है कि पुरानी वस्तुएँ अपने पूर्व कर्मों की ऊर्जा लेकर आती हैं जो नए भवन के वातावरण को प्रभावित कर सकती हैं।
वास्तुशास्त्र विशेषज्ञों के अनुसार, भवन निर्माण में दिशाओं की पहचान सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। रसोईघर, पूजा कक्ष, शयनकक्ष, जल स्रोत और सीढ़ियों का स्थान यदि वास्तु अनुसार हो तो घर में सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है। उदाहरण के लिए, रसोई का स्थान आग्नेय कोण यानी दक्षिण-पूर्व दिशा में शुभ माना गया है, जबकि पूजा कक्ष ईशान कोण में होना चाहिए।
ज्योतिषीय दृष्टि से भी भवन निर्माण को ग्रहों की स्थिति से जोड़कर देखा जाता है। यदि शनि या केतु का प्रभाव अधिक हो तो भूमि पूजन के साथ उनका दान और हवनादि करने की सलाह दी जाती है। लाल किताब के अनुसार, शनि छठे भाव में होने पर भूमि शुद्धिकरण का हवन विशेष लाभकारी होता है। यह माना जाता है कि इन ग्रहों की प्रसन्नता से निर्माण कार्य निर्बाध चलता है और परिवार में स्थिरता आती है।
अनुभवी ज्योतिषाचार्य यह भी सलाह देते हैं कि निर्माण शुरू करने से पहले अपनी व्यक्तिगत कुंडली के अनुसार शनि, राहु, केतु या मंगल से संबंधित दोषों की पहचान कर लेनी चाहिए। यदि ये ग्रह अनुकूल नहीं हैं, तो उनके दान, मंत्र जप या सेवा से दोष शमन का प्रयास करना चाहिए। शनि के लिए लोहे का दान, राहु के लिए नीले वस्त्र और केतु के लिए कंबल या काला तिल देना शुभ माना गया है।
परंपरागत ज्ञान यह कहता है कि भवन निर्माण सिर्फ इंजीनियरिंग नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया भी है। जब व्यक्ति अपने सपनों का घर बनाता है, तो वह केवल ईंट और सीमेंट से नहीं, बल्कि भावनाओं, परिश्रम और शुभ ऊर्जा से भी उसे रचता है। इसलिए भूमि पूजन से लेकर अंतिम गृह प्रवेश तक हर चरण में श्रद्धा, अनुशासन और सकारात्मक सोच बनाए रखना आवश्यक है।
अंततः यह समझना भी जरूरी है कि ये सभी उपाय श्रद्धा और सांस्कृतिक विश्वासों पर आधारित हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें प्रतीकात्मक या मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखता है, पर भारत के करोड़ों लोग इन्हें अपने जीवन का हिस्सा मानकर अपनाते हैं। वास्तु और परंपरा का संगम आज भी भारतीय समाज में आस्था और अनुभव दोनों के सहारे जीवित है।
वास्तु विशेषज्ञों की राय में यदि कोई व्यक्ति इन पारंपरिक उपायों को आधुनिक वास्तु और पर्यावरणीय सुझावों के साथ अपनाए तो उसका घर न केवल मजबूत और सुंदर बनता है, बल्कि उसमें रहने वालों का मन भी स्थिर और प्रसन्न रहता है। इसीलिए कहा जाता है कि “घर केवल दीवारों से नहीं, ऊर्जा से बसता है।”
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

