डिजिटल लत और तनाव से Gen Z की नींद पर गंभीर असर, दिल्ली की मनोचिकित्सक ने बताया बढ़ता खतरा

डिजिटल लत और तनाव से Gen Z की नींद पर गंभीर असर, दिल्ली की मनोचिकित्सक ने बताया बढ़ता खतरा

प्रेषित समय :21:39:09 PM / Tue, Nov 4th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

तकनीक की रफ्तार के साथ बढ़ती डिजिटल निर्भरता अब मानसिक स्वास्थ्य के लिए नई चुनौती बन चुकी है. खासकर 1997 से 2012 के बीच जन्मी पीढ़ी यानी जेन-ज़ी (Gen Z) के लिए यह समस्या और गहरी हो गई है. दिल्ली के कैलाश दीपक हॉस्पिटल, आनंद विहार की मनोचिकित्सक डॉ. मेघा अग्रवाल ने बताया कि लगातार डिजिटल स्क्रीन से जुड़ाव और तनाव इस पीढ़ी की नींद को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं.

नींद, जिसे स्वास्थ्य का सबसे बुनियादी स्तंभ माना जाता है, आज की युवा पीढ़ी के लिए सबसे बड़ी चिंता बन गई है. पहले जहां नींद की कमी को खराब आदतों या अनुशासनहीनता का नतीजा माना जाता था, अब विशेषज्ञ इसे डिजिटल ओवरलोड, सोशल मीडिया की लत, ऑनलाइन गेमिंग और बढ़ती मानसिक थकान से जुड़ी एक गहरी समस्या मान रहे हैं.

डॉ. अग्रवाल का कहना है, “जेन-ज़ी की नींद की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनका मस्तिष्क दिनभर और रातभर भी सक्रिय रहता है. मोबाइल, लैपटॉप और टैबलेट जैसे उपकरण दिमाग को लगातार उत्तेजित करते रहते हैं. इनसे निकलने वाली ‘ब्लू लाइट’ मेलाटोनिन हार्मोन के स्राव को रोकती है, जिससे शरीर को नींद का प्राकृतिक संकेत देर से मिलता है.”

2022 में साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जेन-ज़ी वर्ग के अधिकांश युवा प्रतिदिन औसतन सिर्फ 6 घंटे सो पाते हैं, जबकि किशोरों और युवाओं के लिए 8 से 10 घंटे की नींद जरूरी मानी जाती है. नींद की यह कमी सिर्फ थकान या सुस्ती का कारण नहीं बनती, बल्कि लंबे समय में मानसिक स्वास्थ्य, एकाग्रता, और उत्पादकता पर भी गहरा असर डालती है.

डॉ. अग्रवाल बताती हैं कि सोशल मीडिया का “ऑलवेज ऑन” कल्चर इस समस्या की जड़ में है. इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, यूट्यूब शॉर्ट्स और ऑनलाइन गेम्स जैसे प्लेटफॉर्म्स दिमाग को लगातार डोपामिन की खुराक देते हैं, जिससे व्यक्ति को “स्क्रीन से दूर रहना” मुश्किल लगने लगता है. यह स्थिति एक साइकोलॉजिकल लूप बनाती है — जितना ज़्यादा व्यक्ति थकता है, उतना ही ज़्यादा स्क्रीन पर लौटता है, और यही नींद की गुणवत्ता को सबसे पहले प्रभावित करती है.

नींद की कमी के दुष्परिणामों पर बात करते हुए डॉ. अग्रवाल कहती हैं, “जो युवा लगातार नींद से वंचित रहते हैं, उनमें डिप्रेशन, एंग्जायटी, मूड स्विंग्स और ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई जैसी समस्याएं आम हो गई हैं. लंबे समय तक ऐसा रहने पर यह स्थिति शारीरिक बीमारियों जैसे हाई ब्लड प्रेशर, मोटापा और कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता तक को जन्म दे सकती है.”

वह बताती हैं कि जेन-ज़ी के जीवन में प्रेशर का स्तर भी असामान्य रूप से अधिक है — चाहे वह करियर की प्रतिस्पर्धा हो, सोशल मीडिया पर तुलना, या आर्थिक अस्थिरता. यह सब मिलकर तनाव को बढ़ाता है, जिससे नींद और भी प्रभावित होती है. “कई युवा देर रात तक काम या पढ़ाई करते हैं, फिर थोड़ी राहत के लिए सोशल मीडिया खोलते हैं, लेकिन वही राहत उन्हें और अधिक उत्तेजित कर देती है,” डॉ. अग्रवाल कहती हैं.

विशेषज्ञों के अनुसार, डिजिटल डिटॉक्स यानी समय-समय पर तकनीक से दूरी बनाना इस समस्या से निपटने का सबसे प्रभावी तरीका है. डॉ. अग्रवाल सलाह देती हैं कि सोने से कम से कम एक घंटे पहले सभी डिजिटल उपकरणों को बंद कर देना चाहिए. इसके बजाय किताब पढ़ना, हल्का संगीत सुनना या ध्यान (मेडिटेशन) जैसे शांत अभ्यास करने चाहिए. इससे दिमाग को विश्राम का संकेत मिलता है और नींद स्वाभाविक रूप से आने लगती है.

वह यह भी कहती हैं कि नींद का एक निश्चित रूटीन बनाना ज़रूरी है. हर दिन एक ही समय पर सोना और जागना शरीर की जैविक घड़ी को संतुलित रखता है. कैफीन या एनर्जी ड्रिंक का सेवन शाम के बाद न करने, और दिन में थोड़ी देर धूप में समय बिताने जैसी साधारण आदतें भी नींद में सुधार ला सकती हैं.

डॉ. अग्रवाल चेतावनी देती हैं कि अगर युवा इन शुरुआती लक्षणों को नजरअंदाज करते हैं, तो आने वाले वर्षों में यह पीढ़ी नींद से जुड़ी पुरानी बीमारियों (Chronic Sleep Disorders) का सामना कर सकती है. “अब यह सिर्फ आदत की बात नहीं रही — यह मानसिक स्वास्थ्य संकट बनता जा रहा है,” वह कहती हैं.

जेन-ज़ी, जो तकनीक के साथ बड़ी हुई पहली डिजिटल पीढ़ी है, अब उसी तकनीक के नकारात्मक प्रभावों से जूझ रही है. जहां एक ओर स्क्रीन ने उन्हें अनंत जानकारी और अवसर दिए हैं, वहीं दूसरी ओर इसने उनके मस्तिष्क को निरंतर सक्रिय, थका हुआ और बेचैन बना दिया है.

नींद सिर्फ आराम नहीं, बल्कि मानसिक स्थिरता का आधार है. अगर यह पीढ़ी अपनी नींद को वापस नहीं पा सकी, तो उसका असर उनके कामकाजी जीवन, भावनात्मक स्वास्थ्य और सामाजिक रिश्तों पर भी गहराई से पड़ेगा.

डॉ. मेघा अग्रवाल के शब्दों में, “सोशल मीडिया और ऑनलाइन गेमिंग सिर्फ मनोरंजन के साधन नहीं रह गए हैं — ये अब जीवनशैली का हिस्सा बन चुके हैं. लेकिन अगर यही जीवनशैली नींद छीन रही है, तो उसे बदलना आज की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए.”

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-