‘मैं स्कूल स्टूडेंट नहीं हूं सर’ कहकर वायरल हुए Gen Z कर्मचारी के जवाब ने बदली कार्य संस्कृति की परिभाषा

‘मैं स्कूल स्टूडेंट नहीं हूं सर’ कहकर वायरल हुए Gen Z कर्मचारी के जवाब ने बदली कार्य संस्कृति की परिभाषा

प्रेषित समय :22:28:51 PM / Wed, Nov 5th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

 कार्यस्थल पर अधिकारों को लेकर युवाओं की नई पीढ़ी यानी जेन ज़ी (Gen Z) अब किसी झिझक या दबाव में नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के साथ अपनी सीमाएँ तय कर रही है. हाल ही में एक ऐसा ही उदाहरण सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिसमें एक जेन ज़ी कर्मचारी ने अपने सीनियर को “मैं स्कूल स्टूडेंट नहीं हूं सर” कहते हुए जवाब दिया. यह जवाब न केवल वायरल हुआ बल्कि लाखों लोगों को कार्यस्थल पर सम्मान और अधिकारों के बारे में सोचने पर मजबूर कर गया.

दरअसल, एक व्हाट्सऐप चैट का स्क्रीनशॉट सोशल मीडिया पर तेजी से फैल गया, जिसमें एक युवा कर्मचारी ने अपने सीनियर को बताया कि वह बुखार के कारण एक दिन की सिक लीव (बीमारी की छुट्टी) ले रहा है. जवाब में सीनियर ने व्यंग्य करते हुए लिखा — “डॉक्टर के पास चले?” और फिर डॉक्टर की पर्ची (प्रिस्क्रिप्शन) की मांग की. इसके बाद कर्मचारी का जवाब इंटरनेट पर तहलका मचाने वाला था. उसने लिखा — “मैं स्कूल स्टूडेंट नहीं हूं सर. मैंने सिक लीव ली है. मेरे पास कोई डॉक्टर की पर्ची नहीं है और न ही मेरे माता-पिता के हस्ताक्षर वाला आवेदन पत्र है. मैं फिलहाल आराम कर रहा हूं, इसलिए आपके कॉल या संदेश का जवाब नहीं दे पाऊंगा.”

बस यही जवाब जेन ज़ी की आत्म-सम्मानपूर्ण कार्यसंस्कृति का प्रतीक बन गया. सोशल मीडिया पर इस संदेश को हजारों लोगों ने शेयर किया और कुछ ही घंटों में यह लाखों व्यूज़ पार कर गया. कर्मचारियों ने इसे “सीमाओं की स्पष्टता और आत्मसम्मान का पाठ” बताया. बहुत से लोगों ने लिखा कि यह नया दौर है, जहाँ कर्मचारी भी यह बता रहे हैं कि वे इंसान हैं, मशीन नहीं.

कई नेटिज़न्स ने इस प्रतिक्रिया को “ताज़गीभरी ईमानदारी” बताया. ट्विटर, लिंक्डइन और रेडिट जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स पर लोगों ने इस चैट के स्क्रीनशॉट को साझा करते हुए लिखा — “अब समय आ गया है कि कॉर्पोरेट भारत पुरानी स्कूल जैसी पाबंदियों से बाहर निकले.” कुछ ने इसे “Gen Z Energy” कहा, जो बेबाकी से कहती है कि मानसिक स्वास्थ्य, आराम और निजी समय उतने ही ज़रूरी हैं जितना काम.

कई यूज़र्स ने अपनी-अपनी दफ़्तर की कहानियाँ साझा करते हुए लिखा कि अब भी कई कंपनियाँ बीमार होने पर डॉक्टर की पर्ची मांगती हैं, जबकि नीतियों के अनुसार एक या दो दिन की बीमारी में ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती. एक यूज़र ने लिखा, “हमारे ऑफिस में सिक लीव लेने के लिए सिर्फ टीम लीड को बताना होता है, लेकिन कुछ लोग सिस्टम का दुरुपयोग करते हैं — जैसे जब काम ज़्यादा होता है या मीटिंग का दिन होता है. ऐसे में कुछ लीडर्स सभी से डॉक्टर की पर्ची मांगने लगते हैं. लेकिन असली समाधान यह है कि विश्वास की संस्कृति विकसित की जाए, न कि संदेह की.”

एक अन्य यूज़र ने टिप्पणी की — “कोई भी कंपनी दो दिन से कम की बीमारी में डॉक्टर का सर्टिफिकेट नहीं मांग सकती. एक दिन की छुट्टी के लिए किसी पॉलिसी में ऐसा नियम नहीं होता. यह सिर्फ अनावश्यक दबाव डालने का तरीका है.”

इस वायरल बातचीत ने सोशल मीडिया पर एक व्यापक बहस को जन्म दे दिया है — क्या भारतीय कॉर्पोरेट संस्कृति अब भी उस दौर में अटकी है जहाँ कर्मचारियों से अति-आज्ञाकारिता की अपेक्षा की जाती है? कई लोगों का मानना है कि महामारी के बाद कार्यस्थल की परिभाषा बदल चुकी है. आज कर्मचारी केवल सैलरी नहीं, बल्कि सम्मान, लचीलापन और संतुलन की अपेक्षा रखते हैं.

विशेषज्ञों के अनुसार, Gen Z — जो अब बड़ी संख्या में नौकरी की दुनिया में प्रवेश कर चुकी है — पुरानी पीढ़ियों की तुलना में कार्यस्थल पर कहीं अधिक मुखर और आत्मविश्वासी है. यह पीढ़ी “वर्क-लाइफ बैलेंस” को प्राथमिकता देती है और किसी भी तरह के मानसिक या भावनात्मक दबाव को स्वीकार नहीं करती. मनोवैज्ञानिक डॉ. रितु माथुर के अनुसार, “जेन ज़ी कर्मचारियों के लिए नौकरी केवल जीविका नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और जीवनशैली का हिस्सा है. वे आदेश नहीं, संवाद चाहते हैं. यह पीढ़ी ‘क्यों’ पूछने से नहीं डरती.”

सोशल मीडिया पर इस घटना को लेकर कुछ लोगों ने सीनियर के व्यवहार की आलोचना भी की. कई ने कहा कि “डॉक्टर की पर्ची मांगना” दरअसल अविश्वास की संस्कृति को दर्शाता है. एक टिप्पणी में लिखा गया — “अगर कोई बीमार है, तो सहानुभूति दिखाने की ज़रूरत है, न कि सबूत मांगने की.” वहीं कुछ ने कहा कि कभी-कभी कर्मचारी भी छुट्टी का गलत फायदा उठाते हैं, इसलिए मैनेजमेंट सावधान रहता है.

हालाँकि इस बहस के बीच अधिकांश लोगों ने माना कि किसी एक व्यक्ति के कारण सभी पर कठोर नियम लागू कर देना उचित नहीं. एक यूज़र ने लिखा — “अगर कोई दो-तीन बार लगातार झूठी छुट्टी ले रहा है तो उसे लेकर कार्रवाई हो सकती है, लेकिन सभी कर्मचारियों को उसी तराजू में तौलना गलत है.”

लिंक्डइन पर कई एचआर विशेषज्ञों ने इस चैट को उदाहरण के रूप में साझा किया और लिखा कि यह भारतीय कॉर्पोरेट्स के लिए आत्मचिंतन का अवसर है. एक एचआर कंसल्टेंट ने लिखा, “कर्मचारियों पर विश्वास जताना ही असली प्रबंधन है. अगर हर छोटी चीज़ के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट या प्रूफ माँगा जाएगा तो ऑफिस स्कूल जैसा बन जाएगा.”

दिलचस्प बात यह है कि जेन ज़ी की यह “नो-नॉनसेंस” शैली केवल एक ट्रेंड नहीं, बल्कि धीरे-धीरे कार्य संस्कृति का हिस्सा बनती जा रही है. हाल के वर्षों में कंपनियाँ भी इसे स्वीकारने लगी हैं. कई बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों ने अपने लीव पॉलिसी में बदलाव कर कर्मचारियों को बिना प्रश्न पूछे एक निश्चित संख्या तक छुट्टियाँ लेने की अनुमति दी है.

कई विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इस घटना ने कॉर्पोरेट भारत में एक नई दिशा की ओर संकेत किया है — जहाँ काम का मूल्य परिणामों से आंका जाएगा, न कि कर्मचारियों की “उपस्थिति” या “कागज़ी औपचारिकताओं” से.

युवा कर्मचारियों की यह नई सोच परंपरागत कार्यस्थलों के लिए चुनौती तो है, लेकिन यह सकारात्मक भी है. इससे संस्थान और कर्मचारी दोनों के बीच स्पष्टता बढ़ती है. अब कर्मचारी यह कहने में नहीं हिचकते कि “बीमार होने पर आराम करना मेरी ज़िम्मेदारी है, किसी को साबित करना नहीं.”

घटना का यह छोटा-सा संदेश इस बात का बड़ा प्रतीक बन गया कि आज की पीढ़ी के लिए आत्म-सम्मान और निजी सीमाएँ किसी नौकरी से कम नहीं.

सोशल मीडिया पर एक यूज़र ने लिखा — “Gen Z ने दिखा दिया कि प्रोफेशनलिज़्म का मतलब केवल हाँ में हाँ मिलाना नहीं होता. यह अपने अधिकारों को समझते हुए भी ज़िम्मेदारी से काम करने की कला है.”

यह वायरल चैट अब इंटरनेट पर एक प्रतीक बन चुकी है — उस नई कार्यसंस्कृति की, जहाँ कर्मचारी यह स्पष्ट कहने की हिम्मत रखते हैं कि “मैं बीमार हूँ, इसलिए आराम कर रहा हूँ — रिपोर्ट नहीं लिख रहा.” और शायद यही सच्चे अर्थों में जेन ज़ी का संदेश है कि कार्यस्थल अब आज्ञा पालन का नहीं, सम्मान और संवाद का स्थान होना चाहिए.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-