वोट चोरी के पुराने ज़ख्मों से उपजा नया अविश्वास, बेगूसराय के रचियाही से शुरू होकर भारतीय चुनावी भूगोल को बदल दिया

वोट चोरी के पुराने ज़ख्मों से उपजा नया अविश्वास, बेगूसराय के रचियाही से शुरू होकर भारतीय चुनावी भूगोल को बदल दिया

प्रेषित समय :15:34:18 PM / Sat, Nov 22nd, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

अभिमनोज 
भारतीय लोकतंत्र की विशाल नदी आज जितनी शांति से बहती दिखाई देती है, उसके तल में उतने ही गहरे भंवर मौजूद हैं। उन भंवरों में से एक है वोट चोरी-एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही हमारे लोकतांत्रिक इतिहास के वे अध्याय खुल जाते हैं जिनमें स्याही से अधिक धुंध और संदेह दर्ज है। यह कहानी किसी एक चुनाव, एक पार्टी या एक राज्य की नहीं है; यह भारतीय लोकतंत्र में भरोसे के बनने–बिगड़ने की वह यात्रा है, जिसका पहला ठोस निशान बिहार के  बेगूसराय जिले के रचियाही  क्षेत्र में है। भारत का लोकतंत्र अक्सर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक प्रयोग के रूप में वर्णित किया जाता है,एक ऐसा प्रयोग जिसने अनगिनत विविधताओं के बावजूद देश को एक स्थायी राजनीतिक संरचना प्रदान की। लेकिन विशाल लोकतंत्रों की जीवनगाथा केवल संविधान की धाराओं और मतदान के आंकड़ों से नहीं बनती; वह उन अनगिनत विश्वासों, अविश्वासों, चोटों, और घावों से भी बनती है जो इस यात्रा को आकार देते हैं। इस यात्रा के केंद्र में एक घटना, एक स्थान और एक ऐतिहासिक क्षण आज भी उतनी ही प्रासंगिक है-1957, बिहार के बेगूसराय जिले का रचियाही गांव ।

यही वह क्षण था, जब भारतीय चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता पर पहली बार एक आधिकारिक दाग दर्ज हुआ-पहला दर्ज बूथ कैप्चरिंग का मामला। यह घटना केवल इतिहास की एक लाइन नहीं; यह वह बिंदु है जहाँ से भारतीय लोकतंत्र को अपने सबसे चुनौतीपूर्ण प्रश्नों का सामना करना पड़ा। और आज भी, जब आधुनिक रूपों में “वोट चोरी” शब्द फिर चर्चा में आता है, तो रचियाही की वह सुबह इतिहास से उठकर वर्तमान की धड़कनों में घुल जाती है। यहीं से भारतीय चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता पर पहली बार एक आधिकारिक दाग लगा-देश में दर्ज पहली बूथ कैप्चरिंग।और आज, जब फिर “वोट चोरी” शब्द हमारे आसपास मंडराता है, तब रचियाही की वह सुबह इतिहास से उठकर वर्तमान की नब्ज़ में उतर आती है।

लोकतंत्र की पहली चोट
1957 का आम चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था।  स्वतंत्रता के बाद दूसरा बड़ा लोकतांत्रिक आयोजन, लोगों में बढ़ती राजनीतिक चेतना और नई उम्मीदों का दौर। लेकिन इन्हीं उम्मीदों के बीच एक ऐसी घटना घटित हुई जिसने आने वाले दशकों का चेहरा बदल दिया। बेगूसराय में उस समय कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों का गहरा प्रभाव था। 1952 में कांग्रेस ने जीत दर्ज की, पर 1956 में विधायक के निधन के बाद हुए उपचुनाव में कम्युनिस्ट उम्मीदवार चंद्रशेखर सिंह ने अप्रत्याशित जीत हासिल कर राजनीतिक परिदृश्य बदल दिया। 1957 में दोनों पार्टियाँ फिर आमने-सामने थीं।कांग्रेस से सरयुग सिंह, और कम्युनिस्ट पार्टी से चंद्रशेखर प्रसाद सिंह मैदान में थे। दोनों ने जोरदार प्रचार किया और जीत की आस में गांव-गांव का चक्कर लगाया। बेगूसराय से छह किलोमीटर दूर रचियाही गांव का ‘कचहरी टोल’ मतदान केंद्र बनाया गया, वही स्थान जहाँ कभी ग्रामीण अपनी जमीन की रसीदें कटवाने आते थे। रचियाही, मचहा, राजापुर और आकाशपुर के लोग यहीं वोट डालने पहुँचते थे।लेकिन मतदान के दिन वह हुआ जिसकी कल्पना भी कठिन थी।हथियारों से लैस लगभग 20 लोगों ने मचहा और राजापुर के मतदाताओं को रास्ते में ही रोक लिया। बूथ पर पहले से मौजूद कुछ लोगों ने भी मतदाताओं को खदेड़ दिया। विरोध करने वालों पर हमला हुआ, अफरातफरी मची, और इसी अराजकता के बीच एक गुट ने बूथ पर कब्ज़ा कर फर्जी वोटिंग कर दी।यह वही क्षण था जिसने भारत के चुनावी इतिहास में पहली बार आधिकारिक रूप से लिखा-“बूथ कैप्चरिंग”।उस समय न बूथों पर सुरक्षा व्यवस्था थी, न शिकायत दर्ज कराने की कोई ठोस प्रक्रिया। घटना की जानकारी लोगों को अगले दिन मिली, और देखते ही देखते यह मुद्दा पूरे देश में चर्चा का केंद्र बन गया।स्थानीय लोगों का आरोप था कि बूथ कब्जाने वाले कांग्रेस उम्मीदवार सरयुग प्रसाद सिंह के समर्थक थे और उसी चुनाव में सरयुग सिंह की जीत हुई थी।बुजुर्ग आज भी बताते हैं कि कांग्रेस उम्मीदवार और इलाके के तस्कर सम्राट के नाम से विख्यात कामदेव सिंह के बीच गठजोड़ था, और उसी ने बूथ पर कब्जा कराया। इस घटना ने लोकतंत्र की नींव को पहली बार भीतर से हिलाया।

यह उल्लेख चुनाव आयोग की समकालीन रिपोर्टों में मिलता है, जिसे बाद के वर्षों में कई राजनीतिक समाजशास्त्रियों ने उद्धृत किया, विशेषकर Paul R. Brass, Ramashray Roy, और उत्तर भारत के चुनावों पर अध्ययन करने वाले कई शोधकर्ताओं ने। रचियाही का यह संदर्भ सिर्फ एक तिथि या क्षेत्र का उल्लेख नहीं था; यह भारतीय चुनावी भूगोल में अविश्वास की पहली रेखा थी, जो धीरे–धीरे विस्तृत होती गई।रचियाही की घटना किसी आकस्मिक दुर्घटना की तरह नहीं थी; वह उन सामाजिक, जातीय और राजनीतिक तनावों की देन थी जिनकी जड़ें बहुत गहरी थीं। 1950 के दशक का ग्रामीण बिहार एक ऐसा समाज था जिसमें राजनीति, जाति और शक्ति-तीनों आपस में गुंथे हुए थे। जब चुनाव “लोक” का उत्सव नहीं, बल्कि “ताक़त” का प्रदर्शन बनने लगे, तब रचियाही ने वह दृश्य दुनिया के सामने रखा, जिसे लोकतंत्र की भाषा में आज “वोट चोरी” कहा जाता है।

बूथ कैप्चरिंग:एक शब्द का जन्म, एक सदी की चोट
1957 की घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया शब्द दिया-बूथ कैप्चरिंग। इसके बाद की दशकों में यह शब्द भारत की राजनीति का पर्याय बन गया। विशेषकर उत्तर भारत-बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल और असम के चुनावों में यह शब्द इतना आम हो गया कि मीडिया रिपोर्टिंग से लेकर चुनाव आयोग की कार्यवाही तक, बूथ कब्जा एक स्थायी संकट की तरह उभर आया।1960–80 के दशकों में तो स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि चुनाव आयोग ने कई बार मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान कराए। Election Commission Reports (1960–1990) यह बताती हैं कि कई क्षेत्रों में बूथ कब्ज़ा इतनी नियमित गतिविधि बन चुका था कि प्रशासन भी उससे भयभीत रहता था।इस बीच, राजनीति–अपराध गठजोड़ भी उभरने लगा। लोकतंत्र के नाम पर चल रही इस हिंसात्मक राजनीति ने “वोट चोरी” को केवल तकनीकी समस्या नहीं रहने दिया; यह एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या बन गई। रचियाही केवल पहला अध्याय था, मगर उसके बाद जो हुआ, उसने चुनाव को कई बार युद्ध का मैदान बना दिया।

लोकतंत्र और भय की सांझ
रचियाही की घटना का साहित्यिक अर्थ यह है कि लोकतंत्र केवल संविधान की पुस्तक का सिद्धांत नहीं,वह मतदाता की आँखों की चमक में मौजूद विश्वास है। और जब वही विश्वास घायल हो जाए, तो लोकतंत्र का शरीर चाहे जितना विशाल हो, उसकी आत्मा काँप जाती है।

कई साहित्यकारों ने भी चुनाव के इस तनाव को अपनी कलम में दर्ज किया है,प्रेमचंद के गाँवों की राजनीति से लेकर नागार्जुन की कविताओं तक, शक्ति–संरचना का यह खेल कभी अछूता नहीं रहा।यदि बूथ कब्जा किसी एक बूंद की तरह है, तो वोट चोरी वह झील है जिसमें कई वर्षों का अविश्वास जमा होता गया। रचियाही की घटना भी एक बूंद थी, मगर उसने लोकतंत्र के जलाशय में जो लहरें पैदा कीं, उन्होंने चुनावी संस्कृति को सदा–सदा के लिए रूपांतरित कर दिया।

1990–2010: वोट चोरी का नया भूगोल
1990 के दशक में जब मंडल–कश्मीर–आर्थिक उदारीकरण जैसी ऐतिहासिक उथल–पुथल चल रही थी, उसी दौरान भारतीय चुनावों में एक और प्रवृत्ति उभरी-अपराधी राजनीति का संस्थागत रूप। जातीय संघर्षों और मिलिशिया संस्कृति ने बूथ कब्जा करने की प्रक्रिया को और व्यापक बना दिया। Christophe Jaffrelot और Yogendra Yadav के शोध बताते हैं कि इस समय “बूथ कैप्चरिंग” अक्सर जातीय वर्चस्व का साधन भी बन चुकी थी। मतलब, वोट चोरी केवल चुनावी स्कोर का सवाल नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना को बदलने का एक औजार था।इस काल में चुनाव आयोग ने कई बड़े सुधार किए—बल प्रयोग, अतिरिक्त फोर्स, विशेष पर्यवेक्षक नियुक्त करना,मगर जो अविश्वास 1957 में शुरू हुआ था, वह अब और गहरा हो चुका था।

2010 के बाद:एक नया चेहरा, एक अदृश्य चोरी
जैसे–जैसे भारत डिजिटल होता गया, वैसे–वैसे वोट चोरी के रूप भी बदलते गए। बूथ कब्ज़ा कम हुआ, परन्तु निम्नलिखित पर संदेह बढ़ा:

• मतदाता सूची में नाम हटाना
• एक ही नाम कई जगह दर्ज होना
• डिजिटल एंट्री में हेरफेर
• फर्जी पहचान से वोटिंग
• फेक वोटर रजिस्ट्रेशन

2018–2023 के बीच CES (Centre for Electoral Studies) और Brookings India की रिपोर्टों ने इस संभावना की ओर संकेत किया कि डिजिटल युग की वोट चोरी बूथ कब्ज़े से भी अधिक खतरनाक हो सकती है, क्योंकि यह अदृश्य होती है, हिंसा रहित होती है, और पकड़ी जाना कठिन होता है।रचियाही की घटना जिस खुले कब्ज़े के रूप में सामने आई थी, आज वह स्क्रीन के पीछे, डेटा की एक पंक्ति में बदल गई है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति मतदाता है। मगर मतदाता का मन सबसे नाज़ुक भी है। वह विश्वास के सहारे वोट देने जाता है। जब यह विश्वास लगातार प्रश्नों से घिरता है, तब लोकतंत्र की जड़ें डगमगाने लगती हैं।आज जब कोई मतदाता यह सुनता है कि “उसका नाम सूची में नहीं है”, या “पिछले मतदान केंद्र में असामान्य संख्या में वोट पड़े”, या चुनावी ऐप पर दिखाए गए आंकड़े संदिग्ध लगते हैं—तो रचियाही की स्मृति फिर जाग उठती है। साहित्य  कहता है कि इतिहास केवल तिथियों से नहीं, भावनाओं से लिखा जाता है। रचियाही की 1957 की यह घटना भी एक भावनात्मक इतिहास है,एक ऐसा इतिहास जिसे कोई संविधान संशोधन मिटा नहीं सकता, कोई कानून पूरी तरह ठीक नहीं कर सकता। वोट चोरी का घाव लोकतंत्र की देह पर नहीं, उसकी आत्मा पर है। और आत्मा का घाव समय माँगता है। भरोसा माँगता है।

अतीत की छाया आज भी साथ चल रही 
2025 के चुनावी माहौल में फिर जब वोट चोरी जैसे शब्द उठते हैं-चाहे सूची, ईवीएम, डेटा, या बूथ स्तर की कार्रवाइयों से जुड़े-तो यह केवल एक राजनीतिक विमर्श नहीं होता। यह उस लंबी स्मृति का पुनर्जागरण होता है जिसकी शुरुआत 1957 के रचियाही से हुई थी।भारत का लोकतंत्र आज तकनीकी रूप से मजबूत, प्रशासनिक रूप से अधिक सक्षम और वैश्विक स्तर पर अधिक प्रशंसित है, लेकिन मतदाता का भरोसा आज भी उसी बिंदु पर अटका है-क्या मेरा वोट सुरक्षित है?और यह प्रश्न ही लोकतंत्र की दिशा तय करता है।

एक भूगोल नहीं, एक दर्पण
रचियाही कोई एक विधानसभा क्षेत्र नहीं,वह आज भारतीय चुनावी संस्कृति का दर्पण है।
वह हमें याद दिलाता है कि-

• विश्वास खोना आसान है
• अविश्वास पनपना सरल है
• मगर भरोसा वापस लाना अत्यंत कठिन है

1957 में रचियाही ने जो प्रश्न उठाया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, लोकतंत्र में वोट केवल कागज की पर्ची या मशीन की बीप नहीं; वह नागरिक का अस्तित्व है।

लंबी यात्रा, कठिन प्रश्न, और लोकतंत्र की आशा
1957 से 2025-68 वर्षों की इस यात्रा में भारत ने बहुत प्रगति की है।कानून मजबूत हुए, चुनाव आयोग सशक्त हुआ, तकनीक विकसित हुई, पारदर्शिता बढ़ी। लेकिन वोट चोरी का घाव,जो रचियाही से शुरू हुआ,आज भी पूरी तरह भरा नहीं है।और शायद यही लोकतंत्र की सुंदरता भी है, कि वह खुद अपनी आलोचना से मजबूत होता है,कि वह अपने पुराने घावों को दबाता नहीं, समझता है,कि वह हर चुनाव में अपने भीतर एक नया प्रश्न खड़ा करता है: क्या हम अधिक निष्पक्ष, अधिक पारदर्शी और अधिक विश्वास पूर्ण हो सके?

रचियाही ने जो आरंभ किया था, वह एक चेतावनी भी थी और एक मार्गदर्शन भी। यह इतिहास बताता है कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक कोई कानून, कोई मशीन, कोई आयोग नहीं,बल्कि मतदाता का भरोसा है। और जब यह भरोसा डगमगाता है, तब हमें रुक कर इतिहास में झांकना पड़ता है- उसी 1957 की सुबह में, उसी रचियाही में।

और आज, जब 2025 के चुनावों में फिर आवाज़ें उठती हैं,फर्जी मतदाता, सूची संशोधन, डिजिटल एंट्री की त्रुटियाँ, और वोटिंग पैटर्न में असामान्य बदलाव,तो यह इतिहास जैसे फिर से अपना पुराना पृष्ठ खोल देता है। मतदाताओं के मन में उठता यह प्रश्न नया नहीं है; यह वही पुराना घाव है, जिसकी टीस समय-समय पर उभर आती है। यह कहानी राजनीति की लड़ाई से कहीं आगे है। यह उस अदृश्य धड़कन की कहानी है जिसमें हर भारतीय मतदाता यह विश्वास रखता है कि उसका एक वोट उसकी पहचान, उसका अधिकार और उसका सम्मान है। जब इस विश्वास पर प्रश्न उठते हैं, तो पूरा लोकतंत्र भीतर तक हिल जाता है। इसलिए रचियाही की स्मृति केवल अतीत का दस्तावेज़ नहीं,यह भविष्य की चेतावनी भी है।हमारा लोकतंत्र आज जितना परिपक्व दिखता है, उसकी मजबूती उतना ही इस बात पर निर्भर करती है कि मतदान प्रक्रिया कितनी सुरक्षित, पारदर्शी और भरोसेमंद है।और शायद यही कारण है कि वोट चोरी आज भी एक तकनीकी शब्द नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक चेतना का वह संवेदनशील हिस्सा है जो हर चुनाव के मौसम में फिर से अपना इतिहास लेकर खड़ा हो जाता है,ठीक उसी तरह, जैसे 1957 की वह रचियाही सुबह, जिसने भारतीय चुनावी भूगोल को हमेशा के लिए बदल दिया।

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-