वोट की चोरी या लोकतंत्र की आत्मा का अपहरण ....पार्ट-2

वोट की चोरी या लोकतंत्र की आत्मा का अपहरण ....पार्ट-2

प्रेषित समय :17:14:29 PM / Sat, Nov 22nd, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

अभिमनोज 

भारत का लोकतंत्र दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक प्रयोगों में से एक है, लेकिन यह प्रयोग जितना भव्य दिखाई देता है, उसके भीतर उतने ही महीन और संवेदनशील धागे हैं, जो समय–समय पर टूटते और फिर जोड़े जाते रहे हैं. बिहार विधानसभा चुनाव 2025 भी ऐसे ही एक दौर से निकला है, जिसने वोट चोरी के प्रश्न को केवल चुनावी आरोपों की भीड़ में नहीं छोड़ा, बल्कि उसे लोकतंत्र की आत्मा के केंद्र में रखकर देखने को मजबूर कर दिया. किसी भी चुनाव में आरोप–प्रत्यारोप सामान्य होते हैं, लेकिन इस बार बात आरोपों से आगे बढ़कर विश्वास के संकट तक पहुँची है—वह विश्वास, जिस पर लोकतंत्र की पूरी इमारत टिकी होती है. यह चुनाव केवल सीटों के संघर्ष का आख्यान नहीं, बल्कि उस गहरी बेचैनी की भाषा है जो तब जन्म लेती है जब मतदाता को लगता है कि उसकी उंगली पर लगा स्याही का निशान शायद उसके वोट की असली यात्रा का प्रमाण नहीं है.

वोट चोरी का सवाल नया नहीं है. यह तो उतना ही पुराना है जितनी पुरानी हमारी चुनावी संस्कृति. 1957 के उस ऐतिहासिक वर्ष को याद करना आवश्यक है जब बेगूसराय जिले के रचियाही क्षेत्र में बूथ कब्ज़े का पहला दर्ज मामला सामने आया था. यह केवल एक घटना नहीं थी; यह लोकतंत्र की पहली चीख थी, जिसने बताया कि स्वच्छ चुनाव के रास्ते में कितनी खाइयाँ हैं और कितने अंधेरे मोड़. गाँवों के कच्चे रास्तों पर चलता हुआ देश उस समय यह विश्वास तो बना चुका था कि अब वोट हर नागरिक की ताकत है, लेकिन समाज की सामंती संरचना अभी भी उसके पैरों से जंजीरें उतारने को पूरी तरह तैयार नहीं थी. धीरे–धीरे उन जंजीरों ने नए-नए रूप धारण किए,कभी जाति का दबाव, कभी दबंगों का आतंक, कभी गुंडाराज, तो कभी प्रशासनिक ढाँचों का ध्वंस. ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि हम इस विषय को केवल राजनीतिक गहमागहमी का हिस्सा न मानें, बल्कि उसकी जड़ों तक जाएँ-जहाँ लोकतंत्र की आँच सबसे अधिक तपती है और जहाँ एक वोट की शक्ति किसी भूखे बच्चे की भूख की तरह सच्ची और जलती हुई महसूस होती है.

1950 के दशक में वोट चोरी उतनी प्रत्यक्ष नहीं थी जितनी बाद के दशकों में दिखाई दी. उस समय यह अक्सर गाँवों की चुप्पी में छिपी रहती थी-जहाँ मतदाता का वोट उसके घर की दीवारों से बाहर नहीं निकलता था, बल्कि गावँ की सामंतवादी फुसफुसाहटों में तय हो जाता था कि किसकी किस्मत चमकेगी और किसकी सत्ता की कुंडी खुलेगी. यह चोरी उतनी स्पष्ट नहीं थी कि बूथ पर हथियारबंद लोग खड़े हों, लेकिन यह उतनी ही वास्तविक थी जितनी खेतों में चलती चरखी की आवाज़. लोगों की अपनी इच्छा का दम घुटता था, और वे यह मानकर चलते थे कि वोट देना है, पर किसे, यह वे तय नहीं करेंगे. यह वोट चोरी का वह मौन अध्याय था जो इतिहास की पुस्तकों में कम दिखता है, पर समाज की आँखों में उसके साक्ष्य अभी भी तैरते हैं.

धीरे-धीरे समय बदला, और  “बूथ कैप्चरिंग” शब्द पहली बार सरकारी रिकॉर्ड में उतरा. जैसे किसी अंधेरी रात में अचानक बिजली की चमक से पूरा जंगल उजागर हो जाए, वैसे ही इस एक शब्द ने चुनावी हिंसा के पूरे परिदृश्य का सच सामने रख दिया. 1960-80 के दशकों में तो स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि चुनाव आयोग ने कई बार मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान कराए. Election Commission Reports (1960–1990) यह बताती हैं कि कई क्षेत्रों में बूथ कब्ज़ा इतनी नियमित गतिविधि बन चुका था कि प्रशासन भी उससे भयभीत रहता था.  

बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल,इन राज्यों में बूथ कब्जा राजनीतिक संस्कृति का एक हिस्सा बन गया. चुनाव का अर्थ केवल जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं रह गया, बल्कि यह शक्ति, धन, हथियार और अपराध के गठजोड़ का खेल बनता चला गया. बूथों पर कब्जा जमाना, मतदाताओं को डराना, वोट डालने से रोकना, और फिर अपने पक्ष में धड़ाधड़ मतदान करना—यह प्रक्रिया इतनी सामान्य हो गई कि कई क्षेत्रों में लोग मतदान के दिन घरों से ही नहीं निकलते थे. लोकतंत्र डर के साये में सिमटने लगा था, और वोट की पर्चियां मानो किसी जन–इच्छा का नहीं, बल्कि गुंडा-गिरोहों का हस्ताक्षर बनती जा रही थीं.

यह वह समय था जब भारतीय लोकतंत्र की असल परीक्षा शुरू हुई. Paul R. Brass जैसे विद्वानों ने उत्तर भारत में चुनावी हिंसा का गहरा अध्ययन किया और बताया कि यह केवल अपराधियों का खेल नहीं था, बल्कि राजनीतिक दलों द्वारा बनाए गए संगठित तंत्र का हिस्सा बन चुका था. बूथ कैप्चरिंग केवल एक घटना नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित प्रक्रिया थी—जैसे कोई गुप्त तंत्र यह तय करता हो कि लोकतंत्र कैसा दिखेगा और कैसे चलेगा. इस दौर ने वोट चोरी को एक नए स्तर पर पहुँचाया, जहाँ चोरी केवल वोटों की नहीं थी; यह लोगों की उम्मीदों की, उनके अधिकारों की, उनके भविष्य की चोरी थी.

1990 के दशक में राजनीति और अपराध का गठजोड़ इतना प्रबल हो गया कि चुनाव एक प्रकार से युद्ध भूमि बन गया. जातीय सेनाएँ, क्षेत्रीय गुट, स्थानीय मिलिशिया और अपराधियों का राज—इन सबने मिलकर बूथ कब्जे को एक संस्थान में बदल दिया. कई क्षेत्रों में यह चर्चा आम थी कि कौन–सी जाति किस बूथ पर कब्जा करेगी, किस इलाके में किसका आतंक है, और कौन–सा उम्मीदवार किस गिरोह पर निर्भर होकर चुनाव जीत सकता है. यह लोकतंत्र का वह मरणांतक चरण था जिसमें जनता का वोट केवल एक औपचारिकता बन चुका था. असली चुनाव तो बंदूक की नली और राजनीतिक संरक्षण के बीच तय होता था.

और फिर आया 2000 के बाद का युग—तकनीक का, बदलाव का, EVM का, VVPAT का. ऐसा लगा जैसे बूथ कब्जे का समय अब बीत चुका है और अब चुनाव अधिक सुरक्षित होंगे. कुछ हद तक ऐसा हुआ भी—हथियारबंद गिरोहों के बूथ घेरने की घटनाएँ कम हुईं, लेकिन वोट चोरी समाप्त नहीं हुई. वह बस अपने रूप बदलकर एक नई राह पर चल पड़ी. बूथ पर नहीं, डेटा में कब्जा होने लगा. अब मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर नाम हटाने का खेल शुरू हुआ. लोग मतदान केंद्र पहुँचते तो पता चलता कि उनका नाम गायब है. कई जगह फर्जी नाम जोड़े जाते, कहीं एक घर के सदस्यों के नाम अलग–अलग मतदान केंद्रों में बाँट दिए जाते, कहीं मृत लोगों के नाम सूची में बने रहते, तो कहीं जीवित लोगों को मृत घोषित कर दिया जाता. यह चोरी बूथ पर दिखाई नहीं देती थी, पर उसके परिणाम पहले जैसे ही भयावह थे.

तकनीक जितनी सुविधा लाई, उतनी ही संभावनाएँ भी लाई—सही दिशा में भी और गलत दिशा में भी. चुनावी डेटा के डिजिटलीकरण ने कई लाभ दिए, लेकिन साथ ही यह जोखिम भी जन्मा की सूचियाँ छेड़छाड़ योग्य हो सकती हैं. Brookings India ने 2019 की रिपोर्ट में लिखा कि डिजिटल वोट हेरफेर बूथ कैप्चरिंग से कहीं अधिक खतरनाक है, क्योंकि यह अदृश्य है, बेहिसाब है, और इसके पीछे किसी खास हथियारबंद गिरोह की नहीं, बल्कि छिपे हुए तकनीकी तंत्रों की ताकत काम करती है. यह वह दौर है जहाँ चोरी करने के लिए न किसी दबंग की आवश्यकता है, न किसी हथियार की—बस एक गलत प्रविष्टि और एक सही जगह पर की गई छेड़छाड़, और लोकतंत्र की धुरी बदल सकती है.

2025 का बिहार चुनाव इसी इतिहास का नवीनतम अध्याय है. इस बार आरोपों का शोर ऐसा था जैसे कोई विशाल नदी बरसात में उफनते हुए अपने किनारों को तोड़ने को तैयार हो. राजनीतिक दल एक–दूसरे पर आरोप लगाते रहे कि मतदाता सूचियों में गड़बड़ियाँ की गईं, नकली वोट डलवाए गए, डेटा में हेरफेर हुआ, और कुछ जगहों पर स्थानीय स्तर पर वोटिंग के समय अनुचित दबाव बनाए गए. लेकिन इस बार जनता भी शांत नहीं थी. सोशल मीडिया पर वीडियो, प्रमाण, आरोप, लाइव रिपोर्टें,सब कुछ एक उफनते हुए लोकतांत्रिक असंतोष का प्रतीक था.

पर क्या यह केवल आरोपों का प्रश्न है? नहीं,यह विश्वास के संकट का प्रश्न है. मतदाता का भरोसा टूटना चुनावी प्रक्रिया की सबसे बड़ी क्षति है. यदि लोग यह मानने लगे कि उनका वोट गिना नहीं जाता या उसे किसी ने चुरा लिया, तो लोकतंत्र की जमीन पर बनने वाली हर सरकार का आधार खोखला हो जाता है. यही कारण है कि वोट चोरी की चर्चा केवल राजनीतिक विरोधियों के बीच लड़ाई नहीं रह गई है, बल्कि यह एक सामाजिक विमर्श बन चुकी है,जिसमें लोग भविष्य की दिशा, चुनावी सुधारों की आवश्यकता और लोकतंत्र की विश्वास–संरचना को नए सिरे से देखने लगे हैं.

शोध अध्ययनों का संगम इस विषय को और स्पष्ट करता है. Christophe Jaffrelot, Eleanor Zelliot, Yogendra Yadav, Suhas Palshikar- इन सभी ने अलग-अलग विश्लेषणों में यह स्वीकार किया है कि चुनावी अनियमितताएँ केवल प्रशासनिक त्रुटियाँ नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक संरचनाओं का हिस्सा भी हैं. यह भी सच है कि कई बार वोट चोरी का मुद्दा राजनीतिक प्रचार के रूप में अधिक उपयोग होता है, लेकिन इसके वास्तविक अस्तित्व को नकारना इतिहास को नकारना होगा.

भारतीय लोकतंत्र की विडंबना यह है कि यहाँ वोट चोरी की हर घटना, हर आरोप और हर बहस लोकतंत्र की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी संवेदनशीलता को प्रकट करती है. यह संघर्ष इसलिए दिखता है क्योंकि लोकतंत्र जीवित है, क्योंकि जनता जागरूक है, क्योंकि लोग चाहते हैं कि उनका वोट सचमुच उनकी आवाज़ बने. यही कारण है कि हर चुनाव में यह प्रश्न फिर उठता है और फिर बहस का केंद्र बनता है.

2025 के बिहार चुनाव में वोट चोरी की चर्चा भी इसी पृष्ठभूमि से जन्मी है. यह चर्चा केवल एक चुनावी विवाद नहीं, बल्कि उन सभी ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तार है जो 1957 से लेकर आज तक इस लोकतंत्र की नसों में बहती रही हैं. समाज बदलता है, तकनीक बदलती है, वोट चोरी के तरीके बदलते हैं, लेकिन एक चीज नहीं बदलती,मतदाता का वह विश्वास कि उसका एक वोट देश का भविष्य बदल सकता है. और जब यह विश्वास ही संदेह से भर जाए, तब लोकतंत्र केवल किताबों में लिखा एक सुंदर विचार रह जाता है, जीवन में उतरा हुआ सत्य नहीं.

वोट चोरी का मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि भारतीय लोकतंत्र की असली शक्ति कहाँ है—क्या वह केवल मतदान मशीनों में है, मतदाता सूचियों में है, राजनीतिक दलों की रणनीतियों में है या फिर जनता की उस अटूट आशा में है जो हर पाँच साल बाद एक बार फिर लोकतंत्र की ओर हाथ बढ़ाती है? शायद उत्तर इसी आशा में छिपा है.

चाहे बूथ कब्जा हो, चाहे सूची में हेरफेर, चाहे डिजिटल छेड़छाड़, चाहे राजनीतिक प्रचार की अतिशयोक्ति, वोट चोरी के हर रूप के बावजूद भारत के नागरिक अब भी वोट देते हैं, लोकतंत्र पर विश्वास रखते हैं, और उम्मीद करते हैं कि एक दिन यह लोकतंत्र इतना मजबूत होगा कि कोई भी ताकत उनके वोट को नहीं चुरा सकेगी. यह आशा ही हमारी शक्ति है.और यही इस पूरी रिपोर्ट का सार भी,कि लोकतंत्र केवल व्यवस्था का नाम नहीं, यह विश्वासों का ऐसा विशाल वृक्ष है जो हर आँधी के बाद भी अपनी जड़ों में नव–ऊर्जा पा लेता है.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-