जबलपुर: देश के कई बड़े शहरों की तरह अब जबलपुर में भी बच्चों के बीच स्मार्टफोन और डिजिटल उपकरणों के अत्यधिक उपयोग को नियंत्रित करने के लिए एक सख्त 'स्क्रीन टाइम लॉ' लागू करने की मांग जोर पकड़ रही है। माता-पिता, शिक्षाविद् और स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात पर एकजुट हो रहे हैं कि बच्चों का बढ़ता हुआ 'स्क्रीन टाइम' न केवल उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, बल्कि उनके शैक्षणिक प्रदर्शन और सामाजिक कौशल के विकास में भी एक बड़ी बाधा बन रहा है। सोशल मीडिया और ऑनलाइन गेम्स की लत ने शहर के कई परिवारों में चिंता का माहौल पैदा कर दिया है, जिसके चलते यह मुद्दा आज सामाजिक चर्चाओं के केंद्र में आ गया है।
हाल ही में, कई नागरिक समूहों और शिक्षा क्षेत्र से जुड़े गैर-सरकारी संगठनों ने स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार से औपचारिक रूप से अपील की है कि वे बच्चों के लिए डिजिटल उपकरणों के उपयोग की सीमा तय करने हेतु एक नियामक ढाँचा तैयार करें। उनका तर्क है कि जिस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए अन्य नियम बनाए जाते हैं, उसी प्रकार बच्चों को डिजिटल लत के गंभीर खतरों से बचाने के लिए भी सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है।
डिजिटल लत का बढ़ता दायरा
शहर के जाने-माने बाल रोग विशेषज्ञों का कहना है कि उनके पास ओपीडी में आने वाले बच्चों में नींद की समस्या, आँखों में सूखापन, मोटापा और यहाँ तक कि अत्यधिक चिड़चिड़ापन और आक्रामकता के मामले तेजी से बढ़े हैं। इनमें से अधिकांश समस्याओं की जड़ बच्चों का बेहिसाब स्क्रीन टाइम है। एक प्रमुख मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. आर.के. वर्मा (परिवर्तित नाम) ने बताया, "हमने पाया है कि 10 से 15 साल के बच्चे दिन में औसतन 5 से 7 घंटे स्क्रीन के सामने बिता रहे हैं। यह सिर्फ मनोरंजन नहीं है; यह एक लत है जो उनके मस्तिष्क में डोपामाइन रिलीज को प्रभावित कर रही है, जिससे वे वास्तविक दुनिया की गतिविधियों में रुचि खो रहे हैं।"
शैक्षणिक और सामाजिक प्रभाव
शिक्षाविदों ने भी इस डिजिटल अतिरेक पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। कई स्कूलों के शिक्षकों ने शिकायत की है कि कक्षा में छात्रों का ध्यान केंद्रित करने की क्षमता लगातार कम हो रही है। एक वरिष्ठ प्रिंसिपल श्रीमती अंजना दुबे (परिवर्तित नाम) ने कहा, "बच्चे रात भर जागकर रील्स देखते हैं या गेम्स खेलते हैं, जिसका सीधा असर उनकी एकाग्रता पर पड़ता है। वे शारीरिक खेल और साथियों के साथ बातचीत करना भूल चुके हैं, जिससे उनके सामाजिक और भावनात्मक कौशल का विकास रुक रहा है।" उन्होंने कहा कि स्क्रीन टाइम लॉ की मांग इसलिए आवश्यक है ताकि माता-पिता को भी इस समस्या की गंभीरता का अहसास हो और वे अपने घरों में नियम लागू करने के लिए प्रोत्साहित हों।
कानून की मांग और वैश्विक मॉडल
'स्क्रीन टाइम लॉ' की मांग करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस कानून में माता-पिता के लिए कुछ दिशानिर्देश और संभवतः कुछ आयु वर्गों के लिए डिजिटल उपकरणों के उपयोग की कानूनी सीमा शामिल होनी चाहिए। वे चीन जैसे देशों का उदाहरण दे रहे हैं, जहाँ नाबालिगों के लिए ऑनलाइन गेमिंग के घंटों को सख्त रूप से सीमित कर दिया गया है। हालांकि, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता के मद्देनजर ऐसे कानून को लागू करना एक जटिल चुनौती है। इसलिए, कार्यकर्ताओं का सुझाव है कि शुरुआती चरण में यह कानून एक सहयोगात्मक ढांचे के रूप में काम कर सकता है, जहाँ स्कूलों और स्वास्थ्य संस्थानों के सहयोग से जागरूकता फैलाई जाए और माता-पिता के लिए कानूनी समर्थन प्रदान किया जाए।
माता-पिता की दुविधा
जबलपुर के कई मध्यमवर्गीय परिवारों में माता-पिता इस मामले पर बंटे हुए हैं। एक ओर वे बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं, तो दूसरी ओर उन्हें लगता है कि डिजिटल युग में बच्चों को तकनीक से पूरी तरह दूर रखना भी उनके भविष्य के लिए नुकसानदेह हो सकता है। एक अभिभावक श्री राजेश पटेल ने कहा, "हम चाहते हैं कि बच्चे सीमित समय के लिए ही फोन का इस्तेमाल करें, लेकिन ऑनलाइन क्लासेज और प्रोजेक्ट्स के नाम पर उन्हें फोन देना हमारी मजबूरी है। बच्चों पर नजर रखना बहुत मुश्किल होता जा रहा है।"
प्रशासनिक स्तर पर, इस मामले पर अभी तक कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन सोशल मीडिया पर इस विषय पर हो रही तीखी बहस और नागरिक समूहों की सक्रियता यह दर्शाती है कि यह मुद्दा अब सिर्फ व्यक्तिगत परिवारों का नहीं, बल्कि पूरे समाज की चिंता बन चुका है। 'स्क्रीन टाइम लॉ' लागू हो या न हो, जबलपुर में इस बहस ने कम से कम यह जागरूकता तो फैला दी है कि बच्चों को डिजिटल युग के खतरों से बचाने के लिए माता-पिता, स्कूल और सरकार को मिलकर तत्काल कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
इसी वजह से बच्चों के स्क्रीन उपयोग को लेकर दुनिया भर की सरकारें अब सख्त कदम उठा रही हैं।
दक्षिण कोरिया – "सिंड्रेला लॉ"
दक्षिण कोरिया ने बच्चों को रात में मोबाइल और ऑनलाइन गेमिंग से दूर रखने के लिए सिंड्रेला लॉ लागू किया है। इसके तहत 16 साल से कम उम्र के बच्चे रात 12 बजे से सुबह 6 बजे तक ऑनलाइन गेम नहीं खेल सकते। सरकार का मानना है कि यह नियम बच्चों की नींद और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार लाएगा।
चीन – दुनिया का सबसे सख्त स्क्रीन टाइम कानून
चीन ने 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए बेहद कड़े नियम बनाए हैं।
बच्चे सिर्फ सप्ताह में 3 घंटे ही ऑनलाइन गेम खेल सकते हैं।
गेमिंग कंपनियों को बच्चों की पहचान की पुष्टि करना जरूरी है।
सोशल मीडिया और वीडियो ऐप्स पर भी समय सीमा तय की गई है।
चीन ने यह कदम बच्चों में बढ़ती गेमिंग लत और पढ़ाई पर पड़ रहे असर को देखते हुए उठाया।
फ्रांस – छोटे बच्चों पर सबसे सख्त नियंत्रण
फ्रांस में 3 साल से कम उम्र के बच्चों को स्क्रीन से पूरी तरह दूर रखने की सलाह दी जाती है। 3 से 6 साल के बच्चों के लिए भी प्रतिदिन 30 मिनट से अधिक स्क्रीन देखने की अनुशंसा नहीं है। फ्रांस का मानना है कि शुरुआती उम्र में डिजिटल स्क्रीन का असर भाषा, व्यवहार और सीखने की क्षमता को प्रभावित करता है।
अमेरिका और यूरोप – गाइडलाइन्स पर जोर
अमेरिका और कई यूरोपीय देशों में कानूनी रूप से स्क्रीन टाइम पर प्रतिबंध नहीं है, लेकिन स्वास्थ्य संस्थाएं माता-पिता को बच्चों का स्क्रीन टाइम 2 घंटे प्रतिदिन तक सीमित रखने की सलाह देती हैं। स्कूलों को भी बच्चों के डिजिटल एक्सपोज़र को कम करने के निर्देश दिए गए हैं।
कौन से बच्चे इन कानूनों के दायरे में आते हैं?
अधिकतर देशों में स्क्रीन टाइम नियम 0 से 18 साल तक के बच्चों पर लागू होते हैं।
0–3 वर्ष: स्क्रीन लगभग प्रतिबंधित
3–12 वर्ष: सीमित और नियंत्रित स्क्रीन टाइम
13–18 वर्ष: गेमिंग और सोशल मीडिया पर समय सीमा
विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले समय में और भी देश स्क्रीन टाइम लॉ लागू करेंगे। डिजिटल दुनिया से बच्चों को पूरी तरह दूर रखना संभव नहीं है, लेकिन उनका उपयोग संतुलित और नियंत्रित बनाना आज की जरूरत है।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

