भारत में फोन ट्रैकिंग पर बड़ा विवाद टेक कंपनियां सरकार के प्रस्ताव के खिलाफ, प्राइवेसी बहस चरम पर

भारत में फोन ट्रैकिंग पर बड़ा विवाद टेक कंपनियां सरकार के प्रस्ताव के खिलाफ, प्राइवेसी बहस चरम पर

प्रेषित समय :20:46:21 PM / Sat, Dec 6th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

भारत में डिजिटल निगरानी और प्राइवेसी को लेकर इन दिनों शायद सबसे बड़ी बहस छिड़ चुकी है। वजह है एक ऐसा प्रस्ताव जिसने देश के टेक सेक्टर, स्मार्टफोन उद्योग और नागरिक अधिकारों से जुड़े समूहों को एक-दूसरे के सामने ला खड़ा किया है। सरकार का इरादा है कि सभी स्मार्टफोन्स में सैटेलाइट-आधारित लोकेशन सिस्टम यानी A-GPS को हमेशा सक्रिय रखा जाए, ताकि सुरक्षा एजेंसियों को जरूरत पड़ने पर किसी भी डिवाइस की सटीक लोकेशन मिल सके। वहीं Apple, Google और Samsung जैसे दिग्गज ब्रांड इस प्रस्ताव का जोरदार विरोध कर रहे हैं और इसे खतरनाक करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि यदि यह नीति लागू होती है तो यह किसी भी स्मार्टफोन को हमेशा ट्रैक किए जाने वाली मशीन में बदल देगी—और यह नागरिक स्वतंत्रता के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है।

इस पूरी बहस की पृष्ठभूमि कुछ महीने पहले शुरू तब हुई जब सरकार ने सभी स्मार्टफोन्स में Sanchar Sathi नामक साइबर सेफ्टी ऐप को अनिवार्य रूप से प्री-लोड करने का निर्देश दिया था। इसका उद्देश्य था फर्जी मोबाइल कनेक्शनों पर रोक लगाना और उपभोक्ताओं को सुरक्षा सुविधाएं देना। लेकिन प्राइवेसी एक्टिविस्ट्स और कई राजनीतिक दलों ने इसे निगरानी के उपकरण के रूप में देखा और व्यापक विरोध के बाद सरकार को यह आदेश वापस लेना पड़ा। उस विवाद को भले ही सरकार ने समय रहते शांत कर दिया, लेकिन अब नए प्रस्ताव ने फिर से पुराने सवालों को जीवित कर दिया है—सरकारी सुरक्षा और निजी स्वतंत्रता के बीच सीमा कहां है?

रिपोर्ट्स के अनुसार, सुरक्षा एजेंसियों ने एक औपचारिक सुझाव दिया है कि फोन लोकेशन का डेटा वर्तमान की तुलना में अधिक सटीक होना चाहिए। उनका दावा है कि अपराध और आतंक से जुड़े मामलों की जांच के दौरान उन्हें जो लोकेशन मिलता है, वह केवल टावर-आधारित अनुमान होता है, जो कई बार कुछ दसियों मीटर तक गलत साबित होता है। इससे जांच में देरी होती है और महत्वपूर्ण सबूत छूट सकते हैं। टेलीकॉम ऑपरेटर्स के संगठन COAI ने भी इस बात का समर्थन किया है कि मोबाइल मैन्युफैक्चरर्स को A-GPS को हमेशा सक्रिय रखने का आदेश दिया जाए, ताकि अधिकारियों को रियल-टाइम और सटीक लोकेशन उपलब्ध हो सके। इस व्यवस्था के तहत उपयोगकर्ता अपने फोन में लोकेशन ऑफ नहीं कर पाएंगे, यानी हर समय उनकी स्थिति रिकॉर्ड होती रहेगी।

लेकिन ठीक इसी बिंदु पर वैश्विक कंपनियों और प्राइवेसी विशेषज्ञों की आपत्ति सबसे तीखी है। Apple और Google के उद्योग समूह ICEA ने सरकार को भेजी अपनी गोपनीय चिट्ठी में स्पष्ट लिखा है कि किसी डिवाइस को हमेशा ट्रैक होने की अनुमति देना उसे Dedicated Surveillance Device में बदलने जैसा है, जिसे कोई भी आधुनिक लोकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता। कंपनियों की मुख्य चिंताओं में यह भी शामिल है कि भारत में ऐसा कदम उठाने से जज, सेना से जुड़े कर्मचारी, पत्रकार और कॉरपोरेट जगत के उच्च पदस्थ लोग गंभीर सुरक्षा जोखिम में पड़ जाएंगे, क्योंकि उनकी लोकेशन हर समय किसी सर्वर पर उपलब्ध रहेगी। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसका दुरुपयोग देशी या विदेशी संस्थाएं कर सकती हैं।

कंपनियां इस बात को भी लेकर चिंतित हैं कि सरकार लोकेशन एक्सेस के दौरान दिखने वाले पॉप-अप नोटिफिकेशन को हटाने की बात कर रही है। यह नोटिफिकेशन उपयोगकर्ता को बताता है कि उनकी स्थिति किस ऐप या सिस्टम द्वारा एक्सेस की जा रही है। कंपनियों का कहना है कि यदि यह पॉप-अप हटाया जाता है, तो पारदर्शिता बिल्कुल खत्म हो जाएगी और उपयोगकर्ता को पता भी नहीं चलेगा कि उनकी लोकेशन कब और किस वजह से प्राप्त की जा रही है। यह डिजिटल प्राइवेसी के सबसे बुनियादी सिद्धांतों में से एक के खिलाफ होगा।

अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों ने भी इस प्रस्ताव पर गहरी चिंता जताई है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध डिजिटल फॉरेंसिक विशेषज्ञ Junade Ali का कहना है कि यह योजना किसी भी स्मार्टफोन को सीधे निगरानी के औजार में बदल देगी और इसका दुरुपयोग रोक पाना लगभग असंभव होगा। वहीं Electronic Frontier Foundation के Cooper Quintin ने इसे दुनिया भर में सबसे खतरनाक प्रकार के लोकेशन नियंत्रणों में से एक बताया है। उनका कहना है कि एक बार यह मिसाल बन गई तो दुनिया के अन्य देश भी इसी दिशा में कदम उठाने लगेंगे और डिजिटल स्वतंत्रता तेजी से सिकुड़ जाएगी।

इस तकनीकी बहस में एक दिलचस्प आयाम यह भी है कि सरकार के प्रस्ताव के समर्थक यह तर्क देते हैं कि आधुनिक अपराध जांच और नागरिक सुरक्षा के लिए लोकेशन डेटा अनिवार्य हो गया है। उनका कहना है कि जब आतंकवाद, अपहरण, अवैध गतिविधियों और साइबर क्राइम लगातार विकसित हो रहे हैं, तो तकनीक द्वारा सक्षम निगरानी को मजबूत करना जरूरी है। भारत जैसे विशाल देश में जहां अक्सर अपराध जांच के लिए समय बहुत अहम होता है, वहां सटीक स्थान की उपलब्धता कई बार जीवन और मृत्यु के बीच फर्क साबित हो सकती है। इसी आधार पर सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि यह प्रस्ताव किसी की प्राइवेसी खत्म करने के लिए नहीं बल्कि जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए है।

लेकिन आलोचक सवाल पूछ रहे हैं कि क्या सुरक्षा बढ़ाने के नाम पर नागरिकों की स्वतंत्रता इस तरह सीमित की जा सकती है कि उन्हें अपनी लोकेशन ऑफ करने का अधिकार भी न मिले? विशेषज्ञों का कहना है कि किसी लोकतंत्र को यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि सुरक्षा और स्वतंत्रता दोनों एक-दूसरे के संतुलन से ही चलती हैं। यदि सुरक्षा के लिए ऐसी व्यवस्थाएं लागू की जाती हैं जो सभी नागरिकों को लगातार ट्रैक करने की क्षमता देती हैं, तो यह शक्ति भविष्य में किसी भी सरकार के हाथों में खतरनाक हथियार बन सकती है।

इस प्रस्ताव ने भारत में डिजिटल अधिकारों को लेकर पहले से चल रही बहस को और गहरा कर दिया है। सोशल मीडिया पर लोग दो खेमों में बंट चुके हैं—एक पक्ष कह रहा है कि यदि सुरक्षा एजेंसियों को काम में आसानी होती है तो यह कदम उठाया जाना चाहिए। वहीं दूसरा पक्ष इसे निजता का हनन मानते हुए कड़ा विरोध कर रहा है। कई लोग इसे डेटा सुरक्षा के व्यापक ढांचे से जोड़कर देख रहे हैं और पूछ रहे हैं कि आखिर वह कौन सी संस्थाएं होंगी जिनके पास यह संवेदनशील लोकेशन डेटा जाएगा और उसे कैसे सुरक्षित रखा जाएगा।

फिलहाल सरकार की ओर से इस प्रस्ताव पर कोई अंतिम निर्णय नहीं आया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में यह भारत की सबसे बड़ी टेक प्राइवेसी बहस बनने वाली है। सरकार, उद्योग और नागरिक अधिकार समूहों के बीच संवाद कैसे आगे बढ़ता है, इस पर देश की डिजिटल नीतियों का भविष्य काफी हद तक निर्भर करेगा। यह विवाद न सिर्फ तकनीकी बदलावों की दिशा तय करेगा बल्कि यह भी निर्धारित करेगा कि भारत अपने नागरिकों की डिजिटल स्वतंत्रता और सुरक्षा के बीच किस तरह का संतुलन स्थापित करता है।

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-