अजय कुमार, लखनऊ. कोरोना महामारी से सफलतापूर्वक निपटने के लिए योगी सरकार भले ही अपनी पीठ थपथपा रही हो, लेकिन सरकार द्वारा जो छवि दिखाई जा रही है, वह हकीकत से कोसों दूर है. विपक्ष पर तो राजनीति करने का आरोप लगाकर सरकार अपने को पाक-साथ दिखा सकती है, लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट तो यही कह रही है कि योगी सरकार कोरोना के गुनहगारों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जा रहा है. योगी सरकार का यह दोहरा चरित्र ही है जो एक तरफ आक्सीजन या दवाओं की कालाबाजारी करने वालों पर तो रासुका लगाई जा रही है, वहीं मरीजों की जान से खिलवाड़ करने वाले निजी अस्पताल संचालकों के खिलाफ मात्र मुकदमे की औपचारिकता निभा कर या हल्की-फुल्की कार्रवाई करके छोड़ दिया जा रहा है. लखनऊ के छोटे-मोटे अस्पताल तो दूर प्रतिष्ठित और बड़े-बड़े अस्पताल कोरोना के नाम पर मरीजों को लुटने और अपनी जेबें भरने में लगे हैं. तमाम शिकायतें आ रही हैं, लखनऊ के पाॅश इलाके गोमती नगर में स्थित मेयो अस्पताल से पिछली बार की तरह इस बार भी मरीजों के साथ छल-कपट किए जाने कही खबरें आ रही , निजी अस्पताल वालों की हिम्मत इतनी बढ़ गई की उसने एक महिला मरीज का आक्सीजलन निकाल कर उसे मौत के घाट उतार दिया.
लेकिन शासन-प्रशासन ऐसे मामलों में कार्रवाई करने की बजाए खानापूरी में लगा हुआ है. सरकार ने कोरोना के इलाज के रेट तय कर रखे हैं, लेकिन मरीजों का लाखों रूपए का बिल बनाया जा रहा है. कुछ अस्पताल लगातार अपनी हठधर्मी के कारण मरीजों की जान से खिलवाड़ करके सुर्खिंया बटोर रहे हैं, इनको लेकर खबरें भी लगातार छपती रहती हैं, लेकिन इनका बाल भी बांका नहीं हुआ है. यही हाल कमोबेश पूरे उत्तर प्रदेश का है. जनता की कोई सुनने वाला नहीं है. बिस्तरों में बैड खाली हैं, लेकिन मरीजों को भर्ती नहीं किया जा रहा है. किसी भी अस्पताल के बाहर एंबुलेंस, व्हील चेयर, और निजी वाहनों में भर्ती या आक्सीजन के इंतजार में बैठे मरीजों की तड़प न तो क्रूर सिस्टम को सुनाई दे रही है, न धन पशुओं को. प्रशासन की संवदेनहीनता और अस्पताल वालों की लालच मरीज की सांसो पर भारी पड़ रही है. लखनऊ के प्रतिष्ठित किंग जार्ज मेडिकल विश्वविद्यालय तक मेें यह स्थिति है कि वहां योगी सरकार के चिकित्सा शि़क्षा मंत्री सुरेश खन्ना ने जब औचक निरीक्षण किया तो आइडीएच वार्ड में कोविड के 10 बैड खाली मिले.
मरीजों को मौत के मुंह में ढकेल देने वालों के खिलाफ योगी सरकार दोहरा रवैया अख्तियार किए हुए हैं इसके और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं. ऑक्सीजन की किल्लत से कोरोना मरीजों के दम तोड़ने का सिलसिला कायम रहना अव्यवस्था के अराजकता की हद तक पहुंचने की कहानी कह रहा है. यह शर्मनाक है कि 15 दिनों के बाद भी आॅक्सीजन की किल्लत खत्म होने का नाम नहीं ले रही है, जिसके कारण मरीजों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है. इससे बुरी स्थिति तो घर में आइसोलेट मरीजों की है जिनको घर पर ऑक्सीजन नहीं मिली और उनकी मौत हो गई, ऐसे लोगोें की तो गिनती तक करना ही मुश्किल है. इसी वजह से सरकारी और शमशाम में जल रही चिताओं की संख्या में दस गुने तक का असर है. ऑक्सीजन संकट के मामले में यह देखना हैरान-परेशान करता है कि तमाम बड़े अस्पतालों ने भी न तो ऑक्सीजन प्लांट लगा रखे हैं और न ही उसके भंडारण की कोई ठोस व्यवस्था कर रखी है. वे चंद ऑक्सीजन सिलेंडर रखते हैं, जो संकट के इस दौर में जल्द ही खत्म होने लगते हैं. यही कारण है कि वे रह-रह कर ऑक्सीजन की कमी की गुहार लगाते दिखते हैं. यह और कुछ नहीं, अस्पतालों की आपराधिक लापरवाही ही है. सवाल है कि ऐसा कोई तंत्र क्यों नहीं, जो इसकी निगरानी करता हो कि अस्पताल जरूरी संसाधनों से लैस हैं या नहीं? वैसे इसके पीछे की वजह किसी से छिपी नहीं है प्रदेश के अधिकांश निजी अस्पताल या तो राजनेताओं और पंूजीपतिया के हैं या फिर इनका पैसा लगा हुए है. इन अस्पतालों के संचालक बड़े-बड़े नेताओं और अधिकारियों को अपने यहां अच्छा इलाज और मोटा चंदा या अन्य सुविधाएं देकर इनका मुंह बंद कर देते हैं.
लब्बोलुआब यह है कि अस्पतालों के नाकारापन के लिए कहीं न कहीं वह तंत्र भी दोषी है, जिस पर उनके संसाधनों की गुणवत्ता की जांच-परख की जिम्मेदारी है. कम से कम अब तो उसे चेतना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अस्पताल ऑक्सीजन जैसी जरूरी चीज से भली तरह लैस हों, क्योंकि इसका भरोसा नहीं कि संक्रमण की तीसरी लहर कब और किस नये रूप में दस्तक दे दे. ऑक्सीजन की किल्लत के पीछे केंद्र और राज्य सरकारों तथा उनके प्रशासन के बीच तालमेल का अभाव भी दिख रहा है. भले ही पिछले कई दिनों से ऑक्सीजन की तंगी दूर करने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हों, लेकिन यह समझना कठिन है कि रेलवे की ओर से आक्सीजन एक्सप्रेस चलाने, उद्योगों में इस्तेमाल होने वाली ऑक्सीजन का उपयोग रोकने, नए ऑक्सीजन प्लांट लगाने, ऑक्सीजन कंटेनरों से लेकर सिलेंडरों तक की उपलब्धता बढ़ाने की खबरों के बीच जमीन पर हालात जस के तस हैं? इसकी तो यही वजह नजर आती है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति और वितरण का कोई सुव्यवस्थित सिस्टम ही नहीं विकसित किया जा सका है. निःसंदेह यह भी एक नाकामी ही है. जब हजारों लोगों का जीवन संकट में हो, तब तो किसी को खास तौर पर यह देखना चाहिए कि राहत-बचाव का काम अपेक्षा के अनुरूप हो रहा है या नहीं? इसकी बजाए किया यह जा रहा है कि पुराने आक्सीजन सिलेंडर जो कबाड़ में पड़े थे उन्हें रंग रोगन करके बाजार में डाल दिया गया है. इसी सिलेंडर ने राजधानी लखनऊ में बड़ा हादसा हो गया है. रिफलिंग के दौरान सिलेंडर फटने से तीन लोगों को मौत के मुंह में जाना पड़ गया.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-कोरोना संक्रमित सपा सांसद आजम खान ने इलाज के लिए लखनऊ जाने से किया मना
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