आचार्य श्री अनेक वर्षो से सिर्फ जीवन चलने के लिए आवश्यक भोजन ही लेते है आचार्य श्री विद्या सागर महाराज नमक, शक्कर, दूध, गुड़, तेल, हरी सब्जी, सूखे मेवे आदि सभी खाद्य सामग्री का आजीवन त्याग किये है. २४ घण्टे में एक बार भोजन, एक बार पानी लेते है वर्तमान में आचार्य श्री ने जल की अंजुली की मात्रा एवं संख्या भी निर्धारित और सीमित कर दी है.
जैन साधु अपने पैरों के रखने की भूमि, अंजुली से आहार-पानी गिरने का पात्र रखने की भूमि और आहार दाताओं के खड़े होने की भूमि, ऐसी तीन प्रकार की विशुद्ध पृथ्वी को दृष्टि में रखकर अपने दोनों पैरों को समान स्थापन कर आहार लेते है. मंदिर से आहार के लिए अज्ञात प्रतिज्ञा ले कर श्रावक के घर में जाकर, दीवार आदि के सहारे के बिना खड़े होकर करपात्र हाथों की अंजलि में शुद्ध भोजन लेते है, क्योंकि बैठकर भोजन करने से आहार मात्रा बढ़ती है और खड़े होकर भोजन करने से जिह्वा इन्द्रिय वश में हो जाती है. खड़े होकर भोजन करने से शारीरिक क्षमता ज्ञात हो जाती है. ये सबसे बड़ा कारण है, जब तक उनके हाथ मिल अंजलि बन सकती सकते हैं एवं पैर खड़े रहने के लिए स्थिर रह सकते हैं तब तक ही मुनिगण आहार लेते हैं. अन्यथा उपवास धारण कर लेते हैं.
सूर्य के उदय और अस्त के एक बार भोजन करना एक ही बार पानी पीना मूल गुण है-
उसमें भी मुख्यत: आहारचर्या निर्दोष रहनी चाहिए. उसमें भी जब आवश्यक हो तभी आहार करना चाहिए.
आचार्य श्री का कहना है, स्वयं सहन करो, दुर्लभ से मिलता है संयम. शरीर धर्म को चलाने के लिए खा रहा हूं, मेरे लिए नहीं खा रहा हूं. मुझे तो आत्मसाधना करनी है, ऐसे भाव रहना चाहिए. साधु आहार के समय पर यह भी ध्यान रखता है कि कितने काम से कम ग्रास लेना है.
अत्यल्प समय में आहार चर्या-
आचार्यश्रीजी की आहार चर्या अत्यल्प समय में संपन्न हो जाती है. नवधाभक्ति पूर्वक श्रावक पडग़ाहन करते हैं तब नीची दृष्टि कर उसके घर आहार को चले जाते हैं और आधा घंटे में आहार संपन्न कर वापस भी आ जाते हैं. आहार के समय आचार्य श्री की अनासक्तता देखकर ऐसा लगता है जैसे वे सिर्फ जीवन चक्र चलाने के लिए ही आहार ले रहे है . एक बार आहार करना भी श्रमण का एक मूलगुण है. उसका ही पालन करने वह चौके में जाते है और शीघ्र ही वापस आ जाते हैं.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-जबलपुर में रिश्वतखोर एसडीओ के घर पर ईओडब्ल्यू की दबिश, जमीनों की रजिस्ट्रियां, लाखों रुपए के जेवर
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