तमिलनाडु के तिरुतनी गॉव में 5 सितंबर 1888 को साधारण परिवार में जन्में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षा को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के साधन के रूप में परिभाषित करते हैं। सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए, उत्पादकता बढ़ाने के लिए, शिक्षा का उचित उपयोग किया जाना चाहिए। शिक्षा का महत्व न केवल ज्ञान और कौशल में है, बल्कि हमें दूसरों के साथ रहने में मदद करना है। अभिभूत, डॉ. राधाकृष्णन बचपन से ही पढाई-लिखाई में काफी रूचि रखते थे। वे भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति रहे। भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया था। सम्मान मे डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मोत्सव 5 सितम्बर देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
अभिष्ट, समाज में शिक्षा के समान ही शिक्षक का भी स्थान महत्वपूर्ण है। शिक्षा शिक्षक के अभाव में संपन्न नहीं हो सकती। पुस्तकें, सूचनाएं और संदेश दे सकती हैं, किंतु शिक्षा, अनुभव, संदर्भों की समायोचित तार्किक व्याख्या शिक्षक ही कर सकता है। शिक्षार्थी के पूर्वज्ञान और सामर्थ्य को समझकर उन्हें शिक्षित बनाना शिक्षक के ही वश की बात है। इसलिए समाज में उसका स्थान आदरपूर्ण वह पूज्यनीय है। शिक्षक भावी पीढ़ी का निर्माता-निर्देशक होने के नाते अन्यों की तुलना में अतिविशिष्ट भी है। इसीलिए गुरु का स्थान गोविंद से बड़ा बताया गया है। गुरु बिन सब सुन है। गुरु शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति की मूल पहचान है। आखिर! गुरु ही जीवन की राह दिखाता है। इस ध्येयपथ को आने वाली पीढ़ी को सौंपना अब हमारी जिम्मेदारी और जवाबदारी हैं।
आगे, जो कार्य जितना अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। उसके संपादन के लिए उतने ही अधिक योग्य और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यक्ति की आवश्यकता होती है। शिक्षण भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह केवल सूचनात्मक ज्ञान का हस्तांतरण मात्र नहीं है, बल्कि वर्तमान पीढ़ी के मूल्यनिष्ठ-आचरण का भावी पीढ़ी में प्रतिष्ठापन भी है। विद्यार्थी अपने शिक्षक के कार्य-व्यवहार से प्रभावित होता है, प्रेरणा लेता है। शिक्षक की शिक्षणेतर गतिविधियां भी शिक्षार्थी पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए समाज शिक्षक से रचनात्मक, विवेक-सम्मत और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करता है, किंतु प्रचलित व्यवस्थाओं ने शिक्षक को जिस सामान्य कर्मचारी का साधारण स्तर प्रदान किया है। उस स्तर पर शिक्षक भी अपनी गरिमा खोकर मजबूरन साधारण वेतनभोगी के तौर पर व्यवस्थाओं का पालनहार बन गया है।
अलबत्ता, व्यवस्थागत विसंगतियों और राजनीतिक दबावों के मध्य शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, अतिथिविद्वान आदि अनेक संवर्गों-दायरों में विभक्त शिक्षक वर्ग के समक्ष उपस्थित अनेक गंभीर समस्याओं और आक्षेपों के बाद भी सच्चे शिक्षक अपने दायित्वों के प्रति सचेत हैं, समर्पित हैं। यदि प्रशासनिक व्यवस्थाएं उन पर उनसे असंबंधित अन्य शिक्षणेतर कार्यों के निष्पादन का दबाव न डालें। उन्हें उनका नियत कार्य सम्पादित करने के लिए उचित अवसर दें तो शिक्षा क्षेत्र में और भी अच्छे परिणाम सहज संभावित हैं। जहां तक शिक्षकों के सम्मान का प्रश्न है, वह आशा, अपेक्षा, आग्रह और याचना का विषय नहीं। समाज अच्छे शिक्षक को और कुछ दे न दे, सम्मान अवश्य देता है। शिक्षक का सम्मान माला पहनाए जाने, प्रमाणपत्र जारी करने अथवा सम्मान राशि प्रदान किए जाने और उसका समाचार छापने से नहीं अपितु उनकी शिक्षा के सदुपयोग और मान-सम्मान से होता है।
वस्तुत: शिक्षक का वास्तविक सम्मान तो तब होता है जब उसका पढ़ाया हुआ कोई विद्यार्थी, जिसे वह पहचान भी नहीं पाता, उसके समक्ष आकर विनम्र भाव से आदर व्यक्त करता है। भारी भीड़ में शिक्षक के लिए अपना स्थान छोड़ दें। अपने कार्यालय में अधिकारी, व्यवसायी का सहज अहंकार त्यागकर साधारण से दिखने वाले अपने गुरू, शिक्षक के समक्ष सार्वजनिक रूप से नतमस्तक हो जाता है। यही अच्छे शिक्षक की वास्तविक कमाई है। उसके विद्यार्थी, समाज द्वारा उसका सच्चा सम्मान है और ऐसे सम्मान के लिए किसी दिवस की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा सम्मान अच्छे शिक्षक नित्य प्राप्त करते रहते हैं। यह अलग बात है कि ऐसे सच्चे सम्मानों के समाचार नहीं छपते। यही अप्रायोजित-अप्रकाशित सहज सम्मान सच्चे शिक्षक की वास्तविक निधि हैं। जिसके दम पर उनके शिष्य राष्ट्र के पुनर्निर्माण में अहम योगदान देकर मां भारती का सारे जग में यशोगान कर रहे हैं। जय गुरुदेव!
हेमेन्द्र क्षीरसागर, विचारक व स्तंभकार
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-हर दिन पर्यावरण दिवस, सजगता व जिम्मेदारी का संदेश!
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