दिल्ली. एक दीवानी मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जमीन और संपत्ति से जुड़े मामले में एससी-एसटी एक्ट लागू नहीं हो सकता. अनुसूचित जाति समुदाय का कोई व्यक्ति अपने और उच्च जाति समुदाय के किसी सदस्य के बीच विशुद्ध रूप से दीवानी विवाद को एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के दायरे में लाकर, इस कड़े दंड कानून को हथियार नहीं बना सकता.
जानकारी के अनुसार पी. भक्तवतचलम, जो अनुसूचित जाति समुदाय से संबंधित हैं, ने एक खाली भूखंड पर एक घर का निर्माण किया था. इसके बाद उच्च जाति समुदाय के सदस्यों द्वारा उनके भूखंड के बगल में एक मंदिर का निर्माण किया जाने लगा. मंदिर के संरक्षकों ने शिकायत दर्ज कराई थी कि भक्तवतचलम ने भवन निर्माण नियमों का उल्लंघन करते हुए, अपने घर के भूतल और पहली मंजिलों में अनधिकृत निर्माण कराया है.
इसके जवाब में, पी. भक्तवतचलम ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत एक शिकायत दर्ज कराई, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि मंदिर का निर्माण आम रास्ते, सीवेज और पानी की पाइप लाइनों पर अतिक्रमण करके हो रहा. उन्होंने अपनी शिकायत में कहा कि उच्च जाति समुदाय के लोग सिर्फ उन्हें परेशान करने के लिए उनके घर के बगल में मंदिर का निर्माण करवा रहे हैं. पी. भक्तवतचलम ने अपनी शिकायत में यह भी कहा कि उन्हें अपनी संपत्ति के शांतिपूर्ण आनंद से केवल इसलिए वंचित किया जा रहा है, क्योंकि वह एससी समुदाय से आते हैं.
चेन्नई की एक मजिस्ट्रेट अदालत ने उन अभियुक्तों को समन भेजा, जो कथित रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के कई प्रावधानों का उल्लंघन कर रहे थे. मजिस्ट्रेट अदालत द्वारा समन जारी करने के खिलाफ अपील करने पर मद्रास हाईकोर्ट ने उच्च जाति समुदाय से आने वाले आरोपियों को राहत देने से इनकार कर दिया. इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. जहां जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस कृष्ण मुरारी की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अपील की अनुमति दी, आरोपी व्यक्तियों को जारी किए गए समन को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विशुद्ध रूप से दीवानी विवाद के एक मामले को एससी-एसटी अधिनियम के तहत जातिगत उत्पीडऩ के मामले में बदलने का प्रयास किया जा रहा है, जो कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है.
अपने फैसले में न्यायमूर्ति एमआर शाह ने कहा कि ऐसा लगता है कि दो पक्षों के बीच निजी दीवानी विवाद को आपराधिक कार्यवाही में बदल दिया गया है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(वी) और (वी)(ए) के तहत अपराधों के लिए आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का प्रयास किया गया. इसलिए यह और कुछ नहीं बल्कि कानून और अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है. रिकॉर्ड पर रखे दस्तावेजों से, हम संतुष्ट हैं कि इस केस में एससी और एसटी अधिनियम के तहत अपराधों के लिए कोई मामला नहीं बनता है, यहां तक कि प्रथम दृष्टया भी नहीं बनता है. अधिनियम की धारा 3(1)(वी) और (वी)(ए) के तहत कोई अपराध नहीं हुआ है.
जस्टिस एमआर शाह ने फैसले में आगे लिखा कि इसलिए, हमारा दृढ़ विचार है कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में, उच्च न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर देना चाहिए था. उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश टिकने योग्य नहीं है और इसे रद्द किया जाना चाहिए. अपीलकर्ताओं के खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही भी रद्द की जानी चाहिए. इससे पहले भी 25 अक्टूबर, 2021 को अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर किसी अदालत को ऐसा महसूस होता है कि एससी/एसटी अधिनियम के तहत दर्ज कोई अपराध पूरी तरह से निजी या दीवानी से जुड़ा हुआ है या पीडि़त की जाति देखकर नहीं करा गया है, तो अदालतें मामले की सुनवाई निरस्त करने की अपनी ताकत का उपयोग कर सकती हैं.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-समलैंगिक विवाह से संबंधित सभी याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में होंगी ट्रांसफर, 13 मार्च से होगी सुनवाई
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