ज्योतिष के अनुसार ‘‘आयु, मृत्यु, भय, दुख, अपमान, रोग, दरिद्रता, दासता, बदनामी, विपत्ति, निन्दित कार्य, नीच लोगों से सहायता, आलस, कर्ज, लोहा, कृषि उपकरण तथा बंधन का विचार शनि ग्रह से होता है.
‘‘अपने अशुभ कारकत्व के कारण शनि ग्रह को पापी तथा अशुभ ग्रह कहा जाता है. परंतु यह पूर्णतया सत्य नहीं है. वृष, तुला, मकर और कुंभ लग्न वाले जातक के लिए शनि ऐश्वर्यप्रद, धनु व मीन लग्न में शुभकारी तथा अन्य लग्नों में वह मिश्रित या अशुभ फल देता है.
शनि पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का फल इस जन्म में अपनी भाव स्थिति द्वारा देता है. वह 3, 6, 10 तथा 11 भाव में शुभ फल देता है. 1, 2, 5, 7 तथा 9 भाव में अशुभ फलदायक और 4, 8 तथा 12 भाव में अरिष्ट कारक होता है.
बलवान शनि शुभ फल तथा निर्बल शनि अशुभ फल देता है. यह 36 वें वर्ष से विशेष फलदाई होता है. शनि की विंशोत्तरी दशा 19 वर्ष की होती है.
अतः कुंडली में शनि अशुभ स्थित होने पर इसकी दशा में जातक को लंबे समय तक कष्ट भोगना पड़ता है. शनि सब से धीमी गति से गोचर करने वाला ग्रह है. वह एक राशि के गोचर में लगभग ढाई वर्ष का समय लेता है. चंद्रमा से द्वादश, चंद्रमा पर, और चंद्रमा से अगले भाव में शनि का गोचर साढ़े-साती कहलाता है. वृष, तुला, मकर और कुंभ लग्न वालों के अतिरिक्त अन्य लग्नों में प्रायः यह समय कष्टकारी होता है.
शनि एक शक्तिशाली ग्रह होने से अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा दूसरे ग्रहों के फलादेश में न्यूनता लाता है. सप्तम दृष्टि के अतिरिक्त उसकी तीसरे व दसवें भाव पर पूर्ण दृष्टि होती है. शनि के विपरीत चंद्रमा एक शुभ परंतु निर्बल ग्रह है. चंद्रमा एक राशि का संक्रमण केवल 2( से 2) दिन में पूरा कर लेता है.
चंद्रमा के कारकत्व में मन की स्थिति, माता का सुख, सम्मान, सुख-साधन, मीठे फल, सुगंधित फूल, कृषि, यश, मोती, कांसा, चांदी, चीनी, दूध, कोमल वस्त्र, तरल पदार्थ, स्त्री का सुख, आदि आते हैं. जन्म समय चंद्रमा बलवान, शुभ भावगत, शुभ राशिगत, ऐसी मान्यता है कि शनि और चंद्रमा की युति जातक द्वारा पिछले जन्म में किसी स्त्री को दिये गये कष्ट को दर्शाती है.
वह जातक से बदला लेने के लिए इस जन्म में उसकी मां बनती है. माता का शुभत्व प्रबल होने पर वह पुत्र को दुख, दारिद्र्य तथा धन नाश देते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहती है. यदि पुत्र का शुभत्व प्रबल हो तो जन्म के बाद माता की मृत्यु हो जाती है अथवा नवजात की शीघ्र मृत्यु हो जाती है.
इसकी संभावना 14 वें वर्ष तक रहती है. दर्शाती है, जिसका अशुभ प्रभाव मध्य अवस्था तक रहता है. शनि के चंद्रमा से अधिक अंश या अगली राशि में होने पर जातक अपयश का भागी होता है.
सभी ज्योतिष ग्रंथों में शनि-चंद्र की युति का फल अशुभ कहा है. ‘‘जातक भरणम्’ ने इसका फल ‘‘परजात, निन्दित, दुराचारी, पुरूषार्थहीन’’ कहा है. ‘बृहद्जातक’ तथा ‘फलदीपिका’ ने इसका फल ‘‘परपुरूष से उत्पन्न, आदि’’ बताया है. अशुभ फलादेश के कारण इस युति को ‘‘विष योग’’ की संज्ञा दी गई है. ‘विष योग’ का अशुभ फल जातक को चंद्रमा और शनि की दशा में उनके बलानुसार अधिक मिलता है.
कंटक शनि, अष्टम शनि तथा साढ़ेसाती कष्ट बढ़ाती है. कुंडली में जिस भाव में ‘विष योग’ स्थित होता है उस भाव संबंधी कष्ट मिलते हैं. नजदीकी परिवारजन स्वयं दुखी रहकर विश्वासघात करते हैं. जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं और वह आर्थिक तंगी के कारण कर्ज से दबा रहता है. जीवन में सुख नहीं मिलता. जातक के मन में संसार से विरक्ति का भाव जागृत होता है और वह अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है.
भावानुसार ‘विष योग’ का फल
प्रथम भाव (लग्न) -इस योग के कारण माता के बीमार रहने या उसकी मृत्यु से किसी अन्य स्त्री (बुआ अथवा मौसी) द्वारा उसका बचपन में पालन-पोषण होता है. उसे सिर और स्नायु में दर्द रहता है. शरीर रोगी तथा चेहरा निस्तेज रहता है. जातक निरूत्साही, वहमी एवं शंकालु प्रवृत्ति का होता है. आर्थिक संपन्नता नहीं होती. नौकरी में पदोन्नति देरी से होती है. विवाह देर से होता है. दांपत्य जीवन सुखी नहीं रहता. इस प्रकार जीवन में कठिनाइयां भरपूर होती हैं.
द्वितीय भाव -घर के मुखिया की बीमारी या मृत्यु के कारण बचपन आर्थिक कठिनाई में व्यतीत होता है. पैतृक संपत्ति मिलने में बाधा आती है. जातक की वाणी में कटुता रहती है. वह कंजूस होता है. धन कमाने के लिए उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है. जीवन के उत्तरार्द्ध में आर्थिक स्थिति ठीक रहती है. दांत, गला एवं कान में बीमारी की संभावना रहती है.
तृतीय भाव - जातक की शिक्षा अपूर्ण रहती है. वह नौकरी से धन कमाता है. भाई-बहनों के साथ संबंध में कटुता आती है. नौकर विश्वासघात करते हैं. यात्रा में विघ्न आते हैं. श्वांस के रोग होने की संभावना रहती है.
चतुर्थ भाव - माता के सुख में कमी, अथवा माता से विवाद रहता है. जन्म स्थान छोड़ना पड़ता है. मध्यम आयु में आय कुछ ठीक रहती है, परंतु अंतिम समय में फिर से धन की कमी हो जाती है. स्वयं दुखी दरिद्र होकर दीर्घ आयु पाता है. उसके मृत्योपरांत ही उसकी संतान का भाग्योदय होता है. पुरूषों को हृदय रोग तथा महिलाओं को स्तन रोग की संभावना रहती है.
पंचम भाव - में विष योग होने से शिक्षा प्राप्ति में बाधा आती है. वैवाहिक सुख अल्प रहता है. संतान देरी से होती है, या संतान मंदबुद्धि होती है. स्त्री राशि में कन्यायें अधिक होती हैं. संतान से कोई सुख नहीं मिलता.
षष्ठ भाव - जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं. ननिहाल पक्ष से सहायता नहीं मिलती. व्यवसाय में प्रतिद्धंदी हानि करते हैं. घर में चोरी की संभावना रहती है.
सप्तम भाव - स्त्री की कुंडली में विष योग होने से पहला विवाह देर से होकर टूटता है, और वह दूसरा विवाह करती है. पुरूष की कुंडली में यह युति विवाह में अधिक विलंब करती है. पत्नी अधिक उम्र की या विधवा होती है. संतान प्राप्ति में बाधा आती है. दांपत्य जीवन में कटुता और विवाद के कारण वैवाहिक सुख नहीं मिलता. साझेदारी के व्यवसाय में घाटा होता है. ससुराल की ओर से कोई सहायता नहीं मिलती.
अष्टम भाव - दीर्घकालीन शारीरिक कष्ट और गुप्त रोग होते हैं. टांग में चोट अथवा कष्ट होता है. जीवन में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती. उम्र लंबी रहती है. अंत समय कष्टकारी होता है.
नवम भाव - भाग्योदय में रूकावट आती है. कार्यों में विलंब से सफलता मिलती है. यात्रा में हानि होती है. ईश्वर में आस्था कम होती है. कमर व पैर में कष्ट रहता है. जीवन अस्थिर रहता है. भाई-बहन से संबंध अच्छे नहीं रहते.
दशम भाव - पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते. नौकरी में परेशानी तथा व्यवसाय में घाटा होता है. पैतृक संपत्ति मिलने में कठिनाई आती है. आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रहती. वैवाहिक जीवन भी सुखी नहीं रहता.
एकादश भाव - बुरे दोस्तों का साथ रहता है. किसी भी कार्य मे लाभ नहीं मिलता. 1 संतान से सुख नहीं मिलता. जातक का अंतिम समय बुरा गुजरता है. बलवान शनि सुखकारक होता है.
द्वादश स्थान - जातक निराश रहता है. उसकी बीमारियों के इलाज में अधिक समय लगता है. जातक व्यसनी बनकर धन का नाश करता है. अपने कष्टों के कारण वह कई बार आत्महत्या तक करने की सोचता है.
महर्षि पराशर ने दो ग्रहों की एक राशि में युति को सबसे कम बलवान माना है. सबसे बलवान योग ग्रहों के राशि परिवर्तन से बनता है तथा दूसरे नंबर पर ग्रहों का दृष्टि योग होता है. अतः शनि-चंद्र की युति से बना ‘विष योग’ सबसे कम बलवान होता है. इनके राशि परिवर्तन अथवा परस्पर दृष्टि संबंध होने पर ‘विष योग’ संबंधी प्रबल प्रभाव जातक को प्राप्त होते हैं.
इसके अतिरिक्त शनि की तीसरी, सातवीं या दसवीं दृष्टि जिस स्थान पर हो और वहां जन्म कुंडली में चंद्रमा स्थित होने पर ‘विष योग’ के समान ही फल जातक को प्राप्त होते हैं.
उपाय शिवजी शनिदेव के गुरु हैं और चंद्रमा को अपने सिर पर धारण करते हैं. अतः ‘विषयोग’ के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए देवों के देव महादेव शिव की आराधना व उपासना करनी चाहिए. सुबह स्नान करके प्रतिदिन थोड़ा सरसों का तेल व काले तिल के कुछ दाने मिलाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हुये ‘ऊँ नमः शिवाय’ का उच्चारण करना चाहिए.
उसके बाद कम से कम एक माला ‘महामृत्युंजय मंत्र’ का जप करना चाहिए. शनिवार को शनि देव का संध्या समय तेलाभिषेक करने के बाद गरीब, अनाथ एवं वृद्धों को उरद की दाल और चावल से बनी खिचड़ी का दान करना चाहिए. ऐसे व्यक्ति को रात के समय दूध व चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे चंद्रमा और निर्बल हो जाता है.
Astro nirmal
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-अंक ज्योतिष के अनुसार तीन अंकों को बहुत बुरा माना जाता, कहीं आपका भी मूलांक तो इसमें शामिल नहीं
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