नवीन कुमार
महाराष्ट्र में भाजपा ने एकनाथ शिंदे गुट की शिवसेना और अजित पवार गुट के एनसीपी को अपने गठबंधन में शामिल करके सरकार तो बना ली और एक मजबूत दीवार के रूप में विपक्ष के सामने खड़ी भी हो गई है. बावजूद इसके भाजपा अपने इन दो साथियों की वजह से जिस अंतर्द्वंद्व से गुजर रही है उससे वह आगामी चुनावों के लिए एकला चलो की तैयारी में भी है. भाजपा की इस अंदरूनी तैयारी की हल्की झलक भाईंदर स्थित रामभाऊ म्हालगी प्रबोधनी में आयोजित चुनाव प्रभारियों और चुनाव प्रमुखों की दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में उजागर हुई. भाजपा को जो सबसे बड़ा डर सता रहा है वह एनसीपी से है जिसका विश्वासपात्र वाला चेहरा अब तक स्पष्ट नहीं हो पाया है. वैसे, एनसीपी का यह चरित्र बहुत पुराना है. जब वह कांग्रेस के साथ था तब भी कांग्रेस उस पर भरोसा नहीं करती थी. लेकिन यह संयोग है कि कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन का सिलसिला लंबा है. एनसीपी टूटने के बाद भी कांग्रेस का शरद पवार गुट के एनसीपी से गठबंघन बना हुआ है. एनसीपी के अजित गुट को भाजपा ने अपने साथ रखा है. शिंदे की शिवसेना पर भाजपा का विश्वास बना हुआ है. भाजपा मानती है कि शिंदे गुट की शिवसेना की मदद से ही राज्य में महा विकास आघाड़ी सरकार को गिराने में सफलता मिली और इसलिए एनसीपी को भी साथ लेकर भाजपानीत सरकार शिंदे के नेतृत्व में चलाई जा रही है. भाजपा गर्व से कहती है कि शिंदे गुट की शिवसेना के साथ उसका नैसर्गिक दोस्ती कायम है और एनसीपी की तरह उसे शिवसेना से डर नहीं है. शिंदे गुट की शिवसेना जिस तरह से उद्धव ठाकरे की शिवसेना के खिलाफ आक्रामक है उस तरह का तेवर अजित गुट नहीं दिखा पा रहा है बल्कि राजनीति से अलग हटकर पवार परिवार अपनी एकजुटता का प्रदर्शन कर रहा है जिससे भाजपा का डर बढ़ता जा रहा है. इसलिए भाजपा दबी आवाज में स्वीकार कर रही है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अजित गुट के एनसीपी से भाजपा को नुकसान हो सकता है और यह नुकसान भाजपा उठाना नहीं चाहती है. क्योंकि, भाजपा का एकमात्र लक्ष्य नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान कराना है. इसमें महाराष्ट्र की बड़ी भूमिका होगी. उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र ही ऐसा राज्य है जहां सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों की संख्या 48 है.
भाजपा के प्रयास से एनसीपी (अजित गुट) को उसके स्वाभाविक चरित्र के साथ शिंदे सरकार में शामिल कराया गया. सरकार में शामिल होते ही अजित गुट अपने तेवर में दिखाने लगे जो शिंदे गुट को पसंद नहीं है. क्योंकि, अजित गुट शिंदे गुट को कमजोर करते हुए सत्ता की कुर्सी हासिल करना चाहता है. इस वजह से शिंदे गुट और अजित गुट के बीच कोल्ड वार भी चल रहा है और इससे सरकार के कामकाज भी प्रभावित हो रहे हैं. दरअसल अजित के साथ भाजपा की वही स्थिति है जो कभी उद्धव के साथ थी. 2019 के चुनाव से पहले भाजपा ने उद्धव को मुख्यमंत्री की कुर्सी देने का वादा किया था और चुनाव के नतीजे आने के बाद यह वादा टूट गया जिससे शिवसेना-भाजपा गठबंधन की सरकार नहीं बन पाई. उद्धव ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन करके महा विकास आघाड़ी सरकार बना ली. लगभग ढ़ाई साल के बाद भाजपा ने शिवसेना को तोड़कर शिंदे गुट की शिवसेना के नेतृत्व में नई सरकार बना ली. शिंदे गुट के साथ मजबूत स्थिति होने के बावजूद भाजपा ने एनसीपी में भी तोड़फोड़ कर दी और अजिट गुट को अपनी सरकार में शामिल कर लिया. यहां तक तो ठीक है. लेकिन कहा जाता है कि भाजपा ने अजित को मुख्यमंत्री बनाने का प्रलोभन देकर शरद पवार से अलग किया. अजित दबंग और आक्रामक नेता के रूप में पहचाने जाते हैं. वह वादे के अनुकूल अपने तेवर में तो आ गए. पर उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिली. अब उनकी नाराजगी भाजपा की परेशानी का सबब बन गई. अजित राज्य सरकार के काम से दूर भी रहने हैं और भाजपा के आलाकमान तक को नजरअंदाज करने लगे हैं. भाजपा को अजित की नाराजगी भारी पड़ सकती है यह जानते हुए भाजपा की ओर से ऐसा माहौल बनाया जाने लगा जिससे अजित की नाराजगी दूर की जा सके और राज्य की जनता के बीच यह भी संदेश फैलाने की कोशिश होने लगी कि अजित नाराज नहीं हैं. डेंगू के शिकार अजित दिल्ली जाकर भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से उनके घर जाकर मुलाकात कर ली और मुंबई लौटकर राज्य सरकार के कामकाज में हिस्सा लेने लगे. इससे राजनीतिक माहौल यह बना कि अजित की नाराजगी दूर हुई है और वह आगामी चुनावों में भाजपा के मददगार साबित हो सकते हैं. अजित ने थोड़े अपने तेवर भी बदले. लेकिन वह अपने स्वाभाविक चरित्र को नहीं छोड़ पाए हैं जिसको लेकर भाजपा मंथन कर रही है कि आगामी चुनावों के दौरान ऐन मौके पर अजित अपने गुट वाले एनसीपी के साथ किस रंग में होंगे.
रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को लेकर गंभीर चिंतन और मंथन हुआ. भाजपा इस नतीजे पर आई कि लोकसभा चुनाव में अजित गुट के एनसीपी से ज्यादा खतरा नहीं है. लेकिन विधानसभा के चुनाव में भाजपा को उससे डर जरूर है. 2019 में लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 23 सीटों पर विजय हासिल की थी. भाजपा को 27.84 फीसदी वोट मिले थे. शिवसेना (अविभाजित) ने 18 सीटों पर जीत हासिल करके 23.5 फीसदी वोट पाया था. एनसीपी (अविभाजित) ने भी 4 सीटें जीतकर 15.66 फीसदी पाया था. कांग्रेस को एक सीट मिली थी और उसे 16.41 फीसदी वोट मिला था. एनसीपी के मुकाबले कांग्रेस का वोट फीसदी ज्यादा है. वोटों के आंकड़ों के आधार पर भाजपा ने जो अपनी रणनीति बनाई है उससे अगर उसने 2024 के लोकसभा चुनाव में 50 फीसदी वोट का आंकड़ा छू लेती है तो वह मोदी के लिए 42 सीटें जुटाने का अपना लक्ष्य पूरा कर सकती है. यह माना जाता है कि शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित गुट) दोनों के लिए लोकसभा चुनाव एक अग्निपरीक्षा है जिसमें यह साबित करना होगा कि वे भाजपा के वफादार साथी हैं. 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 105 सीटें जीतकर राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आई थी. इसलिए उसका आत्मबल मजबूत है और उसे लगता है कि 2024 के चुनाव में वह अपने दम पर 165 सीटों पर विजय हासिल कर लेगी जो बहुमत के आंकड़ा से 20 सीटें ज्यादा है. लेकिन भाजपा के सपने पर पानी फिर सकता है. क्योंकि, उसे एनसीपी से डर है कि उसने अगर कोई गलत खेल खेल लिया तो भाजपा के हसीन सपने टूट सकते हैं. भाजपा के सपने में बाधक न सिर्फ एनसीपी (अजित गुट) है बल्कि भाजपा के अंदर जो कलह है उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित गुट) के भाजपा से गठबंधन करने के कारण लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में कई भाजपाई नेताओं के टिकट कटेंगे. ये ऐसे भी नेता होंगे जो पिछले चुनाव में शिवसेना और एनसीपी के उम्मीदवारों को कांटे की टक्कर दी थी और कुछ तो चुनाव भी जीते हुए हैं. रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी के शिविर में इस मुद्दे पर आवाज उठी और उन्हें टिकट देने का आश्वासन नहीं मिला बल्कि उन्हें आश्वास्त किया गया कि उन्हें इसका मुआवजा मिलेगा. भाजपा के अंदर कलह का अपना रंग भी दिख रहा है. मराठा और ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर भाजपाइयों को मुंह बंद रखने की सलाह दी गई है. भाजपा में मराठा, ओबीसी और ब्राह्मणवाद का भी खेल चल रहा है. इसी खेल में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले को निशाना बनाया जा रहा है जो ओबीसी समाज से आते हैं. मकाऊ के कैसिनो में इनके कथित फोटो शिवसेना (उद्धव गुट) के जरिए उजागर किए गए और यह भी कहा जा रहा है कि बावनकुले ने जुए में लगभग साढ़े तीन करोड़ रूपए हार गए थे. इससे पहले ब्राह्मण समाज के देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री न बनाकर उपमुख्यमंत्री बनाया गया और वह इस दर्द को बार-बार सार्वजनिक करते रहते हैं. मराठा वोट ज्यादा होने के कारण एनसीपी (अजित गुट) के ओबीसी नेता छगन भुजबल की भी कमर तोड़ने की कोशिश हो रही है. उनसे पहले भाजपा में ओबीसी नेता पंकजा मुंडे को दरकिनार कर दिया गया है. अब अगर विपक्ष पर नजर डालें तो भाजपा गठबंधन के लिए कांग्रेस के अलावा उद्धव ठाकरे और शरद पवार कड़ी टक्कर देने के लिए तैयार हैं. स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में भाजपा अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत रखने के लिए शिंदे गुट और अजित गुट को साथ रखते हुए एकला चलो की रणनीति अपनाने की तैयारी भी कर ही सकती है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-महाराष्ट्र: आदित्य ठाकरे ने बिना पूछे कर दिया ब्रिज का उद्घाटन, दर्ज हुई FIR
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