आरक्षण के मुद्दे पर मराठा और ओबीसी के आंदोलन से किसे होगा राजनीतिक फायदा

आरक्षण के मुद्दे पर मराठा और ओबीसी के आंदोलन से किसे होगा राजनीतिक फायदा

प्रेषित समय :20:59:43 PM / Tue, Jan 16th, 2024
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नवीन कुमार

महाराष्ट्र में आरक्षण के मुद्दे पर मराठा और ओबीसी समुदाय के आंदोलन आक्रामक मोड़ पर है. मराठा आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन करने वाले मनोज जारांगे पाटिल ने घोषणा कर दी है कि 20 जनवरी से राज्यभर से तीन करोड़ मराठा मुंबई कूच करेंगे और 26 जनवरी को मोर्चा निकालेंगे. उससे पहले ओबीसी समाज ने भी 20 जनवरी को मुंबई में मोर्चा निकालने की घोषणा कर दी है. इन लाखों आंदोलनकारियों की वजह से न सिर्फ पूरे राज्य में तनाव की स्थिति पैदा हो सकती है बल्कि मुंबई का सामान्य जनजीवन भी अस्त व्यस्त हो सकता है. इससे राज्य की भाजपानीत सरकार संकट में घिर सकती है. वैसे, इस आंदोलन से भाजपा सहित हरेक राजनीतिक पार्टी अपने राजनीतिक फायदे भी देख रही है. क्योंकि, अगले तीन महीने के बाद लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं. इसलिए राज्य के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे सहित सभी राजनीतिक पार्टी मराठा आरक्षण के पक्ष में है और यह भी दावा किया जा रहा है कि मराठा को आरक्षण देने से ओबीसी समाज के आरक्षण को किसी भी तरह से नुकसान नहीं होगा.

मराठा आरक्षण का मुद्दा बहुत आसान नहीं है. इसको लेकर मराठा समुदाय कई सालों से आंदोलन कर रहा है. लेकिन कानूनी दांव पेंच में फंसने के कारण मराठा को आरक्षण देना संभव नहीं हो पा रहा है. एक रास्ता यह तय किया गया कि मराठा को कुनबी समाज में शामिल कर दिया जाए तो उसे ओबीसी के तहत आरक्षण का लाभ मिल सकता है. कुनबी पहले से ही ओबीसी में है और उसे आरक्षण मिल रहा है. लेकिन अब मराठा को कुनबी में लाने का विरोध हो रहा है. क्योंकि, मराठा को कुनबी का दर्जा मिलने से कुनबी की तादाद बढ़ेगी और इसका सीधा असर ओबीसी आरक्षण पर पड़ेगा. इसलिए ओबीसी समाज ने इसका विरोध करते हुए अपने आरक्षण को बचाने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया है. यह भी स्पष्ट है कि मराठा कोई जाति नहीं है बल्कि यह एक समुदाय है. इसलिए मराठा को आरक्षण देना संभव नहीं है. इसके लिए उसे कुनबी का प्रमाण पत्र देकर ओबीसी में शामिल किया जा सकता है. ओबीसी समाज के आंदोलनकारियों का आरोप है कि कुनबी का प्रमाण पत्र बांटने में गलत काम किए जा रहे हैं. यह प्रमाण पत्र बांटने पर रोक लगा देनी चाहिए. लेकिन मराठा समुदाय के लोग हैदराबाद निजाम का हवाला देकर कुनबी का प्रमाण पत्र चाहते हैं. आजादी से पहले निजाम के कार्यकाल में मराठा कुनबी थे और कुनबी ओबीसी में शामिल था. महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र भी निजाम का हिस्सा था. इसलिए उसी आधार पर मराठा को कुनबी का प्रमाण पत्र देकर ओबीसी आरक्षण का लाभ देने के लिए भी आंदोलन हो रहा है. शिंदे सरकार इसके लिए राजी है. मगर ओबीसी समाज इसके विरोध में है.

आरक्षण का मुद्दा पूरे देश में विवादों के घेरे में रहा है. मंडल आयोग के कारण भी पूरे देश में आंदोलन हुआ था जो हिंसक भी था. महाराष्ट्र में भी जारांगे के नेतृत्व वाला मराठा आरक्षण आंदोलन भी हिंसक रहा है. आरक्षण की मांग को लेकर कुछ मराठा ने आत्महत्या भी कर ली है. मराठा आरक्षण की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने नकार भी दिया है. काफी हद तक यह स्पष्ट हो चुका है कि कानूनी तौर पर मराठा को आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. बावजूद इसके शिंदे सरकार ने मराठा को आरक्षण दिलाने का आश्वासन दिया है और आरक्षण को लेकर मराठा आंदोलन की राह पर हैं. लेकिन यह भी स्पष्ट हो चुका है कि मराठा आरक्षण की मांग को लेकर जिस तरह से आंदोलन हो रहा है और उसके खिलाफ जिस तरह ओबीसी ने विरोध की आवाज बुलंद की है उससे महाराष्ट्र में मराठा और ओबीसी समाज बंट गया है और अपने हक के लिए लड़ने के मूड में आमने-सामने डटे हुए हैं. इसमें राजनीति की भी घुसपैठ हो चुकी है. लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ही राजनीतिक लाभ खंगाला जा रहा है. राज्य में मराठा और ओबीसी बड़ी संख्या में हैं. मराठा और ओबीसी में से किसी एक का जिस राजनीतिक पार्टी को सपोर्ट मिलेगा उससे लोकसभा चुनाव में अपनी जीत पक्की करने का सपना पूरा हो सकता है.

हालांकि, मराठा और ओबीसी के आंदोलन में जिस तरह से राजनीतिक दलों ने सेंध लगाई है उससे यह भी लग रहा है कि इन राजनीतिक दलों को मराठा और ओबीसी से खतरा भी दिख रहा है. जारांगे ने खुलकर भाजपा और एनसीपी के अजित पवार गुट का विरोध किया है. इसलिए भाजपा ने खासकर मराठा मुद्दे पर खुद को मुखर नहीं रखा है. वैसे, 2019 में जब राज्य की कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मराठा को आरक्षण देने का फैसला लिया था तो इसका चुनावी लाभ कांग्रेस-एनसीपी को नहीं मिला था बल्कि भाजपा ने अपनी झोली में मराठा वोट हासिल कर लिया था. भाजपा को अब भी अपनी उसी पुरानी रणनीति पर भरोसा है जिससे उसने मराठा आरक्षण के आंदोलन पर अपनी नजर डाल रखी है. भाजपा के पास ओबीसी वोट पाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा काफी है. भाजपा यह मानकर चल रही है कि चुनाव प्रचार के दौरान या उससे पहले मोदी अपनी ऐसी गारंटी कार्ड फेकेंगे जिससे मराठा और ओबीसी वोट भाजपा के पास चली आएगी. दूसरी ओर मराठा पर पकड़ मुख्यमंत्री शिंदे ने भी बना रखी है. वह खुद भी मराठा हैं और जारांगे के आंदोलन पर काफी हद तक कमांड कर रखा है. मराठा को आरक्षण दिलाने के लिए शिंदे ने भी गारंटी कार्ड दे रखा है. इसलिए शिंदे की शिवसेना को मराठा वोट मिलने की उम्मीद काफी पक्की मानी जा रही है. लेकिन मराठा नेता अजित पवार गुट की एनसीपी को मराठा वोट का झटका लग सकता है. यह आभास है. इसलिए अजित गुट के ओबीसी नेता छगन भुजबल मराठा आरक्षण के विरोध में खड़े हैं. भुजबल ने तो मराठा को कुनबी प्रमाण पत्र देने के मामले में अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है. मराठा समुदाय एकजुट है. मगर ओबीसी समाज के नेता एकजुट नहीं हैं. अजित गुट के भुजबल ने अपनी राह पकड़ रखी है तो कांग्रेस के नेता ने भुजबल से दूरी बढ़ा ली है. भाजपा की ओबीसी नेता पंकजा मुंडे मुखर नहीं हैं. पुरानी शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे मराठा के साथ ओबीसी के पक्ष में भी खड़े हैं. पुरानी एनसीपी के नेता शरद पवार की मराठा पर पहले की तरह ही पकड़ मजबूत है और ओबीसी के हक में अब भी आवाज उठा रहे हैं.

यह भी आशंका है कि चुनावी साल होने के कारण मराठा आरक्षण का आंदोलन आंदोलन ही बनकर रह जाएगा. क्योंकि, आंदोलन को मार्च महीने तक खींचा जा सकता है और इसके बाद लोकसभा चुनाव के कारण आचार संहिता लागू हो जाएगा. फिर मराठा आरक्षण का मुद्दा यूं ही रह जाएगा. वैसे, यह सब जारांगे को मालूम है. इसलिए मराठा आरक्षण आंदोलन को आक्रामक किया जा रहा है. हालांकि, नागपुर के शीतकालीन अधिवेशन में मुख्यमंत्री शिंदे ने मराठा आरक्षण के मुद्दे पर फरवरी में विशेष अधिवेशन बुलाने का आश्वासन दिया था. लेकिन इस विशेष अधिवेशन में जो भी फैसला लिया जाएगा उसे तुरंत कार्यांवित करना संभव नहीं होगा और फैसला आचार संहिता लागू होने के साथ रूक जाएगा. लेकिन इस मुद्दे को विपक्ष भुनाने की कोशिश करेगा और मराठा वोट किस राजनीतिक दल का हिस्सा बनेगा यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा. मराठा आरक्षण लागू नहीं होने से ओबीसी समाज खुश होगा और फिर ओबीसी का वोट भी किस दिशा में होगा इसका भी पता चुनाव के बाद ही चलेगा. लोकसभा चुनाव के कारण मराठा आरक्षण का मुद्दा लटकता है तो यह महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव तक लटकेगा. विधानसभा का चुनाव भी लोकसभा चुनाव के छह-सात महीने के बाद ही होने वाले हैं. एक तरह से देखा जाए तो मराठा आरक्षण का मुद्दा चुनावी वायदे की भेंट चढ़ सकता है. लेकिन हर राजनीतिक पार्टी के लिए मराठा और ओबीसी आरक्षण का मुद्दा बना रहेगा. यह मुद्दा बना रहे इसके लिए टालने वाली नीति का सहारा लिया जा रहा है. अब देखना यह दिलचस्प होगा कि सारी तिकड़म के बावजूद चुनावों में मराठा और ओबीसी किस राजनीतिक दल को अपना समर्थन देते हैं.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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