महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे को लेकर उलझी हैं राजनीतिक पार्टियां

महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे को लेकर उलझी हैं राजनीतिक पार्टियां

प्रेषित समय :20:45:54 PM / Sat, Mar 2nd, 2024
Reporter : reporternamegoeshere
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नवीन कुमार

महाराष्ट्र में भी लोकसभा के चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों के बीच उथल पुथल मचा हुआ है. हरेक पार्टी अपनी मन-पसंद और जीतने वाली सीटों पर दावा कर रही है. लेकिन गठबंधन के धर्म में फंसे होने कारण किसी भी पार्टी को मनचाही सीट नहीं मिल रही है. इससे सीटों के बंटवारे को लेकर सभी पार्टियां उलझी हुई हैं. राज्य में राजनीतिक पार्टियों के मुख्य रूप से दो गठबंधन हैं-एक गठबंधन सत्ता पक्ष का है जिसका नेतृत्व भाजपा कर रही है और इस गठबंधन में भाजपा के साथ एकनाथ शिंदे गुट की शिवसेना और अजित पवार गुट की एनसीपी है. इसमें और भी छोटी-छोटी पार्टियां शामिल हैं. दूसरा गठबंधन विपक्ष का महा विकास आघाड़ी है जिसमें उद्धव ठाकरे गुट की शिवसेना, शरद पवार गुट की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी-शरदचंद्र पवार और कांग्रेस है. इस आघाड़ी में प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाड़ी के अलावा कुछ और छोटी पार्टियों को भी शामिल करने की कवायद हो रही है. राज्य में इन दोनों गठबंधनों की जो राजनीतिक स्थिति है उससे यह तय है कि लोकसभा चुनाव में इन्हीं दोनों गठबंधनों के बीच कांटे की टक्कर होने वाली है. इसलिए दोनों गठबंधन में सीटों के बंटवारे के लिए काफी माथा पच्ची की जा रही है. सीटों के बंटवारे को लेकर यहां जो परंपरा रही है उसके मुताबिक नामांकन की अर्जी दाखिल करने की अंतिम तारीख से दो-चार दिन पहले तक मान-मनौवव्ल भी होता रहता है. लेकिन अभी जो स्थिति दिख रही है उसमें हर पार्टी की जीतने की ताकत को तौला जा रहा है.

2019 के मुकाबले 2024 का लोकसभा चुनाव कई स्थितियों और परिस्थितियों से अलग है. राज्य में 2019 में भाजपा और शिवसेना का गठबंधन था. लेकिन अब यह गठबंधन टूट गया है. इसलिए भाजपा भले ही खुद को ताकतवर और आम जनता की पसंद वाली पार्टी के रूप में पेश कर रही हो लेकिन उसकी नींद हराम करने के लिए विपक्ष भी कमजोर नहीं है. भाजपा अपना गारंटी कार्ड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मान रही है. मोदी हैं तो भाजपा की जीत मुमकिन है. भाजपा में मोदी के मुकाबले दूसरा चेहरा नहीं है. लेकिन जिस तरह से भाजपा अपनी चुनावी रणनीति में आक्रामक दिख रही है उससे यह भी एहसास हो रहा है कि भाजपा को किसी खास बात का डर है. यह डर बता रहा है कि मोदी के सपने का आंकड़ा 400 के पार होना आसान नहीं है. अब इस आंकड़े को पाने के लिए भाजपा दागी कांग्रेसियों को भी अपने साथ करने में जुटी हुई है. ये दागी कांग्रेसी अपने क्षेत्र में मजबूत स्थिति में हैं. भाजपा भले ही ऐसे कांग्रेसियों पर भरोसा कर ले लेकिन आम जनता में भाजपा का चरित्र कांग्रेसीकरण के रूप में भी उभर रहा है. यह चरित्र मोदी को अपने गारंटी वाले जुमले के साथ कितना सुरक्षित रख सकेगा, लोकसभा चुनाव के नतीजे से ही स्पष्ट हो सकता है.

भाजपा अपनी तोड़फोड़ नीतियों के लिए भी लोकप्रिय है. इसमें केंद्रीय एजंसियां उसके लिए परदे के पीछे से सहायक साबित हो रही हैं. अब महाराष्ट्र में ही देखिए. भाजपा ने सबसे पहले अपनी पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना को तोड़ दिया. हिंदुत्व के नाम पर शिवसेना के मजबूत स्तंभ एकनाथ शिंदे और उनके 40 साथियों को उद्धव ठाकरे के नेतृत्व को नकारते हुए शिवसेना से अलग कर दिया. कानूनी तौर पर शिंदे के पास असली यानी पुरानी शिवसेना आ गई. शिंदे को मुख्यमंत्री का भी पद मिल गया. बाला साहेब को आदर्श मानकर शिंदे अब पूरे राज्य में शिवसैनिकों को अपने साथ जोड़ने में जुटे हैं. इसमें उन्हें सफलता मिल रही है ऐसा वह जाहिर कर रहे हैं. इसके पीछे उनका तर्क है कि शिवसेना के सांसदों और विधायकों के साथ पार्टी के अन्य नेता और शिवसैनिक भी उनके साथ हैं. भाजपा अपनी ताकत बढ़ाने के लिए शरद पवार की पार्टी एनसीपी को भी तोड़ दिया. शरद के सबसे प्रिय भतीजे अजित पवार ने ही पार्टी को तोड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. जिस तरह से शिंदे के पास शिवसेना है उसी तरह से अजित के पास भी एनसीपी है. राज्य में भाजपा ने जिस तरह से शिवसेना और एनसीपी को जमीनी स्तर पर कमजोर करने की कोशिश की उसी तरह से अब कांग्रेस को भी बेहाल करने का काम कर रही है. यह दीगर बात है कि भाजपा ने कांग्रेस के प्रति लोगों में नफरत के बीज बोए हैं लेकिन इसी कांग्रेस के भ्रष्ट कांग्रेसी नेताओं पर भाजपा को अपनी जीत का भरोसा दिख रहा है और उन्हें भाजपा में शामिल भी किया जा रहा है. भाजपा का यह दोहरा चरित्र उसे किस ऊंचाई और खाई में ले जा सकता है इसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा.

लोकसभा के चुनाव को ध्यान में रखकर ही पक्ष और विपक्ष अपनी राजनीतिक जमीन पर काम कर रहे हैं. राज्य में लोकसभा की 48 सीटें हैं और भाजपा ने इसमें से 45 सीटों पर जीत पक्की करने के लिए अपनी गणित तैयार कर ली है. इसमें सबसे ज्यादा सीटों पर भाजपा खुद चुनाव लड़ना चाहती है ताकि उसे नतीजे देखकर घबराहट न हो. भाजपा तो यह मानकर चल रही है कि चुनाव तो मोदी के नाम पर ही लड़ा जाना है. ऐसे में गठबंधन की सहयोगी पार्टियों शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित गुट) को कम से कम सीटें देकर खुश रखने की भी कोशिश हो रही है. लेकिन भाजपा की इस रणनीति से शिंदे और अजित गुट में नाराजगी है. शिंदे गुट का दावा है कि 2019 में जब भाजपा और शिवसेना का गठबंधन था तो भाजपा ने 23 और शिवसेना ने 18 सीटें जीती थी. शिंदे गुट 2019 का ही फार्मूला दोहराना चाहता है. शिवसेना को तोड़ने में कामयाबी मिलने के बाद शिंदे गुट का हौसला बुलंद है और शिंदे के प्रयास से ही मराठा आरक्षण आंदोलन को काबू में कर लिया गया. शिंदे सरकार ने एक विधेयक लाकर मराठाओं को स्वतंत्र रूप से 10 फीसदी आरक्षण देने की भी घोषणा कर दी है. इस तरह से शिंदे गुट ने पूरे राज्य में अपनी ताकत का विस्तार किया है जिसके सहारे राज्य में लोकसभा चुनाव में मोदी को भी ज्यादा सीटें मिलेगी. शिंदे की तरह अजित की स्थिति नहीं है. शरद की पार्टी भले ही बंट गई है लेकिन अभी भी शरद का करिश्मा बरकरार है. शरद अपनी पार्टी में युवाओं की नई फौज तैयार कर रहे हैं और यह अजित पर भारी पड़ सकती है. 2019 में शरद के दम पर उनके चार सांसद चुने गए थे. लेकिन अजित यह आंकड़ा लाने में अभी सक्षम नहीं दिख रहे हैं. इसलिए भाजपा ने अजित गुट को चार सीटों पर ही सिमटाना चाहती है. भाजपा गठबंधन में होने के कारण शिंदे और अजित गुट खुलकर बोलने से बच रहे हैं. खासकर अजित गुट को पता है कि ज्यादा बोलने से मोदी का दबाव उन पर भारी पड़ेगा. राज्य में यह भी स्थिति स्पष्ट दिख रही है कि मुकाबला भाजपा और उद्धव गुट की शिवसेना के बीच होने वाली है. भाजपा की ओर से यह भी प्रयास हो रहा है कि किस तरह से चुनावी मैदान में उद्धव गुट की शिवसेना को घेरा जाए ताकि उसे हार का मुंह देखना पड़े. लेकिन उद्धव गुट ने भी कमान संभाल ली है और उसे बाला साहेब से प्यार करने वाले शिवसैनिकों पर भरोसा है. इसलिए उद्धव भी भाजपा की तरह ही अपने गठबंधन महा विकास आघाड़ी में ज्यादा से ज्यादा 30 सीटों की मांग की है. इसके लिए कांग्रेस तैयार नहीं है. लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस कम सीटों पर तैयार हो जाएगी. क्योंकि, उसे भी अपनी ताकत का एहसास है. अब दोनों गठबंधनों में जिन खास-खास सीटों पर पेंच फंसे हैं उसे छुड़ाने की कवायद हो रही है. अगर यह पेंच आपसी समझौतों और मन को खुश करके नहीं छुटे तो यह तय है कि उन सीटों पर धोखा मिल सकता है. कहने का मतलब साफ है कि सीटों का बंटवारा जिस भी तरीके से कर लिया जाए इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता है कि इस बार लोकसभा चुनाव में समझौता और धोखे का भी खेल देखने के मिल सकता है.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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