विशेष संवाददाता ,नई दिल्ली.भारत की संसद में इन दिनों जिस मुद्दे पर सबसे तीखी बहस छिड़ी हुई है, वह है ऑपरेशन सिंदूर एक ऐसा सैन्य अभियान, जिसके ज़रिए भारत ने 9 मई 2025 को पाकिस्तान द्वारा दागे गए लगभग 1,000 मिसाइलों और ड्रोन को नाकाम किया. यह कार्रवाई 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के जवाब में की गई थी, जिसमें सुरक्षाबलों और नागरिकों की जानें गई थीं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस ऑपरेशन का खुलासा संसद में किया और इसे भारत की सामरिक क्षमता और आत्मनिर्णय का प्रतीक बताया. उन्होंने जोर देकर कहा कि इस कार्रवाई में किसी भी विदेशी नेता या देश की कोई भूमिका नहीं थी, और भारत ने यह कदम पूरी तरह स्वतंत्र रूप से उठाया.
लेकिन असल बहस यहीं से शुरू हुई
प्रधानमंत्री के बयान के बाद विपक्ष ने कड़ा रुख अपनाया. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को सीधे चुनौती देते हुए पूछा, “अगर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बार-बार कह रहे हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम कराया, तो प्रधानमंत्री उन्हें झूठा क्यों नहीं कह रहे?” यह बयान उस अमेरिकी दावे की ओर इशारा करता है, जिसमें ट्रंप ने सार्वजनिक मंचों पर 28 से अधिक बार दावा किया कि उन्होंने भारत–पाक के बीच युद्ध टलवाया.
राहुल गांधी का कहना है कि अगर भारत ने पूरी तरह स्वायत्त रूप से कार्रवाई की थी, तो प्रधानमंत्री को खुलकर ट्रंप के दावे का खंडन करना चाहिए. उनका यह सवाल एक व्यापक विमर्श को जन्म देता है: क्या भारत जैसी उभरती वैश्विक शक्ति की विदेश नीति किसी अन्य देश के बयान पर स्पष्टीकरण देने की मोहताज होनी चाहिए?
टीएमसी का तीखा वार: "सरकार नैरेटिव हार गई"
तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने इस मुद्दे को ‘नैरेटिव की लड़ाई’ बताया है. टीएमसी सांसदों का कहना है कि सरकार ने भले ही सैन्य कार्रवाई में सफलता हासिल की हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की छवि धुंधली हो गई है क्योंकि अमेरिका जैसे देश के एक पूर्व राष्ट्रपति बार-बार दावे कर रहे हैं और भारत की ओर से स्पष्ट प्रतिकार नहीं आ रहा.
यह स्थिति एक संचार शून्य की ओर इशारा करती है, जहां सरकार के अंदरूनी सशक्त निर्णयों को बाहर सही तरह से प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे "नैरेटिव" यानी सार्वजनिक धारणा पर विपक्ष को हावी होने का मौका मिला.
प्रधानमंत्री की चुप्पी या रणनीतिक चतुराई?
यह भी सवाल उठाया जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी की ट्रंप पर चुप्पी राजनयिक रणनीति है या फिर राजनीतिक असहजता.
विश्लेषकों की राय बंटी हुई है:
एक पक्ष मानता है कि मोदी सरकार मौजूदा अमेरिकी प्रशासन के साथ संबंधों को प्राथमिकता दे रही है, और ट्रंप के बयानों का खंडन करना अमेरिकी राजनीति में अनावश्यक हस्तक्षेप माना जा सकता है.
दूसरा पक्ष इसे आत्मविश्वास की कमी और नैरेटिव काबू करने में विफलता के रूप में देखता है.
विदेशी संबंधों में आंतरिक राजनीति की घुसपैठ
यह विवाद इस बात को भी रेखांकित करता है कि कैसे भारत की विदेश और सुरक्षा नीति अब घरेलू राजनीतिक बहस का हिस्सा बन गई है. पहले जो बातें केवल गुप्त फाइलों और कूटनीतिक गलियारों तक सीमित रहती थीं, अब संसद और सोशल मीडिया पर खुलकर चर्चा का विषय बन गई हैं.
यह लोकतंत्र के लिए एक स्वस्थ संकेत हो सकता है, लेकिन इसकी अपनी चुनौतियां भी हैं—विशेषकर तब जब रणनीतिक मामलों में एकजुटता की अपेक्षा होती है.
निष्कर्ष: असली लड़ाई जमीन पर नहीं, धारणा पर है
"ऑपरेशन सिंदूर" भारत की सैन्य शक्ति और प्रतिक्रिया क्षमता का प्रतीक है, इसमें कोई संदेह नहीं. लेकिन इससे जुड़ा विवाद यह दर्शाता है कि अब युद्ध केवल सीमा पर नहीं, बल्कि शब्दों और नैरेटिव में भी लड़ा जा रहा है. विपक्ष सरकार से स्पष्टता और पारदर्शिता की मांग कर रहा है, जबकि सरकार इसे सुरक्षा और रणनीतिक गोपनीयता का मामला बताकर सीमित प्रतिक्रिया दे रही है.
इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे अब केवल सैन्य या कूटनीतिक नहीं रहे, बल्कि वे जनता, मीडिया और संसद की निगरानी में हैं. इसीलिए सरकार को चाहिए कि वह सिर्फ कार्रवाई ही नहीं, बल्कि नैरेटिव निर्माण में भी सशक्त भूमिका निभाए—क्योंकि 21वीं सदी में युद्ध केवल हथियारों से नहीं, विचारों से भी जीते जाते हैं.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-




