अमेरिकी कंपनियों का बहिष्कार सोशल मीडिया ट्रेंड ट्रम्प के 50 प्रतिशत टैरिफ ने दी इंडियन स्वदेशी क्रांति

अमेरिकी कंपनियों का बहिष्कार सोशल मीडिया ट्रेंड ट्रम्प के 50 प्रतिशत टैरिफ ने दी इंडियन स्वदेशी क्रांति

प्रेषित समय :19:24:25 PM / Sat, Aug 16th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

भारत–अमेरिका के बीच व्यापारिक तनाव कोई नया विषय नहीं है, लेकिन हाल ही में अमेरिका द्वारा भारत से आयातित कई उत्पादों पर 50 प्रतिशत तक का भारी टैरिफ लगाने के निर्णय ने माहौल को गरमा दिया है. इस कदम के बाद से भारतीय सोशल मीडिया पर एक नई लहर उठी है, जिसे यूज़र “दी इंडियन स्वदेशी क्रांति” कहकर बुला रहे हैं. इस अभियान में अमेरिकी कंपनियों के बहिष्कार की मांग तेज़ी से फैल रही है और इसमें McDonald’s, Coca-Cola, Amazon, Apple जैसे बड़े ब्रांडों का नाम सबसे ऊपर है. सोशल मीडिया पर यह ट्रेंड केवल आर्थिक असंतोष की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि भारत में स्वदेशी भावना को पुनर्जीवित करने वाला एक सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श भी बन गया है.

भारतीय उपभोक्ताओं की इस प्रतिक्रिया को समझने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में झांकना होगा. स्वदेशी आंदोलन भारत की आज़ादी की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है, जहाँ विदेशी वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार कर आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाए गए थे. आज वही भावना नए रूप में सोशल मीडिया के जरिये जीवित होती दिख रही है. लाखों यूज़र्स #BoycottAmericanBrands, #SwadeshiRenaissance, #IndianSelfReliance जैसे हैशटैग चला रहे हैं और अमेरिकी कंपनियों से जुड़े हर बड़े विज्ञापन या उत्पाद लॉन्च के नीचे टिप्पणी कर रहे हैं कि अब भारत को अपनी राह खुद चुननी होगी.

ट्रम्प प्रशासन का यह टैरिफ निर्णय भारत के लिए कई मायनों में झटका है. भारत से अमेरिका को जाने वाला आयात बड़ा हिस्सा टेक्सटाइल, स्टील, फार्मा और आईटी सेवाओं का होता है. जब इन पर भारी टैक्स लगाया गया तो भारतीय उद्योगों को निर्यात में बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा. हालांकि अमेरिकी पक्ष का तर्क यह है कि यह कदम “अमेरिकन मैन्युफैक्चरिंग” को बचाने और घरेलू रोजगार को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है. लेकिन भारतीय नज़रिए से यह सीधा आर्थिक अन्याय है. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि वाशिंगटन ने इस कदम से वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (WTO) की भावना को ठेस पहुंचाई है और इससे वैश्विक व्यापार तंत्र में असंतुलन पैदा होगा.

सोशल मीडिया का परिदृश्य इस पूरे मामले को और दिलचस्प बना देता है. पहले जहाँ इस तरह के फैसलों पर केवल विशेषज्ञ ही बहस करते थे, वहीं अब हर आम नागरिक ट्वीट, इंस्टाग्राम पोस्ट, फेसबुक रील और यूट्यूब व्लॉग के जरिये अपनी राय जाहिर कर रहा है. दिलचस्प बात यह है कि बहिष्कार की अपील केवल गुस्से से नहीं बल्कि सांस्कृतिक चेतना से भी जुड़ी है. कई लोग यह तर्क दे रहे हैं कि अमेरिकी कंपनियों का बहिष्कार केवल अमेरिका को जवाब देना नहीं है बल्कि भारत में छोटे–मोटे स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देने का भी एक अवसर है. खासकर स्टार्टअप इकोसिस्टम से जुड़े युवा यह मानते हैं कि यदि उपभोक्ता विदेशी ब्रांडों से हटकर भारतीय उत्पादों की ओर रुख करेंगे तो देश में आत्मनिर्भरता को नई गति मिलेगी.

उदाहरण के तौर पर सोशल मीडिया पर Coca-Cola के खिलाफ एक बड़ा कैंपेन चल रहा है, जिसमें लोग “Drink Local, Save Nation” जैसे स्लोगन लिख रहे हैं और ठेले पर मिलने वाले नींबू पानी या देशी शरबत की तस्वीरें शेयर कर रहे हैं. McDonald’s के बर्गर के मुकाबले भारत की चाट, समोसा, इडली–डोसा को ग्लोबल ब्रांड के रूप में प्रमोट करने की मांग उठ रही है. वहीं Amazon और Apple जैसे टेक दिग्गजों के खिलाफ लोग यह लिख रहे हैं कि भारत को ई-कॉमर्स और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अपनी ही कंपनियों को मजबूत करना चाहिए.

हालांकि आलोचक भी कम नहीं हैं. कुछ अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि अमेरिकी कंपनियों का बहिष्कार करना व्यावहारिक रूप से कठिन है क्योंकि वे भारतीय अर्थव्यवस्था में गहराई से जुड़ चुकी हैं. उदाहरण के लिए Amazon और Apple का भारतीय बाजार में बड़ा हिस्सा है और लाखों लोग उनके प्रोडक्ट्स और सर्विसेज का उपयोग करते हैं. अगर लोग अचानक इनसे दूरी बनाते हैं तो इससे रोज़गार पर भी असर पड़ सकता है. इसके अलावा भारतीय कंपनियों को गुणवत्ता और नवाचार के स्तर पर अभी भी लंबा रास्ता तय करना होगा ताकि वे अमेरिकी दिग्गजों का मुकाबला कर सकें.

इसके बावजूद, यह ट्रेंड एक गहरी सामाजिक–राजनीतिक चेतना को जन्म देता है. भारत के आम नागरिक यह संदेश देना चाहते हैं कि वैश्विक राजनीति और व्यापारिक नीतियों का सीधा असर उनकी ज़िंदगी पर पड़ता है और वे अब केवल मूकदर्शक नहीं रहना चाहते. स्वदेशी आंदोलन की याद दिलाते हुए यह अभियान युवाओं के बीच आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनता जा रहा है.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर भी इसके गहरे निहितार्थ हैं. अमेरिका और भारत हाल के वर्षों में रक्षा, तकनीक और रणनीतिक साझेदारी में काफ़ी करीब आए हैं. लेकिन व्यापारिक मोर्चे पर इस तरह के टकराव रिश्तों को जटिल बना सकते हैं. चीन जैसे देश इस स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश करेंगे, क्योंकि वे भारत को अमेरिकी प्रभाव से दूर करने के लिए नए अवसर देख रहे हैं. वहीं भारत को भी अपनी व्यापारिक रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा—क्या उसे अमेरिका पर निर्भर रहना है या यूरोप, अफ्रीका और एशिया के अन्य देशों के साथ अपने रिश्तों को मज़बूत करना है.

सार्वजनिक विमर्श में यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या सोशल मीडिया का यह ट्रेंड वास्तव में लंबे समय तक टिक पाएगा या यह कुछ हफ्तों का गुस्सा भर है. भारतीय समाज में विदेशी ब्रांडों की गहरी पैठ और आकर्षण को देखते हुए यह कहना आसान नहीं है कि लोग स्थायी रूप से उनका बहिष्कार करेंगे. लेकिन इतना ज़रूर है कि इस ट्रेंड ने एक गंभीर बहस को जन्म दिया है, जिसने न केवल अमेरिकी टैरिफ नीति पर सवाल उठाया है बल्कि भारत की आत्मनिर्भरता के सपने को भी केंद्र में ला दिया है.

इस तरह अमेरिकी कंपनियों के बहिष्कार का यह सोशल मीडिया ट्रेंड केवल एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं बल्कि भारत के आर्थिक भविष्य, सांस्कृतिक अस्मिता और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की दिशा तय करने वाला विमर्श बनता जा रहा है. चाहे यह बहिष्कार टिके या न टिके, लेकिन इसने भारतीयों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या अब समय आ गया है कि वे अपने ही देश की कंपनियों और उत्पादों को प्राथमिकता दें और एक नई “स्वदेशी क्रांति” की शुरुआत करें.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-