उप्र में न्याय पंचायतों का खात्मा:एक अनुचित निर्णय

स्वयं को भारतीय संस्कृति और परम्पराओं का पोषक दल बताने वाले भारतीय जनता पार्टी के विचारकों के लिए यह आइना देखने की बात है कि उत्तर प्रदेश की योगी केबिनेट ने समाज और संविधान की मान्यता प्राप्त न्याय पंचायत सरीखे एक परम्परागत संस्थान को खत्म करने का निर्णय लिया. उत्तर प्रदेश के पंचायत प्रतिनिधियों तथा ग्रामसभाओं के लिए यह प्रतिक्रिया व्यक्त की बात है कि यह निर्णय इस तर्क के साथ लिया गया है कि न्याय पंचायतों के सरपंच व सदस्य न्याय करने में सक्षम नहीं हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह विश्लेषण करने की बात है कि न्याय पंचायती व्यवस्था को खत्म करने का निर्णय कितना उचित है, कितना अनुचित ? आइये, करें.

अपनी गर्दन बचाने को न्याय पंचायत की बलि

गौरतलब है कि भारत के जिन आठ राज्यों के पंचायतीराज अधिनियम में न्याय पंचायत का प्रावधान है, उत्तर प्रदेश उनमें से एक है. उत्तर प्रदेश पंचायतीराज अधिनियम 1947 के अध्याय छह की धारा 42, 43 और 44 में इस बाबत् स्पष्ट निर्देश हैं. अधिनियम में ग्राम पंचायतों के गठन के तुरन्त बाद वार्ड सदस्यों के बीच पंच नामित कर न्याय पंचायतें गठित किए जाने का प्रावधान है. बीते 40 वर्षों में उत्तर प्रदेश में पंचायत के चुनाव तो कई बार हुए, लेकिन आई-गई सरकारों ने न्याय पंचायत गठन के नाम पर चुप्पी साधे रखना ही बेहतर समझा. उत्तर प्रदेश में अंतिम बार वर्ष 1972 में न्याय पंचायतों का गठन हुआ. 1998 में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने न्याय पंचायतों की पुनर्गठन प्रक्रिया को शुरु करने की कोशिश ज़रूर की, किंतु सरकार गिर जाने के कारण वह प्रक्रिया पूरी न करा सके.

संवैधानिक प्रावधान को लागू न करना, एक असंवैधानिक कार्य है. उम्मीद की गई थी कि मुख्यमंत्री योगी न्याय पंचायतों के गठन की रुकी हुई प्रक्रिया को पुनः शुरु कराकर सरकार को इस असंवैधानिक कृत्य से मुक्त करायेंगे; किंतु हुआ इसका उलट. न्याय पंचायतों का गठन न किए जाने की जवाबदेही को लेकर अदालत द्वारा सवाल किए जाने पर उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव (पंचायतीराज) ने अपनी गर्दन बचाने के लिए पूरी न्याय पंचायत व्यवस्था को ही अयोग्य बताने वाला शपथपत्र पेश कर दिया. 29 मई, 2017 को पेश शपथपत्र में कहा गया कि न्याय पंचायतें अप्रसांगिक हो चुकी हैं. वर्तमान परिदृश्य में इनका गठन संभव नहीं है. न्याय पंचायतों की सरपंच अव्यावहारिक हो चुके हैं और वे ग्राम पंचायत के काम में बाधक हैं. दुर्भाग्य की बात है कि उक्त राय को उचित मानते हुए 27 जून को उत्तर प्रदेश की केबिनेट ने न्याय पंचायतों के अस्तित्व को खत्म करने का प्रस्ताव पास कर दिया. हालांकि विधान परिषद द्वारा प्रस्ताव मंजूर न किए जाने के कारण प्रस्ताव अभी समिति के पास अटका पड़ा है, लेकिन उक्त प्रसंग दर्शाता है कि पंचायत स्तर पर जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों को लेकर उत्तर प्रदेश के शासन-प्रशासन का नजरिया क्या है. यहां उठाने लायक प्रश्न यह है कि जब प्रदेश में गत् 45 साल से न्याय पंचायतों का गठन ही नहीं हुआ, तो पंचायतीराज के प्रमुख सचिव महोदय किस आधार पर उत्तर प्रदेश में न्याय पंचायतों की अव्यावहारिकता तथा उसके सरपंच व अन्य सदस्यों की क्षमता तथा व्यवहार के बारे में निष्कर्ष निकाल लिया गया ? 

इस बहस की राष्ट्रीय प्रसांगिकता

उत्तर प्रदेश के इस प्रसंग पर बहस जहां इस नज़रिये से महत्वपूर्ण है कि समाज के अपने परम्परागत संस्थानों को नष्ट करने का मतलब होता है, समाज को परावलम्बी बनाने की प्रक्रिया को मज़बूत करना. जिसका परिणाम न लोकतंत्र की मज़बूती की दृष्टि से अच्छा माना गया है और न ही समाज के सुख, सौहार्द और समृद्धि की दृष्टि से. भूलने की बात नहीं कि समाज के परम्परागत संस्थानों को नष्ट करने का प्रयास करने के लिए इंदिरा गांधी की भी भर्त्सना की गई थी. इस प्रसंग पर चर्चा की दूसरा प्रासंगिकता, भारत में अदालतों पर मुक़दमों का बढ़ते बोझ तथा न्याय पाने की खर्चीली प्रक्रिया व लंबी होती अवधि संबंधी समस्या के संदर्भ में है; न्याय पंचायतें जिसका एक समाधान हो सकती हैं. 

गौर करने की बात है कि लंबित मुक़दमें की संख्या और इसके दोषी कारणों को लेकर आये दिन बहस होती है. जजों की कम संख्या, न्यायालयों में पेशकार और वकीलों की मिलीभगत तथा प्रशासन की ढिलाई जैसे कई कारण इसके लिए ज़िम्मेदार बताये जाते हैं. स्वयं प्रधानमंत्री श्री मोदी इसे लेकर चिंता जताते रहे हैं. समाधान के तौर पर स्वयं श्री मोदी ने गुजरात मुख्यमंत्री के तौर पर गांव को मुक़दमामुक्त और सद्भावपूर्ण बनाने की दृष्टि से समरस गांव योजना के तहत् 'पावन गांव'और 'तीर्थ गांव' का आह्वान तथा सम्मान किया था. तथ्य यह भी है कि ऊपर की अदालतों पर बढ़ते बोझ को कम करने के लिए भारतीय न्याय आयोग ने अपनी 114वीं रिपोर्ट में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की सिफारिश की थी. सिफारिश को लेकर विशेषज्ञों के एक वर्ग की यह राय थी कि ग्राम न्यायालयों के रूप में एक और खर्चीले ढांचे को अस्तित्व में लाने से बेहतर है कि न्याय पंचायतों के ढांचे को सभी राज्यों में अस्तित्व में लाने तथा मौजूदा न्याय पंचायतों को और अधिक सक्षम बनाने की दिशा में पहल हो. न्याय पंचायतों के वर्तमान अनुभव न सिर्फ विशेषज्ञों की राय की पैरवी करते नजर आते हैं,बल्कि न्याय पंचायतों के गठन तथा सशक्तिकरण के लिए भी प्रेरित भी करते हैं. 

सुखद अनुभव

आंकडे़ बताते हैं कि जिन राज्यों में न्याय पंचायत व्यवस्था सक्रिय रूप से अस्तित्व में है, कुल लंबित मुक़दमों की संख्या में उनका हिस्सेदारी प्रतिशत अन्य राज्यों की तुलना काफी कम है. उदाहरण के तौर पर भारत में लंबित मुक़दमों की कुल संख्या में बिहार की हिस्सेदारी मात्र छह प्रतिशत है. इसकी वजह यह है कि बिहार में न्याय पंचायत व्यवस्था काफी सक्रिय हैं. बिहार में न्याय पंचायतों को ’ग्राम कचहरी’ नाम दिया गया है. ग्राम कचहरियों में आने वाले 90 प्रतिशत विवाद आपसी समझौतों के जरिए हल होने का औसत है. शेष 10 प्रतिशत में आर्थिक दण्ड का फैसला सामने आया है. इसमें से भी मात्र दो प्रतिशत विवाद ऐसे होते हैं, जिन्हे वादी-प्रतिवादी ऊपर की अदालतों में ले जाते हैं. सक्रिय न्याय पंचायती व्यवस्था वाला दूसरा राज्य - हिमाचल प्रदेश है. ग्रामीण एवम् औद्योगिक विकास शोध केन्द्र की अध्ययन रिपोर्ट - 2011 खुलासा करती है कि हिमाचल प्रदेश की न्याय पंचायतों में आये विवाद सौ फीसदी न्याय पंचायत स्तर पर ही हल हुए. न्याय पंचायतों के विवाद निपटारे की गति देखिए. अध्ययन कहता है कि 16 प्रतिशत विवादों का निपटारा तत्काल हुआ; 32 प्रतिशत का दो से तीन दिन में और 29 प्रतिशत का निपटारा एक सप्ताह से 15 दिन में हो गया. इस प्रकार मात्र 24 प्रतिशत विवाद ही ऐसे पाये गये, जिनका निपटारा करने में न्याय पंचायतों को 15 दिन से अधिक लगे. 

उक्त अध्ययनों से समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश पंचायतीराज अधिनियम में न्याय पंचायतों का प्रावधान होने के बावजूद भारत में कुल लंबित मुक़दमों में यदि अकेले उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 24 प्रतिशत है, तो इसकी सबसे खास वजह उ. प्ऱ में न्याय पंचायतों के गठन का न किया जाना है. ये अध्ययन इस तथ्य को भी तसदीक करते हैं कि न्याय पंचायत ही वह व्यवस्था है, जो अदालतों के सिर पर सवार मुक़दमों का बोझ कम सकती है. भारत की ज्यादातर आबादी ग्रामीण है. फैसला हासिल करने में लगने वाली लंबी अवधि तथा मुक़दमों के खर्चे गांव की जेब ढीली करने और सद्भाव बिगाड़ने वाले सिद्व हो रहे हैं. इसके विपरीत न्यायपीठ तक याची की आसान पहुंच, शून्य खर्च, त्वरित न्याय, सद्भाव बिगाड़े बगैर न्याय तथा बिना वकील न्याय की खूबी के कारण न्याय पंचायतें गांव के लिए ज्यादा ज़रूरी और उपयोगी न्याय व्यवस्था साबित हो सकती हंै. आज न्याय पंचायतों के पास कुछ खास धाराओं के तहत् सिविल और क्रिमिनल... दोनो तरह विवादों पर फैसला सुनाने का हक़ है. अलग-अलग राज्य में न्याय पंचायत के दायरे में शामिल धाराओं की संख्या अलग-अलग है, जिस पर विचार कर और अधिक सार्थक बनाया जा सकता है.

परम्परा व संविधान ने स्वीकारा महत्व

सच पूछें तो भारत के पंचायतीराज संस्थान आज भले ही केन्द्र व राज्य सरकारों की योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी बनकर रह गई हों, लेकिन भारत की पंचायतों का मूल कार्य असल में गांव के सौहार्द, अनुशासन तथा नैतिकता को कायम रखना ही था. भारत का इतिहास गवाह है कि परम्परागत पंचायतें का कोई औपचारिक इकाई नहीं थी. असल में वे एक जीवन शैली थीं. संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार की प्रक्रिया इस जीवनशैली के पांच संचालक सूत्र थे. परम्परागत पंचायतों के शुरुआती रूप की बात करें, तो गांव में कोई विवाद होने पर ही पंचायत बुलाई जाती थी. पंचों का फैसला, परमेश्वर का फैसला माना जाता था. कई प्रसंग गवाह हैं कि राजा जैसे शक्तिशाली पद पर बैठे व्यक्ति को भी पंचायत के फैसले मानने पड़ते थे. 73वें संविधान संशोधन ने पंचायतीराज संस्थानों को लेकर भले ही त्रिस्तरीय व्यवस्था दी हो, लेकिन संविधान की धारा 40 ने एक अलग प्रावधान कर राज्यों को मौका दिया कि वे चाहें, तो न्याय पंचायतों का औपचारिक गठन कर सकते हैं. धारा 39 ए ने इसे और स्पष्ट किया. 'सकते हैं' - हालांकि इन दो शब्दों के कारण न्याय पंचायतों के गठन का मामला राज्यों के विवेक पर छोड़ने की एक भारी भूल हो गई. परिणाम यह हुआ कि भारत के आठ राज्यों ने तो अपने राज्य पंचायतीराज अधिनियम में न्याय पंचायतों का प्रावधान किया, किंतु शेष भाग निकले. न्याय पंचायतों की वर्तमान सफलता को देखते हुए क्या यह उचित नहीं होगा कि या तो भारत के सभी राज्य अपने पंचायतीराज अधिनियमों में न्याय पंचायतों का प्रावधान करें अथवा संसद उक्त दो शब्दों की गलती सुधारें.

 

'तीसरी सरकार अभियान' ने पिछले दिनों इस विचार को आगे बढ़ाने की पहल की है. अभियान के संचालक डाॅ. चन्द्रशेखर प्राण ग्रामसभा को गांव की संसद, पंचायत को मंत्रिमण्डल और न्याय पंचायत को गांव की न्यायपालिका कहते है. वह सवाल करते हैं कि तीसरे स्तर की इस सरकार को इसकी न्यायपालिका से वंचित क्यों रखा जा रहा है ? ठीक भी है कि यदि भारतीय संविधान ने पंचायत को 'सेल्फ गवर्नमेंट' यानी 'अपनी सरकार' का दर्जा दिया है, तो पंचायत के पास अपनी न्यायपालिका और कार्यपालिका भी होनी चाहिए. राज्य सरकार चलाने वाले भी विचारें, ’सेल्फ गवर्नमेंट’ चलाने वाले भी और अपनी रिपोर्ट पेश करते  वक्त प्रवर समिति भी

 

 

© 2023 Copyright: palpalindia.com
CHHATTISGARH OFFICE
Executive Editor: Mr. Anoop Pandey
LIG BL 3/601 Imperial Heights
Kabir Nagar
Raipur-492006 (CG), India
Mobile – 9111107160
Email: [email protected]
MADHYA PRADESH OFFICE
News Editor: Ajay Srivastava & Pradeep Mishra
Registered Office:
17/23 Datt Duplex , Tilhari
Jabalpur-482021, MP India
Editorial Office:
Vaishali Computech 43, Kingsway First Floor
Main Road, Sadar, Cant Jabalpur-482001
Tel: 0761-2974001-2974002
Email: [email protected]