यात्रा, कांग्रेस और जन-जोड़ के चुम्बक

मैं कोई राजनीति विश्लेषक अथवा विशेषज्ञ नहीं हूं. किंतु चौक-चौबारों पर चौकड़ी जमाये बैठे लोगों और कांग्रेस कार्यकर्ताओं से बात करने पर जो राय सामने आई हैं, उन्हे आधार बनाकर भारत जोड़ो और कांग्रेस तोड़ो के इस दौर में जन-जोड़ के जनापेक्षित चुम्बकों को विस्तार से आपके सामने रख रहा हूं. कृपया गौर फरमायें.

गठबंधन धर्म

जयराम रमेश, आजकल कांग्रेस के संवाद एवम् मीडिया विभाग के प्रमुख हैं. विपक्षी दलों के एलायंस यानी गठबंधन को लेकर उन्होने असंतोष जताया; कहा कि कांग्रेस से गठबंधन करने वालों ने कांग्रेस से लिया ही लिया है; कांग्रेस को मिला कुछ नहीं. कांग्रेस को मिला नहीं या कांग्रेस ले नहीं पाई ? कांग्रेस सोचे.

निस्संदेह, कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता फ्रंट का बनना असंभव है. किन्तु कांग्रेस प्रवक्ताओं द्वारा दूसरी विपक्षी पार्टियों को डांट बताकर भी विपक्षी एकता फ्रंट बनाना असंभव है. यहां यह बात नहीं लागू होती कि कुआं प्यासे के पास नहीं आयेगा, प्यासे को कुएं के पास जाना पडे़गा. गठबंधन, वर्तमान चुनावी परिदृश्य की विवशता है. ऐसे में यदि जुड़ना और जोड़ना है तो वैचारिक मतभेद और राज्य स्तर पर तमाम राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता के बावजूद अन्य राजनैतिक दलों के नेताओं से ही नहीं, प्रवक्ताओं व कार्यकर्ताओं से भी सतत् व्यैक्तिक संवाद तथा सम्मानजनक व्यवहार में लेन-देन का संतुलन तो सीखना ही होगा. अपने से कमज़ोर को स्नेह से चिपटा लेना, बराबर वाले को गले लगा लेना और बडे़ के चरणों में झुककर अंगूठा छू लेना; दूसरे से पा लेने का यही विज्ञान है और हृदय की विशालता भी यही थी.आज़ादी वाली कांग्रेस याद कीजिए. मूल कांग्रेस ऐसी ही विशालहृदया थी; वामपंथी, दक्षिणपंथी, समाजवादी...भिन्न नई-पुरानी विचारधाराओं को अपने में समाहित कर लेने वाली एक बहुरंगी बागीची. यही कांग्रेस की भी शक्ति थी और भारत की भी. इसी पर लौटने से भारत भी जुड़ेगा, कांग्रेस भी और विपक्ष भी.

लेन-देन में संतुलन ज़रूरी

आखिरकार, आपसी लेन-देन का ही तो दूसरा नाम रिश्ता है. गुरु, शिष्य को ज्ञान देता है. शिष्य, गुरु को यथासंभव सम्मान व सेवा देता है. मां, संतान का पालन-पोषण करती है; लाड-प्यार देती है. आवश्यकता होने पर संतान, यदि अपनी क्षमतानुसार यही लाड-प्यार और पालन-पोषण मां को न लौटाए तो उसका व्यवहार अनैतिक माना जाता है. लेन-देन धन का, भावनाओं का, विचारों का, समझ का, दायित्वों का, ज़रूरत पर मदद का;  संबंधों में नैतिकता का मतलब भी तो यही है. कह सकते हैं कि लेन-देन एक नैतिक पहलू है. लेनदेन में यही संतुलन...दो परिवारों के बीच, लोकतंत्र में जनता और प्रतिनिधि के बीच, पार्टी में कार्यकर्ता और नेता के बीच, ... यहाँ तक की पर्यावरण और हमारे बीच रिश्ते की नैतिक बुनियाद होती है. गठबंधन इसी पर टिकता है; वरना तो वह ठगबंधन ही है. गठबंधन यानी एक-दूसरे के पल्लू से कसकर बंधा बंधन; जो अपने आप नहीं खुलता. विवाहोत्सव याद कीजिए. खोलने के लिए नेग देना पड़ता है. विज्ञापन की भाषा में पक्का फेविकोल जोड़. आपसी लेनदेन में संतुलन न साध पाने की बेईमानी अथवा बेबसी आई नहीं कि रिश्ता गड़बड़ाया. हम धरती से जितना और जैसा पानी लेते हैं, कम से कम उतना और वैसा तो लौटाएं. धरती से पानी के लेन-देन में असंतुलन का ही तो नतीजा है कि खासकर, हमारे नगर पानी के मामले में कंगाली और परजीवी बनने को बेबस हैं.

कांग्रेस को गौर करना होना कि कांग्रेस छोड़कर जाने के जारी सिलसिले का एक कारण कहीं लेन-देन में असंतुलन तो नहीं ? कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटता जा रहा है. कहीं इसका एक कारण यह तो नहीं कि कांग्रेस ने यह मान लिया है कि उसके पास अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं व वोटरों को देने के लिए फिलहाल कुछ खास नहीं है; न उम्मीद, न मदद, न सपना, न विचार और न ही कुछ और ??
क्या वाकई ? क्या वाकई कुछ नहीं है ?? कांग्रेस तोड़ो मुहिम की बाड़बंदी सुनिश्चित करनी है तो भी, भारत जोड़ना है तो भी और चुनाव जीतना है तो भी यह सोचना ही होगा. भारत जोड़ो यात्रा, निश्चित ही कई नए को कांग्रेस से जोड़ेगी. किन्तु यदि कांग्रेस को आगे के चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना है तो चुनावी जीत के नए औज़ारों को नियोजित और नियंत्रित करना सीखना होगा. पहले से जुडे़ कांग्रेसी न टूटे, इसके लिए भी प्रयास कम ज़रूरी नहीं. इसके लिए कांग्रेस संगठनकर्ताओं को खुद की आंतरिक कमज़ोरियों से उबरना ही होगा; वरना् वे कांग्रेस-मुक्त भारत के लिए सिर्फ मोदी-अमित शाह की कारगुजारियों को ज़िम्मेदार ठहराकर अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग नहीं सकते. आइए, जुड़ाव के चुम्बकों पर गौर करें.

वैचारिक जोड़ की ज़रूरत

ठीक है, नेता-कार्यकर्ताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं होती ही हैं. आखिरकार यह महत्वाकांक्षा ही तो है कि जो एक सबसे अंतिम कार्यकर्ता को शीर्ष तक पहुुंचने का बल, नीयत और जुनून देती है; वरना् आजकल सिर्फ मेहनत और उसमें समर्पण भाव होने के कारण कौन किसी आम कार्यकर्ता को शिखर पर लाकर बिठा रहा है. कह सकते हैं कि इस कारण भी कई टूटते अथवा तोड़े जा सकते हैं. किन्तु इसका एक मतलब, कांग्रेस के नेता-कार्यकर्ताओं में वैचारिक और नैतिक जुड़ाव के फेविकोल का फ़िलहाल कमजोर होना भी है.
यह कटु सत्य है कि वैचारिक और नैतिक जोड़ ही फेविकोल जोड़ है, बाकी तो अस्थाई... कच्चा जोड़ है; स्वार्थपूर्ति तक. वैचारिक जुड़ाव के लिए साहित्य, सोशल मीडिया, आयोजनों व अपने व्यवहार के ज़रिए और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत होती है; करें. किन्तु आजकल जिस मानस के साथ कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक दल के पदाधिकारी बनता है या कहें कि जिस मानस वालों को राजनीतिक दल अपने पदाधिकारी बना रहे हैं; इस समीकरण का कटु सत्य यही है कांग्रेस को सोचना होगा कि यदि नेता अपने कार्यकर्ता व वोटर की निजी परेशानी में कुछ मदद ही नहीं कर पायेगा, तो नेता उस पार्टी में क्यों नहीं चला जाएगा, जो सत्ता में है; खासकर, जब कोई वैचारिक-नैतिक जुड़ाव हो ही नहीं ? कांग्रेस, बसपा या सपा में कितने पदाधिकारी अथवा सांसद-विधायक हैं, जिन्होने उनके रास्ते चलना तो दूर, गांधी, अम्बेडकर अथवा लोहिया को ठीक से पढ़ा भी है ? पैसा लेकर पद और टिकट बांटने का चलन हो तो वैचारिक-नैतिक जुड़ाव की उम्मीद ही क्यों करें ? ऐसे में रिश्ता सिर्फ निजी स्वार्थ का बचता है.

निजी मदद का भरोसा

ऐसे में ज़रूरी है कि बूथ लेवल के कार्यकर्ता व वोटर को उसकी परेशानी में मदद देने की व्यवस्था बनाई जाए. निजी बिजली-पानी कनेक्शन बिलों में छूट, अस्पताल में मुफ्त दवा-जांच तथा सिविल डिफेन्स में तनख्वाह के साथ भर्ती का आम आदमी पार्टी मॉडल यही तो कर रहा है.

कांग्रेस को विचार करना चाहिए कि यदि वह केन्द्र अथवा ज्यादातर राज्यों मेें सरकार में नहीं है, तो क्या करें ? क्या इंतज़ार करें ? नहीं, जब आप केन्द्र अथवा राज्य सरकार में न हों तो कार्यकर्ता तथा वोटर को देने योग्य बनने की सबसे बड़ी संभावना तीसरी सरकार यानी पंचायती व नगर सरकारों में हमेशा मौजूद रहती है. हालांकि, भारतीय लोकतंत्र के हित में तो यही है कि तीसरी सरकारों को दलमुक्त ही रहने दिया जाए; किन्तु क्या यह सिर्फ कांग्रेस के तटस्थ रहने से होगा ? अतः स्थानीय चुनावों को संजीदगी से लेने से बूथ लेवल कार्यकर्ता व वोटर...दोनो की मदद संभव है. आखिरकार, सब योजनाएं और बड़े फण्ड तो तीसरी सरकारों के माध्यम से ही जनता तक पहुंचाये जाते हैं.  

इसे और खोलकर समझें कि आम ज़िन्दगी में असल दिक्कतें तो स्कूल, अस्पताल, थाना, कचहरी, ब्लॉक व तहसीलों से जुड़ी होती हैं. जिस पाटी का कार्यकर्ता इसमें जिसकी मदद करता है, वह वोटर उस कार्यकर्ता के साथ जुड़ जाता है. उस वोटर का किसी पार्टी से कोई वैचारिक जुड़ाव नहीं होता. वह वोटर, उस कार्यकर्ता विशेष से जुड़ाव के कारण उसकी पार्टी को वोट देता है. मैं कहता हूं कि पार्टी सत्ता में न हो, तो भी यदि पार्टी कार्यकर्ता सेवाभावी हो, तो वह मदद कर सकता है. आखिरकार, स्वयंसेवी संगठनों के लोग करते ही हैं. यह स्वभाव व रुचि की बात है. कांग्रेस में सेवादल और राजीव गांधी पंचायती राज संगठन की क्या भूमिका अथवा जिम्मेदारी होनी चाहिए ? इनमें कैसे लोग होने चाहिए ? इन पहलुओं पर कांग्रेस के फ्रंटल संगठन ही नहीं, सम्पूर्ण नेतृत्व को सही समय पर वैचारिक, नैतिक, सक्रिय तथा रणनीतिक हो जाना चाहिए.

नैतिक जुड़ाव

अपने साथी नेता व कार्यकर्ताओं से नैतिक जुड़ाव के लिए पार्टी के भीतर वैचारिक-नैतिक माहौल बनाने की ज़रूरत होती है. यह माहौल पार्टी के भीतर चुनाव से लेकर कार्यकर्ता को मेहनत करने पर अवसर देने में ईमानदारी से ही पैदा होगा; पैराशूट उम्मीदवारों से नहीं. एक अच्छे नेता की याददाश्त का अच्छा होना ज़रूरी है. ज़रूरी है कि वह अपने सम्पर्क में आ चुके को नाम व मिलने के पूर्व संदर्भ के साथ याद रखे. संकट में साथ खड़ा हो. यदि कुछ न कर सके; तो कम से कम हमदर्दी तो जताये. प्रमोद तिवारी से पूछना चाहिए कि एक ही दल में रहकर एक ही क्षेत्र और एक ही चुनाव निशान से नौ बार लगातार विधायक बनने के उनके गिनीज वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड के पीछे का राज क्या है.

इसके लिए आपस में सतत् संवाद, सुख-दुख में रिश्ते-नाते बनाने पर काम करना तो ज़रूरी है ही. नेतृत्व के प्रति आस्था भी एक जोड़क तत्व होता है. यह आस्था, नेतृत्व को अपने से बेहतर अथवा करिश्माई मानने, मिलनसार व्यवहार तथा सतत् सानिध्य से संभव होता है. आपसी संवाद का स्वस्थ होना; मददगार होता ही है. मीडिया, पार्टी के भीतर-बाहर दूसरी पार्टियों से तथा अन्य वर्गों से केन्द्रीय से लेकर स्थानीय स्तर तक सतत् सक्रिय संवाद व जुड़ाव का स्वभाव बनाने की ज़रूरत है. इस बीच कांग्रेस इसमें चूकी है.

वयोवृद्ध कांग्रेसी कर्ण सिंह जी ने कहा  - लगता है कि कांग्रेस को अब मेरी जरूरत नहीं. कभी ऐसा ही कथन सैम पित्रोदा ने बड़ी पीड़ा के साथ दूरदर्शन के ’परसेप्शन’ कार्यक्रम हेतु मेरे द्वारा लिए इंटरव्यू में कहा था. सैम, उस वक्त सिक्का डालकर फोन करने वाले टेलीफोन बूथ के ज़रिए फोन सुविधा को दूसरे देशों में भी सार्वजनिक पहुंच तक ले जाने पर जुटे हुए थे. सैम को लगा था कि नरसिम्हा राव नेतृत्व वाली सरकार द्वारा टेलीकॉम और आईटी के क्षेत्र में उनके अनुभवों को उपेक्षा कर रही है. सैम ने कहा - लगता है कि अब भारत को मेरी ज़रूरत नहीं है. राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में सिर्फ एक रुपया प्रति वर्ष की टोकन मनी लेकर सी-डॉट की स्थापना व सलाह सेवा करने वाले सैम का दर्द स्वाभाविक था. बाद में कांग्रेस और सरकार, दोनो ने सैम को जोड़ा ही न. बयान के लिए वैसी लताड़ तो नहीं मारी, जैसी आज गुलाम नबी आज़ाद को मारी जा रही है.

यह भावना और सम्मान के लेन-देन में संतुलन का विषय है. जिसके पास जो काबिलियत है; वह देना चाहता है और आप किन्ही व्यक्तिगत कारणों से लेना नहीं चाहते. किसी कारणवश आज किसी काम न बचे साथी को प्रेम के दो बोल देने से कुछ घटता नहीं. कांग्रेस संजीदा हो.
 'यात्रा में कोई चले न चले, मैं अकेला चलूंगा' और 'जो छोड़ना चाहे, उसे मेरी कार छोड़कर आएगी' - ऐसे बयानों से अपने पर भरोसे से ज्यादा, दंभध्वनि भी झलक सकती है. इनकी प्रतिध्वनि तोड़क भी हो सकती है. कांग्रेस को विचार करना चाहिए. पार्टी एक व्यक्ति नहीं होती; वह सार्वजनिक संगठन होती है. सार्वजनिक दायित्व से जुड़ने के बाद आपको संगठन को किसी निजी के अनुसार से चलाने की भूल नहीं करनी चाहिए; न विचार, न धारणा, न समय और न सम्पत्ति.

भारत जोड़ो : सिर्फ सपना नहीं, ठोस प्रस्ताव की ज़रूरत

लेन-देन के संतुलन को लेकर भारत जोड़ो यात्रियों को भी रणनीतिक होने की ज़रूरत है. कोई यात्रा से क्यों जुडे़ ? यात्री, क्या दे रहे हैं ? फेविकोल जोड़ कैसे होगा ? यात्री तो विपक्षी राजनीतिक दल के हैं अथवा नागरिक संगठनों के नुमाइंदे हैं. वे कह रहे हैं कि सत्ता पक्ष, और अधिक तानाशाह न हो जाए; इसके लिए ज़रूरी है कि प्रतिपक्ष और मतदाता भी मज़बूत हों. प्रतिनिधि और मतदाता एक-दूसरे को पुष्ट करने की भूमिका के लिए जुटें. देश की आत्मा पर संकट है. संकट में एकता ही विकल्प है; इसलिए जुड़ें.

कह सकते हैं कि यात्री एक उम्मीद दे रहे हैं. किस बात की उम्मीद ? वे सादगीपूर्ण यात्रा कर रहे हैं. नागरिक संगठनों का भारत जोड़ो यात्रा में साथ होते हुए भी कांग्रेस की रोटी न खाकर, अपनी रोटी और ठहराव का अपना इंतज़ाम किया है. तय भारत यात्रियों ने यात्रा के दौरान नशामुक्त होने का संकल्प लिया है. यात्री, यात्रा स्थल तक पहुंचने के इंतज़ाम खुद अपने संसाधनों से करेंगे. यात्री होटल में नहीं रुकेंगे. अपने रुकने और खाने का बोझा किसी अन्य पर नहीं डालेंगे. अपना इंतज़ाम खुद करेंगे. कंटेनर में रुकेंगे. सांझी रसोई साथ चलेगी. यात्रा के प्रतीक चिन्ह, प्रतीक गीत में कांग्रेस का कोई निशान नहीं होगा. कांग्रेस का ध्वज नहीं, बल्कि भारत का राष्ट्र ध्वज ही यात्रा का ध्वज होगा. वे बोलने से ज्यादा, सुन रहे हैं. ये सब उम्मीद जगाता है. उम्मीद जग सकती है कि ये सत्ता में आए तो भारत के जनमानस पर अपनी दलगत् विचारधारा थोपने के लिए दिमाग में सेंधमारी नहीं करेंगे; जनमानस की सुनेंगे.

यह सही है कि सरकार व भाजपा कार्यकर्ता जन विरोधी मसलों पर जितना अतिवाद पर उतरेंगे; यात्रा का जितना विरोध करेंगे; लोगों में यात्रा और कांग्रेस के प्रति उम्मीद और जगेगी. यात्रा के यात्रियों के बयान व व्यवहार दुश्मनों के साथ भी सद्भावपूर्ण रहे तो उम्मीद और प्रबल होगी. किन्तु फेविकोल जोड़ बनाने और इसे चुनावी जीत में बदलने के लिए क्या इतना पर्याप्त है ?

चुनावी सत्य

भारत जोड़ो यात्रा का चुनावी फायदा होगा या नहीं ? यह इस पर निर्भर करेगा कि सरकारों व विरोधी संगठनों द्वारा जो कुछ भी अनैतिक व जनविरोधी किया गया है; कांग्रेस, यात्रा से प्राप्त भिन्न-भिन्न ऊर्जाओं को उसके खिलाफ मौजूद आवेग को कितने बडे़ वेग में बदल पाती है ? क्या हासिल ऊर्जा, वोटरों में यह भरोसा जगा पाएगी कि राज्य चुनावों में कांग्रेस आई तो विकास तो करेगी ही, कम से कम संप्रदायों में झगडे़ तो नहीं ही कराएगी ? वोटरों के मन में चुनाव से पहले ही एक धुंधला सही, किन्तु क्या हासिल ऊर्जा यह विचार अंकुरित कर पाएगी कि इस बार यूपीए गठबंधन सरकार में आ सकता है ?

मेरा मानना है कि ऐसे जोड़क व फलदायी नतीजे सिर्फ यात्रा से नहीं पैदा होंगे. यात्रा प्रबंधकों को जनता के सामने ऐसे ठोस प्रस्ताव दस्तावेज़ और उन्हे क्रियान्वित करने की योजना व माध्यम पेश करने होंगे, जो भारत में बढ़ रही आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक अनाचार को खत्म करने तथा खाइयों को पाटने के व्यावहारिक व विश्वसनीय समाधान हों. भारत जोड़ो यात्रा - ऐसे प्रस्तावों को पेश करने, रायशुमारी करने तथा उन्हे लागू कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाने का एक अच्छा माध्यम बन सकती है. भारत जोड़ने निकले हैं तो जोड़ के इन चुम्बकों को याद रखना ज़रूरी है.

एक सुअवसर

कुल मिलाकर कहना चाहिए कि यह यात्रा और इससे प्रसारित व प्राप्त ऊर्जा, कांग्रेस के लिए एक सुअवसर है कि वह अपने भीतर-बाहर जो कुछ बदलना चाहती है, बदल डाले. जैसी अंगड़ाई लेना चाहती है, ले सकती है. जैसी नई कांग्रेस बनाना चाहे, बना सकती है. वह नए पिण्ड में पुरानी आत्मा वाली कांग्रेस बनना चाहती है अथवा पुराने पिण्ड में नई आत्मा वाली कांग्रेस; यह कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता तय करने का अवसर भी यही है.

© 2023 Copyright: palpalindia.com
CHHATTISGARH OFFICE
Executive Editor: Mr. Anoop Pandey
LIG BL 3/601 Imperial Heights
Kabir Nagar
Raipur-492006 (CG), India
Mobile – 9111107160
Email: [email protected]
MADHYA PRADESH OFFICE
News Editor: Ajay Srivastava & Pradeep Mishra
Registered Office:
17/23 Datt Duplex , Tilhari
Jabalpur-482021, MP India
Editorial Office:
Vaishali Computech 43, Kingsway First Floor
Main Road, Sadar, Cant Jabalpur-482001
Tel: 0761-2974001-2974002
Email: [email protected]