क्यों नहीं रुक रही भ्रूण हत्या और लिंगभेद?

क़ानूनी तौर पर अभी लिंग परीक्षण, एक प्रतिबंधित कर्म है। ''इसकी आज़ादी ही नहीं, बल्कि अनिवार्यता होनी चाहिए।'' - श्रीमती मेनका गांधी ने बतौर महिला एवम् बाल विकास मंत्री कभी यह बयान देकर, भ्रूण हत्या रोक के उपायों को लेकर एक नई बहस छेङ दी थी। उनका तर्क था कि अनिवार्यता के कारण, हर जन्मना पर कानून की प्रशासन की नज़र रहेगी। उनका यह तर्क सही हो सकता है, किंतु भ्रष्टाचार के वर्तमान आलम के मद्देनज़र क्या यह गारंटी देना संभव है कि प्रशासन की नज़र इस अनिवार्यता के कारण कमाई पर नहीं रहेगी ? प्रश्न यह भी है कि क्या क़ानून बनाकर, भ्रूण हत्या या लिंग भेद को रोका जा सकता है ? क्या लिंग परीक्षण को प्रतिबंधित कर यह संभव हुआ है ? आइये, जानें कि भ्रूण हत्या और इस पर रोक के प्रयासों की हक़ीकत क्या है ?

कानून के बावजूद लिंगानुपात में घटती बेटियां : एक ओर बेटे के सानिध्य, संपर्क और संबल से वंचित होते बूढे़ मां-बाप के अश्रुपूर्ण अनुभव और भारतीय आंकङे, मातृत्व और पितृत्व के लिए खुद में एक नई चुनौती बनकर उभर रहे हैं। सभी देख रहे हैं कि बेटियां दूर हों, तो भी मां-बाप के कष्ट की खबर मिलते ही दौङी चली आती हैं, बिना कोई नफे-नुकसान का गणित लगाये; बावजूद इसके भारत ही नहीं, दुनिया में बेटियां घट रही हैं। काली बनकर दुष्टों का संहार करने वाली, अब बेटी बनकर पिता के गुस्से का शिकार बन रही है। कानूनी प्रतिबंध के बावजूद, वे कन्या भ्रूण हत्या पर आमादा हैं; नतीजे में  दुनिया के नक्शे में बेटियों की संख्या का घटना शुरु हो गया है। दुनिया में 15 वर्ष उम्र तक के 102 बेटों पर 100 बेटियां हैं। कानून के बावजूद, भारत में भ्रूण हत्या का क्रूर कर्म ज्यादा तेजी पर है। यहां छह वर्ष की उम्र तक का लिंगानुपात, वर्ष 2001 में जहां 1000 बेटों पर 927 बेटियां था, वह वर्ष 2011 में घटकर 919 हो गया है। लिंगानुपात में गिरावट का यह क्रम वर्ष 1961 से 2011 तक लगातार जारी है।

लिंगभेद जारी : लिंगभेद की मानसिकता यह है कि 14 वर्षीय मलाला युसुफजई को महज् इसलिए गोली मार दी गई, क्योंकि वह स्कूल जा रही थी और दूसरी लङकियों को भी स्कूल जाने के लिए तैयार करने की कोशिश कर रही थी। दुनिया के कई देशों में ड्राइविंग लाइसेंस देने जैसे साधारण क्षमता कार्यों के मामले में भी लिंगभेद है। लिंगभेद का एक उदाहरण, पोषण संबंधी एक सर्वेक्षण का निष्कर्ष भी है; तद्नुसार, भारत में बालकों की तुलना में, बालिकाओं को भोजन में दूध-फल जैसी पौष्टिक खाद्य सामग्री कम दी जाती है। औसत परिवारों की आदत यह है कि बेटों की जरूरत की पूर्ति के बाद ही बेटियों का नंबर माना जाता है। 

भ्रम और सत्य

बहस का प्रश्न यह है कि यदि सिर्फ कानून से समस्या का निदान संभव नहीं है, तो हम क्या करें ? भारत में साक्षरों की संख्या बढ़ायें, दहेज के दानव का कद घटायें, अवसर बढ़ाने के लिए महिला आरक्षण बढ़ायें, विभेद और बेटी हिंसा रोकने के लिए नये कानून बनायें, सजा बढ़ायें या कुछ और करें ? यदि इन कदमों से बेटा-बेटी अनुपात का संतुलन सध सके, बेटी हिंसा घट सके, हमारी बेटियां सशक्त हो सकें, तो हम निश्चित तौर पर ये करें। किंतु आंकङे कुछ और कह रहे हैं और हम कुछ और। यह हमारे स्वप्न का मार्ग हो सकता है, किन्तु सत्य इससे भिन्न है। सत्य यह है कि साक्षरता और दहेज का लिंगानुपात से कोई लेना-देना नहीं है। आंकङे देखिए:

साक्षरता और लिंगानुपात : बिहार, भारत का न्यनूतम साक्षर राज्य है। तर्क के आधार पर तो प्रति बेटा, बेटियों की न्यूनतम संख्या वाला राज्य बिहार को होना चाहिए, जबकि देश में न्यूनतम लिंगानुपात वाला राज्य हरियाणा है। हालांकि दिसम्बर, 2015 के आंकङों में हरियाणा में बेटा: बेटी लिंगानुपात 1000 : 903 बताया गया, किंतु 2011 की गणना के मुताबिक, हरियाणा में बेटी: बेटा लिंगानुपात 1000: 835 था और बिहार में 1000: 935। बिहार का यह लिंगानुपात, उससे अधिक साक्षर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, लक्षद्वीप, महाराष्ट्र राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से भी ज्यादा है। दिल्ली की बेटा-बेटी.. दोनो वर्गों की साक्षरता, राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है, किंतु लिंगानुपात राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। 

2001 की तुलना में 2015 में देश के सभी राज्यों का साक्षरता प्रतिशत बढ़ा है, किंतु लिंगानुपात में बेटियों की संख्या वृद्धि दर सिर्फ केरल, मिजोरम, लक्षद्वीप, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, अरुणांचल प्रदेश, पंजाब, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, चंडीगढ़, दिल्ली, अंडमान-निकोबार में ही बढ़ी है। लक्षद्वीप ने सबसे ऊंची छलांग मारी। गौर कीजिए कि ये वे राज्य भी नहीं हैं, 2001-2011 के दौरान जिन सभी की अन्य राज्यों की तुलना मंे साक्षरता अधिक तेजी से बढ़ी हो। एक और विरोधाभासी तथ्य यह है कि बिहार में ज्यों-ज्यों साक्षरता प्रतिशत बढ़ रहा है, त्यों-त्यों लिंगानुपात में बालिकाओं की संख्या घट रही है। वर्ष 2001 में दर्ज 942 की तुलना में 2011 में यह आंकङा 935 पाया गया। ये आंकङे शासकीय हैं; सत्य हैं; साबित करते हैं कि साक्षरता और लिंगानुपात, दो अलग-अलग घोङे के सवार हैं। 

दहेज और लिंगानुपात : बेटियों की भ्रूण हत्या का दूसरा मूल कारण, दहेज बताया जाता है। यदि यह सत्य होता, तो भी बिहार में लिंगानुपात, पंजाब-हरियाणा की तुलना में कम होना चाहिए था। आर्थिक आंकङे कहते हैं कि पंजाब-हरियाणा की तुलना में, बिहार के अभिभावक दहेज का वजन झेलने में आर्थिक रूप से कम सक्षम है। 

बहस के प्रश्न

अब प्रश्न है कि यदि भ्रूण हत्या का कारण अशिक्षा और दहेज नहीं, तो फिर क्या है ? बेटियों की सामाजिक सुरक्षा में आई कमी या नारी को प्रतिद्वन्दी समझ बैठने की नई पुरुष मानसिकता अथवा बेटियों के प्रति हमारे स्नेह में आई कमी ? कारण की जङ, कहीं किसी धर्म, जाति अथवा रूढ़ि में तो नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि औपचारिक साक्षरता में आगे निकल जाने की होङ में हम संवेदना, संबंध और संस्कार की दौङ में इतना पिछङ गये हैं कि मां-बाप ही नहीं, बेटियों को भी इस धरा पर बोझ मानने लगे हैं ?? सोचें। 

सच यह भी है अभियानों से भी बात बन नहीं रही। बेटियों की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए गुजरात में बेटी बचाओ, कन्या केलवणी, मिशन मंगलम्, नारी अदालत, चिरंजीव योजना जैसे यत्न हुए। स्वयं सुरक्षा के लिए गुजरात में 'पडकार' कार्यक्रम चले। अब तो देश के सभी राज्यों में ऐसे प्रयत्नों की शुरुआत हो चुकी है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' संकल्प को प्राथमिकता के तौर पर नीति तंत्र, क्रियान्वयन तंत्र और देशवासियों के सामने रख दिया है। तमन्ना है कि नतीजा निकले, किंतु क्या यह इतना सहज है ?

एक विचारणीय पक्ष

यूं बालिका सशक्तिकरण के लिहाज से कभी सोचना यह भी चाहिए कि भ्रूण हत्या गलत है, किंतु क्या लिंगानुपात में बालिकाओं की संख्या का एक सीमा तक घटना वाकई नुकसानदेह है ? अनुभव क्या हैं ? भारत के कई इलाकों में बेटी के लिए वर नहीं, बल्कि वर के लिए वधु ढूंढने की परम्परा है। ऐसी स्थिति में बेटी पक्ष पर दहेज का दबाव डालने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बालिका सशक्तिकरण के लिए यह अच्छा है कि बुरा ? सोचिए! शायद लिंगानुपात की इसी उलट-फेर से दहेज के दानव के दांत तोङने में मदद मिले.

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