मैं आज से करीब दस साल पहले कानपुर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुये श्री पी.सी.द्विवेदी जी मिलने गया. वे कानपुर विश्वविद्यालय की विधि सम्बन्धी समस्यायें देखते थे. उनके पिताजी पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रख्यात कांग्रेसी थे. पी.सी. द्विवेदी जी अपने पिताजी से बहुत प्रभावित थे लेकिन उनका झुकाव साम्यवाद की तरफ़ भी था. बाप-बेटे में वैचारिक मतभेद बने रहते थे. इतने कि पिताजी ने थाने में सूचित भी किया था- मेरे लड़के पर नजर रखी जाये वह कम्युनिष्ट हो रहा है.
द्विवेदीजी ने अपने कामकाज के दिनों के तमाम किस्से सुनाये. वे एक ईमानदार और निर्भीक कर्मचारी के रूप में विख्यात थे. कानून सम्बन्धी कामकाज देखते थे. कुछ मसलों में अपने अधिकारियों की राय के धुर उलट कानून सम्मत राय रखी और अधिकारियों की नाराजगी भी मोल ली लेकिन अंतत: सही साबित हुये. वे मानते रहे कि विश्वविद्यालय का हर वह कानून गलत है जो विद्यार्थियों की उन्नति में बाधक है.
ऐसे ही बातचीत के दौर में मैंने उनकी ईमानदारी की तारीफ़ की. इस पर उन्होंने कहा- Honesty is not a matter of pride.(ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है)
यह मेरे लिये एक नयी चीज थी. मैंने अभी तक तमाम ईमानदार लोगों देखा और उनमें से कई अपनी ईमानदारी का बैड खुद बजाते दिखे. लेकिन यह मैं किसी ईमानदार के मुंह से पहली बार सुन रहा था कि ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है.
बाद में उन्होंने इस पर अपने और विचार रखे और मैंने तब से आज तक इस पर बहुत सोचा. गैरसिलेसिलेबार ढंग से सोचा. बातें गड्ड-मड्ड होती रहीं लेकिन यह बात दिमाग से उतरी नहीं – ’ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है.’
अक्सर जब ईमानदारी की बात होती है तो तमाम लोगों के किस्से सुनने को मिलते हैं वे बहुत ईमानदार थे. एक पैसे की बेईमानी नहीं की. कोई गलत काम उनसे नहीं करवाया जा सकता. ऐसा कोई सिक्का नहीं बना जो उनको खरीद सके. आदि-इत्यादि.
अपने समाज में ईमानदारी की महिमा सदियों से बखानी जाती रही है. लेकिन समय के साथ कुछ ऐसा हुआ कि आज ईमानदार कहलाने का मतलब एक निरीह, कमजोर, दीन-हीन और महत्वहीन सा हो जाना है. ईमानदारी की आम छवि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी टाइप हो गयी है.
ऐसा कैसे हुआ यह सब बड़े विचार का विषय है. लेकिन यह सच है कि अक्सर लोग जब अपनी ईमानदारी की बात करते हैं तो इसे इस रूप में मानते हैं मानो ईमानदार हो लिये अब इसके बाद कुछ और होना उनके लिये न लाजिमी है न किसी मतलब काम का. हम तो ईमानदार हैं भैये अब इससे ज्यादा और कुछ हमसे न अपेक्षा करो.
ईमानदारी की आड़ में तमाम लोग अपने तमाम दूसरे नकारात्मक गुण छिपा लेते हैं. वे ईमानदार होने मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं. मैंने तमाम ईमानदार देखे हैं जो बेईमानी की कोई भी बात देखते ही दुर्वासा बन जाते हैं. कालान्तर में हर चीज में बेइमानी देखने की आदत बन जाती है उनमें और वे चिड़चिड़े , शंकालु और रूखे से होते जाते हैं. किसी भी प्रस्ताव में गलती देखते ही उसे अगले की बेइमानी समझते हुये घंटों ईमानदारी पर प्रवचन देते हैं.
यहीं ईमानदारी मार खा जाती है.
ईमानदार व्यक्ति की ईमेज एक चिड़चिड़े, खूसट और शक्की आदमी के रूप में बनती जाती है. ऐसा साजिशन भी होता है. लोग एक ईमानदार व्यक्ति को अव्यवहारिक, समय की मांग को न समझने वाला और ’बड़े हरिशचन्द्र बनते हैं’ साबित कर देते हैं.
मुझे लगता है कि आज की व्यवस्था में ईमानदार बने रहने के लिये सबसे जरूरी है कि ईमानदारी हमेशा नेपथ्य में रहे. केवल ईमानदारी का झण्डा फ़हराने से विजय श्री का वरन न होने का.
ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि आपको लोग ईमानदार व्यक्ति के रूप में जानने से पहले एक सक्षम , कार्यकुशल और ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने जिसके जैसे लोग कम हैं. तार्किकता, व्यवहार कुशलता, अभिव्यक्ति क्षमता, दुविधा रहित विचार ऐसी चीजें हैं जो जितनी मात्रा में होंगी वह आपकी ’कोर ईमानदार’ की रक्षा करेंगी.
ईमानदार अधिकारी /कर्मचारी के लिये जरूरी है कि वह इतना चकड़ हो कि बेईमानों के इरादे समय रहते भांप ले और उस पर बिना किसी हल्ले के अंकुश लगा सके. ऐसे अवसर कम से कम बनने दे जिसमें बेइमानी की गुंजाइश रहे.
मेरा यहां ईमानदार व्यक्ति को ठेस पहुंचाने की इरादा नहीं है. मैं सिर्फ़ कहना चाहता हूं आज ईमानदारी विरल होती जा रही है. जिसे देखो वो ईमानदारों का शिकार करने पर आमादा है. ईमानदार लोगों को अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये सक्षम , कार्यकुशल और किसी भी सिस्टम के अपरिहार्य बनना जरूरी है.
टाटा स्टील का विज्ञापन आता था. उसमें टाटा ग्रुप की तमाम अच्छाईयां बताते हुये अंत में कहा जाता है- हम स्टील भी बनाते हैं.
किसी भी सिस्टम में ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि लोग आपकी कार्यकुशलता, क्षमता, निर्णय की गुणता, दूरदर्शिता और और अन्य तमाम गुणों की बात यह कहते हुये कहें -और वो ईमानदार भी है.
अपने बेहतरीन जीवन मूल्यों की रक्षा करने के लिये आपको उसकी समर्थक सेना भी तैयार करनी पड़ती है. :)
आपको शायद यह मेरी खामख्याली लगती होगी कि ऐसा भी कहीं होता है? ये तो शेखचिल्ली जैसे बाते हैं. लेकिन मैं यही कहना चाहता हूं -हां यह होता है. मैं इसे होते देखता हूं . कुछ कम -ज्यादा होगा लेकिन जितना होते देखता हूं उससे यह तो लगता है कि यह मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं.
अफ़सोस इस बात का है कि जित्ती अच्छी तरह से इसे मुझे रखना चाहिये था उत्ती अच्छी तरह से रख नहीं पाया लेकिन जो है सो है. हम जित्ता रख पाये रख रहे हैं बाकी आपके लिये छोड़ दिया.