पत्रकारिता का गिरता स्तर और विदेशी फंडिंग का तानाबाना

 पत्रकारिता का स्तर लगातार गिरता हा रहा है. यह तो चिंता का विषय है ही,इसके अलावा सबसे बड़ा खतरा वह पत्रकार और मीडिया संस्थान हैं जो विदेशी फंडिंग से फलफूल रहे हैं. ऐसे लोग समाज और देश दोनों के लिए गंभीर खतरा हैं. विदेशी फंडिंग से  ही देश में दंगे कराए जाते हैं. दिल्ली के दंगे इसकी सबसे बड़ी मिसाल है.सरकार के   एनआरसी/सीएए जैसे फैसलों के खिलाफ लोगों को भड़काया जाता है. हाथरस में एक दलित युवती के साथ बलात्कार और उसकी मौत के खिलाफ लोगों को सुनियोजित तरीके से उकसाया जाता है. इसे राजनैतिक मुद्दा बनाया जाता है. नये कृषि कानून के खिलाफ जब कई किसान संगठनों ने आंदोलन किया था,उसमें भी विदेशी पैसे का खुलकर इस्तेमाल हुआ था. गत दिवस आतंकवाद के आरोप में लखनऊ की एक विशेष अदालत ने केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन की धन शोधन निरोधक अधिनियम के तहत दर्ज एक मामले में जमानत याचिका को नामंजूर किया तो पत्रकारिता के गिरते स्तर और और विदेशी फंडिंग को लेकर चर्चा गरम हो गई.अदालत ने पिछली 12 अक्टूबर को इस मामले को लेकर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. विशेष न्यायाधीश ‘प्रवर्तन निदेशालय’ संजय शंकर पांडे की अदालत ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़ा यह मामला गंभीर प्रकृति का है, इसलिए कप्पन को जमानत नहीं दी जा सकती. प्रवर्तन निदेशालय ‘ईडी’ ने कप्पन को धन शोधन निरोधक अधिनियम के तहत एक मामले में आरोपी बनाया था. कप्पन पर अवैध तरीके से विदेश से धन हासिल करने और उसे राष्ट्र हित के खिलाफ गतिविधियों में इस्तेमाल करने का आरोप है. कप्पन और तीन अन्य लोगों को छह अक्टूबर 2020 को हाथरस में एक युवती की कथित रूप से सामूहिक बलात्कार के बाद हुई हत्या के मामले की कवरेज के लिए जाते वक्त गिरफ्तार किया गया था.  पुलिस ने कप्पन पर पहले गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम ‘यूएपीए’ के तहत मामला दर्ज किया था. बाद में प्रवर्तन निदेशालय ने भी उनके खिलाफ धन शोधन नियंत्रण कानून के तहत मामला दर्ज किया. ईडी ने अदालत में कहा था कि कप्पन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ‘पीएफआई’ के सक्रिय सदस्य हैं और उनसे वर्ष 2015 में दिल्ली में दंगे भड़काने के लिए कहा गया था.  
    इससे पूर्व  सुप्रीम कोर्ट और प्रधानमंत्री भी चिंता जता चुके हैं.खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फेक न्यूज़ को लेकर चिंतित होना व्यर्थ नहीं है. उन्होंने फेक न्यूज़ से समाज और देश को होने वाले खतरों को लेकर आगाह किया है. यही बात तमाम बुद्धिजीवी और अदालतें भी समय-समय पर कहती रही है. करीब 2 महीने पहले देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने  भी  भड़काऊ और नफरती भाषण के मुद्दे पर टीवी चौनलों को कड़ी फटकार लगाई थी. कोर्ट ने कहा, चौनलों पर बहस बेलगाम हो गई है. नफरती टिप्पणियों पर रोक लगाने की जिम्मेदारी एंकर की है, पर ऐसा नहीं हो रहा है.  सुप्रीम अदालत ने पूछा, टीवी न्यूज से फैलने वाली नफरत पर केंद्र सरकार मूकदर्शक क्यों है? उस समय जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की पीठ ने कहा  था कि आजकल एंकर अपने मेहमानों को बोलने की अनुमति नहीं देते हैं. उन्हें म्यूट कर देते हैं और अभद्र भी हो जाते हैं. यह सब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हो रहा है. दुख की बात है कि कोई उन्हें जवाबदेह नहीं बना रहा है.सत्ताधीशों के मूकदर्शक बने रहने से विचलित देश की शीर्ष अदालत ने टीवी न्यूज चौनलों की नफरत फैलाने वाली बहसों पर अंकुश लगाने को शीघ्र कदम उठाने को कहा है. इन डिबेटों को हेट स्पीच फैलाने का जरिया मानते हुए वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए पीठ ने चौनलों समेत मीडिया की भूमिका पर  यह टिप्पणी की थी.इसी क्रम में  गत दिनों फेक न्यूज को बेहद खतरनाक बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इसके खिलाफ देश के लोगों को आगाह किया . गृह मंत्रियों के चिंतन शिविर को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि फेक न्यूज के कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं. एक फर्जी खबर राष्ट्रीय चिंता का विषय बनने की क्षमता रखती है. इस पर लगाम कसने के लिए देश को उन्नत तकनीक पर जोर देना होगा. निश्चित रूप से पत्रकारिता के गिरते स्तर से किसी भी जागरूक नागरिक या संस्था का चिंतित होना लाजमी है. दरअसल, सोशल मीडिया पर भी फेक न्यूज़ ऐसे फैलाई जाती है जैसे  किसी विश्वसनीय न्यूज़ चौनल  या समाचार पत्र से यह खबर आई हो.पत्रकारिता  की इस  दुर्दशा के लिए कई पक्ष जिम्मेदार है. आज की पत्रकारिता निष्पक्ष नहीं रहती. इसके लिए बड़े बड़े मीडिया घराने  तो जिम्मेदार हैं  ही पत्रकारिता में कुछ दलाल टाइप के लोग भी आ गए हैं जो कलम  और कैमरे की आड़ में दलाली और  ब्लैकमेलिंग करते हैं.  यही वजह है भारत  मे पत्रकारिता  का स्तर  पिछले ढाई सौ साल के सबसे निम्न स्तर पर आ गया है.          
     भारतवर्ष में पत्रकारिता का इतिहास करीब ढाई सौ वर्ष पुराना है,लेकिन नियमित पत्रकारिता की शुरूआत अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास से हुई थी. 1780 ई. में प्रकाशित हिके का “कलकत्ता गज़ट” कदाचित् पत्रकारिता की ओर पहला प्रयास था. हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी. 1873 ई. में भारतेन्दु ने “हरिश्चंद मैगजीन” की स्थापना की. एक वर्ष बाद यह पत्र “हरिश्चंद चंद्रिका” नाम से प्रसिद्ध हुआ. वैसे भारतेन्दु का “कविवचन सुधा” पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था.
    पिछले करीब सौ-डेढ़ वर्षो में पत्रकारिता कई बदलावों से गुज़री है,जो पत्रकारिता आजादी से पहले मिशन हुआ करती थी,वह आजादी के बाद लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बन गई. जिस तरह से विधायी, कार्यपालिका, न्यायपालिका अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाहन करती है, उसी तरह से पत्रकारिता भी देश और समाज की सेवा में लगी रहती है. पत्रकारिता का सबसे प्रमुख काम किसी भी सरकार और उसके कारिंदों के कामकाज एवं फैसलों की समीक्षा करके यह पता लगाना होता है कि इसका आमजन पर क्या प्रभाव पड़ेगा. पत्रकारिता संविधान द्वारा जनता को दिए गए अधिकारों की सुरक्षा करता है. आजादी के बाद इमरजेंसी के समय और अन्य कई मौकों पर यह बात सिद्ध भी हो चुकी है. पत्रकारिता में अभिव्यक्ति का मूल हमेशा मौजूद रहा है. पत्रकारिता ने अपने परिश्रम के साथ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में विकसित होते हुए वर्तमान की पहचान बनाई है, छपाई से लेकर न्यूज चैनल तक का सफर इसी कड़ी का हिस्सा है. पत्रकारिता हमारे समुदायों का बुनियादी ढांचा है, था और हमेशा रहेगा. इसमें कहीं कोई संदेह वाली बात नहीं है. 21 वीं सदी में जैसे-जैसे सोशल मीडिया का प्रचलन बढ़ रहा है, पत्रकारिता उसमें भी हिन्दी पत्रकारिता एक और नया रूप लेती जा रही है. विभिन्न काल खंड में पत्रकारिता के स्वरूप पर नजर डालें तो इसमें कई बदलाव नजर आते हैं.
       एक वह दौर था जब किसी समाचार पत्र का मालिक या संपादक अपने आप को राजनीति से बिल्कुल दूर रखता था. सरकार एवं शासन-प्रशासन के सामने नतमस्तक नहीं होता था.अक्सर कई राजनैतिज्ञ और रूतबेदार लोग समाचार पत्रों के कार्यालय पहुंच जाया करते थे,लेकिन संपादक ऐसे लोगों से मिलने के लिए अपने रूम से बाहर नहीं आते थे,उलटे आगंतुकों को संपादक के कमरे में जाकर हाजिरी लगाना पड़ती थी. यहां तक की पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जब कांग्रेस के मुखपत्रों अंग्रेजी के ‘नेशनल हेरेल्ड’,हिन्दी के ‘नवजीवन’ और उर्दू के ‘कौमी आवाज’ समाचार पत्र के कार्यालय में जाते थे तो उन्हें संपादक के कमरें में प्रवेश के लिए संपादक से इजाजत लेनी पड़ती थी,यही हाल करीब-करीब सभी संपादकों का हुआ करता था. ऐसा होता था संपादकोे का रूतबा. अब तो कई मीडिया संस्थानों में संपादक की कुर्सी पर मालिकों के ऐसे वफादारों को बैठा दिया गया जिनको पत्रकारिता की एबीसीडी भी नहीं मालूम होती है,लेकिन सरकार से डींिलंग करने और विज्ञापन लाने में  महारथ हासिल होती है. कई बार तो यह कई महत्पूर्ण खबरों तक को अपनी ‘वीटो पॉवर’ से रोक लेते हैं.
    बात आजादी से पूर्व की कि जाए तो स्वतंत्रता के पूर्व की पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति ही था. स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई है. उस दौर में पत्रकारिता ने परे देश को एकता के सूत्र में बांधने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा. आजादी के बाद निश्चित रूप से इसमें बदलाव आना ही था.उस बदलाव के बारे में ऊपर बताया जा चुका है. आज इंटरनेट और सूचना अधिकार ने पत्रकारिता को बहु-आयामी और अनंत बना दिया है. आज कोई भी जानकारी पलक झपकते ही प्राप्त की जा सकती है. इसी लिए वर्तमान पत्रकारिता पहले से अधिक सशक्त, स्वतंत्र और प्रभावकारी बन गई है. अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारिता की पहुंच का उपयोग सामाजिक सरोकारों और समाज के भले के लिए हो रहा है लेकिन इसके साथ ही इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता है कि कभी-कभार इसका दुरुपयोग भी देखने को मिलता है.
   बात सोशल मीडिया की कि जाए तो स्नैपचौट, फेसबुक, इंस्टाग्राम,वॉटस एप और ट्विटर का जमाना है, ये सभी ऐसे प्लेटफॉर्म हैं जो अब पत्रकारिता की दुनिया को काफी प्रभावित कर रहे हैं तथा उसे नये तरीके से चला रहे हैं. हालांकि सोशल मीडिया जनता के लिए आसानी से उपलब्ध तो है, पर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि यह सच्ची पत्रकारिता करता है. ऐसा लगता है कि आज के दौर में कुछ लोगों और समूह के लिए पीत पत्रकारिता देश और जनता को गुमराह करने का एक साधन बन गई है जो विनाशकारी सोच के साथ काम करते हैं तथा अपनें काम में गपशप, घोटालें, तथा मनोरंजन जैसी चीजों का समावेश करते हैं और जो गंदगी में लिपटे रहना चाहते हैं. ऐसी पत्रकारिता से देश को मुक्ति दिलाना समय की मांग भी और जरूरत भी. इसके अलावा पत्रकारिता के लिए पूूंजीपति भी एक काले अध्याय की तरह सामने आ रहे हैं. इन पंूजीपतियों के कारण पत्रकारिता व्यापार बनती जा रही है. कई मीडिया घरानों ने पत्रकार या कहें सम्पादकीय विभाग में काम करने वालों की कलम गिरवी रख दी है. व्यवसायिक हितों को तरजीह दी जाती है जिस कारण कई महत्वपूर्ण खबरें छपने की बजाए डस्टबिन में दम तोड़ देती हैं. अब मीडिया पर भी आरोप लगने लगे हैं. गोदी मीडिया जैसे नये शब्द गडे़ जाने लगे हैं.
      आज पत्रकारिता पर एक विशेष विचारधारा को आगे बढ़ाने का आरोप लग रहा है तो कई लोग इसके प़़क्ष में तो तमाम इसके खिलाफ तर्क देते हुए कहने से चूक नहीं रहे हैं कि हर दौर में कुछ पत्रकार और मीडिया संस्थान सरकार के पिछल्लू बने रहते थे. जिस तरह से एक समय में वामपंथियों, कांग्रेसियों का मीडिया पर दबदबा रहता था, उसी तरह इस समय बीजेपी पर मीडिया को अपने हित में साधने का आरोप लग रहा है,लेकिन ऐसे पत्रकारों की कभी भी कमी नहीं रही जो सत्ता के खिलाफ बेखौफ होकर लिखते थे. ऐसे पत्रकार आज भी जिंदा है जो अपनी लेखनी के साथ समझौता नहीं करते हैं. यह और बात है कि तब और आज के पत्रकारों में निर्भीक होकर पत्रकारिता करने का प्रतिशत थोड़ा बहुत ऊपर-नीचे जरुर हो सकता. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मीडिया से जुड़े कई बड़े संस्थान पंूजीपतियों ने खरीद कर अपने पास गिरवी रख ली है और खरीदे गए संस्थानों में ऐसे लोगों के हाथ में लेखनी पकड़ा दी जो  पत्रकार का लबादा ओढ़कर सरकार का गुणगान करते रहते हैं. आज भी वही परिपाटी चल रही है,इसमें नया कुछ नहीं है.परन्तु अभी भी कई ऐसे निर्भिक प्रकाशक और पत्रकार हैं जो लोगों के लिए सच्ची और प्रामाणिक खबरे तैयार करते हैं. उन्हें दर्शकों के रूप-रंग, उनके रहन-सहन, जाति आदि से कोई फर्क नहीं पड़ता.
      बहरहाल,पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का महत्वपूर्ण स्थान अपने आप नहीं  हासिल हो गया है. सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्व को देखते हुए समाज ने ही यह दर्जा इसे दिया है.सब जानते हैं कि भारतीय लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब पत्रकारिता सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका का पालन करे. पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निर्वाह करे. ऐसा नहीं है कि पत्रकारिता का गला घोंटने की कभी कोशिश नहीं की गई हैं. इमरजेंसी इसका प्रत्यक्ष गवाह है. सच्चाई यह है कि पत्रकारिता संकट के हर दौर से निकल कर और ज्यादा निखरी है. देश में आज पत्रकारिता यदि पूरी आजादी के साथ अपना काम कर रही है तो इसके लिए न्यायपालिका की भी सराहना करनी होगी,जिसने पत्रकारिता का गला घांेटने की हर कोशिश को अपने कलम से खारिज कर दिया. खैर, यदि किसी को पत्रकारिता में पतन का दौर नजर आ रहा है तो उसको ध्यान रखना चाहिए की पत्रकारिता  अपना स्वरूप बदल रही है. अब वह दूसरे आयाम में जा रही है. कल की पत्रकारिता बीत चुकी है, आज की पत्रकारिता चल रही है और विकसित हो रही है और कल की पत्रकारिता अभी बाकी है. लब्बोलुआब यह है कि समाज की तरह पत्रकारिता जगत में भी उत्थान-पतन का दौर देखने को मिल रहा है.

अजय कुमार के अन्य अभिमत

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