समान नागरिक संहिता को क्या गुपचुप आगे बढ़ा रही है मोदी सरकार

केन्द्र की मोदी सरकार भले ही भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेंडे में शामिल ‘समान नागरिक संहिता’ कानून लागू करने के मामले में ढीली-ढाली नजर आ रही हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस ओर से आंखें मूंद ली हो . पर्दे के पीछे सरकार के भीतर इस पर तेजी से कार्य चल रहा है. ‘समान नागरिकता कानून’ बनाने के लिए सबसे जरूरी है कि सभी धर्मों के ‘पर्सनल लॉ’ की खूबियों और खामियों का बारीकी से मंथन हो और यह काम हो भी रहा है. मंथन करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जा रहा है कि तमाम धर्मो के पर्सनल लॉ से कहीं भारतीय संविधान की अवहेलना तो नहीं हो रही है. इसी क्रम में इस पर भी ध्यान रखा जा रहा है कि कहीं पर्सनल लॉ और संविधान में आमजन को मिले मौलिक अधिकारों में तो कोई टकराव नहीं हो रहा है. यह भी देखा जा रहा है कि विभिन्न धर्मो के पर्सनल लॉ में लिंग आधारित समानता और न्याय का प्रावधान है या इसकी अवहेलना हुई है. क्या तमाम पर्सनल लॉ में सामाजिक बुराई को धार्मिक परंपरा के नाम पर न्यायोचित तो नहीं ठहराया गया है. तमाम पर्सलन लॉ का अध्ययन करके सारे पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध करने पर भी विचार हो सकता है. ताकि उनकी व्याख्या में व्याप्त अस्पष्टता को दूर किया जा सके. गौरतलब हो,पर्सनल लॉ की समीक्षा का काम कार्मिक, लोक शिकायत, विधि व न्याय विभाग की संसदीय समिति कर रही है. समिति ने लोगों से सुझाव और राय भी मांगी थी. अभी तक समिति को इस पर 50 से ज्यादा सुझाव प्राप्त हो चुके हैं. पर्सनल लॉ की समीक्षा और उस पर आने वाली रिपोर्ट कई पहलुओं से महत्वपूर्ण होगी. क्योंकि जब 21 वें विधि आयोग को समान नागरिक संहिता पर विचार करके रिपोर्ट देने को सरकार ने कहा था तो तत्कालीन आयोग ने अगस्त 2018 में कार्यकाल पूरा होने के समय समान नागरिक संहिता पर कोई रिपोर्ट देने के बजाए परिवार विधियों में संशोधन की सलाह दी थी. इस बारे में परामर्श पत्र भी जारी किये थे. ऐसे में देखा जाए तो पर्सनल लॉ का संहिताबद्ध होना भी एक तरह से समान नागरिक संहिता का रास्ता बनाता दिखता है. हालांकि, पर्सनल लॉ की समीक्षा कर रही संसदीय समिति के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद सुशील मोदी से जब भी इस संबंध में पूछा जाता है तो उनका रटा-रटाया जवाब होता है, उनकी समिति का समान नागरिक संहिता से कोई लेना देना नहीं है. न ही वह उनके विचार का दायरा है. बता दें सुशील मोदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति पर्सनल लॉ की समीक्षा कर रही है जिसमें यह देखा जाएगा कि प्रत्येक पर्सनल लॉ में क्या अच्छी बातें हैं जिसका दूसरे पर्सनल लॉ में प्रयोग किया जा सकता है. इस बारे में अभी तक तीन बैठकें हो चुकी हैं. कमेटी ने विज्ञापन देकर पर्सनल लॉ की समीक्षा पर लोगों से सुझाव आमंत्रित किये थे और कमेटी के पास 50 से ज्यादा लोगों के सुझाव आए हैं. सूत्र बताते हैं कमेटी आने वाले दिनों में तमाम संविधान विशेषज्ञों तथा अधिवक्ताओं को बुलाने वाली है जिनसे जाना समझा जाएगा कि अलग-अलग पर्सनल लॉ क्या हैं और उनमें क्या खामियां या खूबियां हैं. उदाहरण के तौर पर हिन्दू कोड बिल बहुत पहले पास हुआ था, अब कमेटी देखेगी क्या उसमें कोई चीज ऐसी है या कोई कमी है जिसे ठीक करना चाहिए. इस प्रकार की चीजों पर अध्ययन करके कमेटी रिपोर्ट दे सकती है. पूर्व में कुल 10 बिंदु चिन्हित किये गए थे जिसमें पर्सनल लॉ और संविधान के तहत मिले मौलिक अधिकारों में टकराव नजर आ रहा था. पर्सनल लॉ में लिंग आधारित भेदभाव और लिंग के आधार पर बराबरी के अधिकार को अनदेखा कर इसे धार्मिक परंपरा कह कर न्यायोचित ठहराना गया है. कमेटी द्वारा पर्सनल लॉ की व्याख्या और उसे लॉगू करने में आने वाली अस्पष्टता को दूर करने के लिए सभी पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध किया जाना है. इसमें रिफार्मिंग सेकुलर पर्सनल लॉ जैसे स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 आदि शामिल हैं. उधर, समान नागरिक संहिता में अंतरधर्मीय और अंतरजातीय शादी करने वाले जोड़ों को संरक्षण देना है. समाज को पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध करने के बारे में संवेदनशील करना और उन पर्सनल लॉ में अच्छी बातें जैसे तमाम मसले शामिल हैं.बात संविधान के तहत देश में ‘समान नागरिक संहिता’ कानून लागू करने की बात की जाए तो भारतीय संविधान के भाग-4 के अनुच्छेद-44 में नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा. सर्वाेच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है, लेकिन वर्तमान समय तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले ही पर्सनल लॉ कुछ धर्मो का अपना निजी कानून नजर आता हो,लेकिन यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है. समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे. सभी के लिए कानून में एक समानता से देश में एकता बढ़ेगी. यह भी कहा जाता है कि जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है, वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ता है. देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का धु्रवीकरण नहीं होगा. ज्ञातव्य है कि सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को तात्कालीन राजीव गांधी सरकार ने धार्मिक दबाव में आकर संसद के कानून के माध्यम से पलट दिया था. समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा. अभी तो कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं. इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे. समान नागरिक संहिता लागू किए जाने में देरी के कारणों पर ध्यान दिया जाए तो यह साफ हो जाता है कि देश की सरकारों को किसी भी दशा में धार्मिक रुढ़ियों की वजह से समाज के किसी वर्ग के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये. साथ ही ‘विधि के समक्ष समता’ की अवधारणा के तहत सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिये . वैश्वीकरण के वातावरण में महिलाओं की भूमिका समाज में महत्त्वपूर्ण हो गई है,इसलिये उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लिये अहितकर है. सर्वाेच्च न्यायालय ने संपत्ति पर समान अधिकार और मंदिर प्रवेश के समान अधिकार जैसे न्यायिक निर्णयों के माध्यम से समाज में समता हेतु उल्लेखनीय प्रयास किया है इसलिये सरकार तथा न्यायालय को समान नागरिक संहिता को लागू करने के समग्र एवं गंभीर प्रयास करने चाहिये. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु एक विधि आयोग का गठन किया गया. विधि आयोग ने कहा था कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है. आयोग ने भारतीय बहुलवादी संस्कृति के साथ ही महिला अधिकारों की सर्वाेच्चता के मुद्दे को इंगित किया. पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा की जा रही कार्यवाही को ध्यान में रखते हुए विधि आयोग ने कहा है कि महिला अधिकारों को वरीयता देना प्रत्येक धर्म और संस्थान का कर्तव्य होना चाहिये.विधि आयोग के विचारानुसार, समाज में असमानता की स्थिति उत्पन्न करने वाली समस्त रुढ़ियों की समीक्षा की जानी चाहिये. इसलिये सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की आवश्यकता है जिससे उनसे संबंधित पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य सामने आ सकें. वैश्विक स्तर पर प्रचलित मानवाधिकारों की दृष्टिकोण से सर्वमान्य व्यक्तिगत कानूनों को वरीयता मिलनी चाहिये.

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