पूर्वोत्तर भारत के तीन राज्यों के चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है. वहीं यह चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्साह बढ़ाने का काम करने वाले हैं. भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस को लग रहा था कि उसकी राजनीतिक स्थिति सुधर जाएगी, लेकिन पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए विधानसभा के चुनाव परिणाम ने कांग्रेस की आशा को ध्वस्त करने का ही काम किया है. कांग्रेस के नेताओं को जिस प्रकार से अप्रत्याशित परिणामों की उम्मीद दिखाई दे रही थी, परिणामों ने कांग्रेस के उड़ान भरते हुए पंखों को काटने का काम किया है. जिसके कारण एक बार फिर से कांग्रेस की राजनीतिक आकांक्षा को पलीता लगा है. ऐसा लग रहा है कि कांगे्रस के नेता भारत जोड़ो यात्रा को राजनीतिक उत्थान के लिए रामबाण दवा मानकर चल रहे थे, लेकिन यह दवा भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाई. कांग्रेस की गिरती हुई साख को बचाने के लिए कांग्रेस द्वारा खेला गया यह यात्रा का दांव उलटा पड़ता हुआ नजर आ रहा है. अगर भगवान भरोसे पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में कांग्रेस को संजीवनी मिल जाती तो इसे राहुल गांधी के लिए प्रचारित करने की होड़ शुरू हो जाती. यानी जीते तो राहुल के कारण और हारे तो उसके लिए राहुल जिम्मेदार नहीं. यही खेल कांग्रेस में वर्षों से चल रहा है.
राजनीति के चुनावी खेल में जय और पराजय का खेल एक शाश्वत नियति है, लेकिन कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल की इन राज्यों में दस प्रतिशत सीट भी नहीं आना गंभीर चिंता का कारण है. वह भी तब, जब उसके नेता राहुल गांधी ने जी तोड़ मेहनत की, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात वाला ही कांग्रेस के खाते आया. पूर्वोत्तर के इन तीन राज्यों ने कांग्रेस को आइना दिखाने का काम किया है, लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस के नेता अपनी तस्वीर को इस स्वच्छ आइने में अपने आपको देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है. अगर देखने का साहस करती तो लोकसभा चुनाव के बाद ही देख लेती. ऐसा लगता है कि कांग्रेस अभी तक धुंधले दर्पण में अपने आपकी छवि देखकर सपना पाले बैठी है कि कभी तो बिल्ली के भाग्य से छींका टूटेगा, लेकिन आज का मतदाता पहले जैसा नहीं रहा, उसने छींका की रस्सी को इतना सामथ्र्य प्रदान कर दिया है कि वह टूटने की आशा भी नहीं बनने दे रहा. इससे यही लग रहा है कि देश के मतदाताओं का विश्वास भाजपा के प्रति अब भी बना हुआ है, कांग्रेस लगातार सिमटती जा रही है.
चुनाव परिणामों ने एक प्रकार से कांग्रेस की भावी योजनाओं पर तुषारापात किया है. उसे इन तीन में से किसी भी राज्य में विपक्ष में रहने लायक भी सीट नहीं मिली हैं. नगालैंड में कांग्रेस कार्यकर्ता दोपहर से शाम तक शून्य को ही निहारते रह गए. वहीं त्रिपुरा के चुनाव परिणामों पर टकटकी लगाए रहने के बाद भी केवल तीन सीट ही मिल पाईं और मेघालय में केवल पांच सीट ही मिल पाईं हैं. कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास पर दृष्टि डाली जाए तो मेघालय में कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन देखने को मिला है. पिछले चुनाव में कांग्रेस ने यहां तीन दर्जन से अधिक सीटों पर जीत दर्ज की थी, लेकिन इस बार पांच सीटों पर ही सिमट गई. तीनों राज्यों में विधानसभा की साठ-साठ सीटें हैं. इससे सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राजनीतिक रथ कांग्रेस को किस राह पर ले जा रहा है.
कांग्रेस जिस राज्य में पराजित होती या जीत हासिल करती है, तो पराजय पीछे कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व की नकारात्मक छवि ही एक बड़ा कारण होती है. लेकिन जीत प्रादेशिक नेताओं के प्रभाव का परिणाम होती है. वर्तमान में कांग्रेस की यह नियति ही बन गई है कि उसके नेता किसी बड़े चमत्कार की प्रत्याशा में राजनीति के मैदान में दांव पेच लगा रहे हैं, लेकिन ऐसे चमत्कार की आस उस समय धराशायी हो जाती है, जब परिणाम आते हैं. अब आगे कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है, जिसके लिए घिसे हुए राग की तरह कांग्रेस भैंस के सामने बीन बजाने का काम कर रही है. हालांकि पूर्वोत्तर की तरह इन राज्यों में भी कांग्रेस का यही हाल होगा, यह कहना जल्दबाजी ही होगी, लेकिन इससे कांगे्रस नेताओं के मन में उठ रहे सत्ता के सपने को रोकने का संदेह उपस्थित कर दिया है.
अब कांग्रेस के भावी स्वरूप को लेकर राजनीतिक रूप से सामान्य सवाल यह उठने लगा है कि क्या वर्तमान स्थिति में कांग्रेस, भाजपा के विजय रथ को रोकने में समर्थ हो सकेगी. यह सवाल कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में भी मुखरित हो रहे होंगे, क्योंकि जनता को संदेश देने के लिए कांग्रेस ने गांधी परिवार से अलग अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे को बनाया, लेकिन राजनीतिक पटल पर वे आज भी गांधी परिवार के पीछे ही हैं. पूरी कांग्रेस पार्टी आज भी गांधी परिवार को ही अपना सब कुछ मानती है. और यह सत्य भी है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस अपनी स्थिति सुधार पाएगी, फिलहाल नहीं लगता.