वादे और दावे के बीच झूलती बिहार की राजनीति

बिहार में चुनावी घमासान की हवा चल रही है. प्रमुख राजनीतिक दल इस हवा के रुख को अपनी ओर मोड़ने का जी तोड़ प्रयास भी कर रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी अभी तक कोई भी ऐसी आश्वस्ति पीिलक्षित नहीं हो रही है कि हवा किस ओर बह रही है. राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे दावे और वादे सत्ता की राह को आसान बनाने की मात्र कवायद ही कही जा सकती है. बिहार की राजनीति में चार प्रमुख राजनीतिक दल जोर लगा रहे हैं, बाकी के सभी इनके सहारे सत्ता का स्वाद चखने के लिए लालायित हैं. यह प्रमुख दल अपने ही दल के अंदर उठ रहे भीतरघात के लावे से परेशान हैं. जहां तक राष्ट्रीय जनता दल की बात है तो उनके घर के अंदर से ही विरोध की चिंगारी सुलग रही है. जो भविष्य में बड़ी आग का रूप भी ले सकती है. तेजप्रताप यादव नए दल के साथ चुनावी मैदान में उतरकर तेजस्वी के सपनों को मिटाने का अभियान छेड़े हुए हैं, वहीं उनके पिता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के शासन करने का अंदाज एक बड़ी चुनौती बन रहा है. भारतीय जनता पार्टी एक प्रकार से इसी को चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयास कर रही है. भाजपा की ओर से कहा जा रहा है कि बिहार को विकास चाहिए या फिर जंगलराज चाहिए. लालू प्रसाद यादव के शासन बारे में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से इस आशय की टिप्पणी की गई थी कि बिहार में जंगलराज है. राष्ट्रीय जनता दल की ओर से अपनी सरकार के बारे में बताने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए राजद के पास केवल भाजपा का विरोध करना ही प्रचार करने का एक मात्र विकल्प है. यह वोट प्राप्त करने का माध्यम तो बन सकता है, लेकिन इसे स्पष्ट रूप से नकारात्मक राजनीति का पर्याय ही माना जाएगा. नकारात्मक राजनीति किसी भी प्रकार से उचित नहीं मानी जा सकती.
बिहार की राजनीति में वोट चोरी का मामला भी जोर शोर से उठाया गया. इसका लाभ भी विपक्ष उठा सकता था, लेकिन ऐसा लगता है कि इस मुद्दे को उठाने में विपक्ष ने जल्दबाजी कर दी. चुनाव आयोग की ओर से वोट चोरी के बोर में पक्ष रखने के बाद यह मुद्दा गहरी खाई में समा गया. कांग्रेस और राजद की ओर से जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है, वह यही संकेत करती है कि इनको सत्ता प्राप्त करने की जल्दी है. हमारे देश में एक कहावत तो सबने सुनी ही होगी कि जल्दी फायदा कम, नुकसान ज्यादा करती है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और राहुल गांधी की दोस्ती का परिणाम सभी देख चुके हैं. अब बिहार में राहुल और तेजस्वी एक साथ हैं.
राजनीतिक वातावरण में हमेशा से यही प्रचलित धारणा बनी हुई है कि दुश्मन का दुश्मन भी एक दोस्त की तरह ही होता है. कांग्रेस, भाजपा को राजनीतिक विरोधी ही मानती है, इसके साथ ही राजद के विचार भी भाजपा के विपरीत ही हैं. इसलिए बिहार में आज कांग्रेस और राजद एक साथ हैं. विपक्ष की ओर से राजद के नेता तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा भी घोषित कर दिया है. उन पर परिवारवाद की राजनीति का तमगा भी लगा है. इसके कारण भी राजद के अन्य वरिष्ठ नेता मैदान में खुलकर नहीं आ रहे हैं. राजद के कई नेताओं का अंदाज तेज प्रताप को समर्थन देने जैसा ही है. इस प्रकार की राजनीति भितरघात की श्रेणी में आएगी. अगर बिहार में तेजप्रताप अपना राजनीतिक कौशल दिखा पाते हैं तो यह स्वाभाविक तौर पर कहा जा सकता है कि फिर तेजस्वी की राह कांटों भरी ही होगी. दोनों भाइयों के बीच यह राजनीतिक घमासान मात्र नेतृत्व की ही लड़ाई है. यह भी सबको समझ में आ रहा है. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का चुनावी मैदान में आना राजनीतिक सौदेबाजी करने जैसा ही माना जा रहा है. प्रशांत किशोर जितना जोर दिखाएंगे, उतना ही वह बिहार की राजनीति को प्रभावित करेंगे. यह प्रभाव किसके लिए खतरा बनेगा, यह अभी से कह पाना संभव नहीं है, लेकिन बिहार की राजनीति स्थिति को देखकर यही कहा जा रहा है कि प्रशांत किशोर का फोकस उन वोटों पर अधिक है, जो राजद या कांग्रेस को मिलते हैं. कर्पूरी ठाकुर के परिजन को अपनी पार्टी से उम्मीदवार बनाना भी संभवत: इसी रणनीति का ही हिस्सा है.
जहां तक भाजपा और नीतीश कुमार की जदयू की बात है तो यही कहा जा सकता है कि यह दोनों ही विकास के नाम पर वोट मांग रहे हैं. बिहार को विकास की जरूरत भी है. भाजपा और जदयू को लगता है कि विकास के नाम पर उसे फिर से सत्ता प्राप्त हो जाएगी. इसके विपरीत विपक्ष की ओर से कांग्रेस और राजद की ओर से आम जन के निजी स्वार्थों को कुरेदकर उनको आर्थिक लाभ देने के वादे किए जा रहे हैं. ऐसे वादे लोग को त्वरित लाभ तो दे सकते हैं, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं है. नौकरियां देना भी असंभव है, इसलिए स्वरोजगार देने का प्रयास करना चाहिए. केन्द्र सरकार इस दिशा में सार्थक प्रयास कर रही है. जिसके अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं. कई लोगों ने अपना जीवन स्तर भी सुधारा है. युवाओं को नौकरी करने वाला नहीं, नौकरी देने वाला बनाने का प्रयास करने की आवश्यकता है. बिहार के युवा इस बारे में सोचें, यही बिहार की राजनीति का आधार बने. राजनीतिक दलों को इस बारे में भी सोचना चाहिए.
राजनीति को जन भावनाओं के अनुसार ही होना चाहिए. इसके लिए परिवारवाद नहीं, लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए हर राजनीतिक दल को प्रयास करना चाहिए. हालांकि हमारा आशय परिवार के सहारे राजनीति में कदम रखने वाले राहुल और तेजस्वी के राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल खड़े करने का नहीं है. हो सकता है कि वे देश की भावी राजनीति के सूत्रधार बनें, लेकिन फिलहाल उनके खाते में ऐसी कोई राजनीतिक उपलब्धि नहीं है, जिसके आधार पर उनका राजनीतिक आंकलन किया जाए. विपक्ष की दूसरी कठिनाई यह है कि इनके पास प्रचार करने वाले जमीनी नेताओं की कमी है, जबकि भाजपा और जदयू में ऐसे नेताओं की लम्बी सूची है. जिसके कारण यह सभी जगह अपना प्रचार करने की योजना बना सकते हैं. अब देखना यह है कि बिहार की जनता किसको पसंद करेगी और किसको नापसंद, यह आने वाले समय में पता चल जाएगा.

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