नव संवत्सर : पूर्णत: वैज्ञानिक व प्राकृतिक नव वर्ष

वर्तमान भारत में जिस प्रकार से सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण हुआ है, उसके चलते हमारी परंपराओं पर भी गहरा आघात हुआ है. यह सब भारतीय संस्कृति के प्रति कुटिल मानसिकता के चलते ही किया गया. आज भारत के कई लोग इस तथ्य से अवगत नहीं हैं कि भारतीय संस्कृति क्या है, हमारे संस्कार क्या है? लेकिन अच्छी बात यह है कि कोई भी शुभ कार्य करने के लिए आज भी समाज का हर वर्ग भारतीय कालगणना का ही सहारा लेता है. चाहे वह गृह प्रवेश का कार्यक्रम हो या फिर वैवाहिक कार्यक्रम, हम भारतीय पंचांग का सहयोग ही लेते हैं. इसी प्रकार हमारे त्यौहार भी प्राकृतिक और गृह नक्षत्रों पर ही आधारित होते हैं. इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्ष प्रतिपदा पूर्णत: वैज्ञानिक और प्राकृतिक नव वर्ष है.
कहा जाता है कि जो देश प्रकृति के अनुसार चलता है, प्रकृति उसकी रक्षा करती है. वर्तमान में जिस प्रकार से विश्व के अनेक हिस्सों प्रकृति का कुपित रूप दिखाई देता है, उससे मानव जीवन के समक्ष अनेक प्रकार की विसंगतियां प्रादुर्भूत हुई हैं. यह सब पश्चिम विचार की अवधारणा के चलते ही हो रहा है. भारत की संस्कृति मानव जीवन को सुंदर और सुखमय बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है. विश्व की महान और शाश्वत परंपराओं का धनी भारत देश भले ही अपने अपनी पहचान बताने वाली कई बातों का भूल गया हो, लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिनका स्वरूप आज भी वैसा ही दिखाई देता है, जैसा दिग्विजयी भारत का था. हम भले ही अपने शुभ कार्यों में अंग्रेजी तिथियों का उल्लेख करते हों, लेकिन उन तिथियों का उन शुभ कार्यों से कोई संबंध नहीं रहता. हम जानते हैं कि भारत में जितने भी त्योहार एवं मांगलिक कार्य किए जाते हैं, उन सभी में केवल भारतीय काल गणना को ही प्रधानता दी जाती है. इसका आशय स्पष्ट है कि भारतीय ज्योतिष उस कार्य के गुण और दोष को भली भांति प्रकट करने की क्षमता रखता है. किसी अन्य कालगणना में यह संभव ही नहीं है.
वर्तमान में हम भले ही स्वतंत्र हो गए हों, लेकिन पराधीनता की काला साया एक आवरण की तरह हमारे सिर पर विद्यमान है. जिसमें चलते हम उस राह का अनुसरण करने की ओर प्रवृत्त हुए हैं, जो हमारे संस्कारों के साथ समरस नहीं है. अब नव वर्ष को ही ले लीजिए. अंग्रेजी पद्धति से एक जनवरी को मनाया जाने वाला वर्ष नया कहीं से भी नया नहीं लगता. इसके नाम पर किया जाने वाला मनोरंजन फूहड़ता के अलावा कुछ भी नहीं है. आधुनिकता के नाम पर समाज का अभिजात्य वर्ग वह सब कुछ कर रहा है, जो सभ्य और भारतीय समाज के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं है. विसंगति तो यह है कि हमारे समाज के यही लोग संस्कृति बचाने के नाम पर लम्बे चौड़े व्याख्यान दे देते हैं.
भारतीय काल गणना के अनुसार मनाए जाने वाले त्यौहारों के पीछे कोई न कोई प्रेरणा विद्यमान है. हम जानते हैं कि हिन्दी के अंतिम मास फाल्गुन का वातावरण भी वर्ष समाप्ति का संकेत देता है, साथ ही नव वर्ष के प्रथम दिन से ही वातावरण सुखद हो जाता है. हमारे ऋषि मुनि कितने श्रेष्ठ होंगे, जिन्होंने ऐसी काल गणना विकसित की, जिसमें कब क्या होना है, इस बात की पूरी जानकारी समाहित है.
पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया, किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही. अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईसवी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों, परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईसवी संवत के अनुसार नहीं. विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईसवी सन की तिथियों के अनुसार नहीं. इसके बाद भी हमारा समाज का एक वर्ग इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है. इसके कारण हम सामाजिक मान मर्यादाओं का स्वयं ही मर्दन करते जा रहे हैं. जिसके चलते इसका दुष्प्रभाव हमारे सामने आ रहा है और समाज में अनेक प्रकार की विसंगतियां भी जन्म ले रही हैं, जो भारतीय जीवन दर्शन के हिसाब से स्वीकार योग्य नहीं हैं.
शुभ कार्य के लिए शुभ समय की आवश्यकता होती है और यह शुभ समय निकालने की सही विधि केवल भारतीय काल गणना में ही समाहित है. भारतीय नववर्ष का पहला दिन यानी सृष्टि का आरम्भ दिवस, युगाब्द और विक्रम संवत जैसे विश्व के प्राचीन संवत का प्रथम दिन, श्री राम एवं युधिष्ठिर का राज्याभिषेक दिवस, मां दुर्गा की साधना चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, प्रखर देशभक्त डॉ. केशवराव हेडगेवार जी का जन्मदिन, आर्य समाज स्थापना दिवस, संत झूलेलाल जयंती. इतनी विशेषताओं को समेटे हुए हमारा नव वर्ष वास्तव में हमें कुछ नया करने की प्रेरणा देता है. वास्तव में ये वर्ष का सबसे श्रेष्ठ दिवस है. भारतीय नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है. ब्रह्म पुराण के अनुसार पितामह ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि निर्माण प्रारम्भ किया था, इसलिए यह सृष्टि का प्रथम दिन है. इसकी काल गणना बड़ी प्राचीन है. सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक 1 अरब, 95 करोड़, 58 लाख, 85 हजार, 123 वर्ष बीत चुके हैं. यह गणना ज्योतिष विज्ञान के द्वारा निर्मित है. आधुनिक वैज्ञानिक भी सृष्टि की उत्पत्ति का समय एक अरब वर्ष से अधिक बता रहे हैं. जो भारतीय काल गणना की शाश्वत उपयोगिता का प्रमाण देता है. हिंदु शास्त्रानुसार इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारम्भ गणितीय और खगोलशास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है.
भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लास पूर्ण है, क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है. भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्यतिथि रही है. वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है. विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणना फरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नव संवत्सर संवत को चलाने की परंपरा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस तिथि का प्रतिवर्ष अभिनंदन करता है.
ऐसे में विचारणीय तथ्य यह है कि हम जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं या फिर जड़ बनकर पश्चिम के पीछे भागना चाहते हैं. ध्यान रहे नकल हमेशा नकल ही रहती है, वास्तविकता नहीं हो सकती. आज चमक दमक के प्रति बढ़ता आकर्षण हमें भारतीयता से दूर कर रहा है, लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि दुनिया के तमाम देशों के नागरिकों को भारतीयता रास आने लगी है. जब वे ऐसा कर सकते हैं तो भारतीय समाज के लिए यह बहुत ही सीधा मार्ग है.

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