होली के रंग: मस्ती और मर्यादा संग!

होली के रंग: मस्ती और मर्यादा संग!

प्रेषित समय :17:55:43 PM / Sun, Mar 28th, 2021

घनश्याम बादल. खुशी व अपनेपन के रंगों से सराबोर करने की परम्परा का दूसरा नाम है होली. सही मायनों में समझें तो होली केवल रंग बिखेरने या गुलाल लगा देने भर का त्यौहार नहीं वरन् वह मन में कितने भी गहरे में पल रहे वैर भाव को धो डालने वाला पर्व है, ऐसा पर्व जो ऊंच नीच बड़े - छोटे,  अपने-  पराए, शूद्र या  ब्राह्मण सबके अंतर्मन को धो डालता है. यदि हम होली ऐसे मनाते हैं तो वह अंग्रेजी का ‘होली ’ यानी पावन पर्व बन जाता है वरना तो कीचड़ व गंदगी की परंपरा का पोषक बन जाता  है.

होली संस्कृति और प्रकृति: होली जैसे रंग, मस्ती और प्रेम के पर्व यूं ही नहीं बनाए गए थे. हमारी संस्कृति में पर्व हमें अपनों और प्रकृति के समीप लाने का मौका देते थे. अब सोचिए होली हम चैत में ही क्यों मनाते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि बसंत काम भाव जगा कर प्रेम के रंग बिखेरता है और फागुन आ कर उमंग भर देता है तन मन में. दरअसल होली के पर्व को मनाने के लिये सबसे बड़ा कारण रहा है वसंत ऋतु का आगमन. एक वसंत मौसम के अनुसार आता है और दूसरा खुशियों का दूसरा नाम है. गौर करें हम रंग खुद को नहीं अपितु दूसरे को ही लगाते हेैं. प्रतीक रूप में यही रंग खुशी है , आनंद हैं तो होली तो तभी मनती है जब हम दूसरों को खुशी के रंग लगा सकें.

यह कैसी होली !: पर ,एक निगाह डालिए अपने चारों तरफ. क्या सच में हम राग , अनुराग और प्रेम  की होली मना रहे हैं ? क्या किसी भी तरह से हम मिथकों में वर्णित प्रहलाद रूपी भक्ति व भलाई को जला देने के लिए अपने वरदान का दुरूपयोग करने वाली होलिका का दहन मन से कर पा रहे हैं ? क्या आज पुराने बैरभाव को जलाने की बजाय होली बदला लेने या नशा करने का बहाना नहीं बनती जा रही है? सच में क्या हम चाहते हैं कोई पड़ोसी या अजनबी हमारे घर होली पर आए? हमारी बहनों, भाभियों या बहू - बेटियों के साथ रंग खेले, उनके गालों पर गुलाल मले?

शायद नहीं. अब नहीं क्यों ? इसका जवाब भी हम जानते ही हैं. अगर होली को सच में ‘होली भाव’ यानी पावनता से से मनाने की मानसिकता हम विकसित कर लें तो बहुत सी अनैतिकता की बीमारियां तो स्वयंमेव ही जल जाएंगी.

होली मतलब सहकार व खुशियां: थोडा़ पीछे जाकर देखिए. होली के पर्व से करीब सवा महीने पहले वसंत पंचमी को होली का उपला रख दिया जाता था यानी एक बार फिर, प्रतीक रूप में खुशी भी अनायास नहीं, क्रमागत आनी चाहिए. फिर गांव गलियों में मस्तों की टोलियां ‘फगवा’, ‘कामण’ या ‘धमाल’ गाते हुए घर घर जाती और होली का ईंधन इकट्ठा करती थी. इसका भी एक सबब था सबका सहयोग लेना सबका योगदान पाना और इकट्ठे होकर मन के सारे पापों, गिले शिकवों को होली की आग में जला डालना होता था तब होली का मतलब. आज क्या है सोच सकें तो सोचें.

अहा! वह होली: चलिए सन् पचास या साठ के दशक की होली की एक झलक की कल्पना करें. फगवा के गीतों के नाम पर कितनी गालियां बरसती थी तब पर कोई बुरा नहीं मानता था. क्या अब ऐसा संभव है? नहीं. तो क्यों? क्यांेकि तब गालियां प्रेम पगी होती थी, मन के साफ गंगाजल से नहा कर आती थी. उनमें खुन्नस या किसी के अपमान का भाव नहीं, अपनापन था और होली के नाम पर आज ‘ताक’ है, मौका है किसी की इज्जत से खेलने का. इस गंदे भाव को हम हटा, धो पाएं तो आज की होली भी पावन व गंगाजल स्नात होली न हो जाए.

पूरा देश होली विशेष: अलग प्रदेशों में अलग अलग ढंग से होली  आधार की स्थापना की जाती है पश्चिमी उत्तरप्रदेश में पाॅंच उपले रख कर तो राजस्थान के जयपुर, सीकर, चुरु व झंुझुनूं सहित शेखावाटी में एक मोटा डण्डा गाड़ कर प्रहलाद के रूप में होलिका का आधार रखा जाता है और फिर प्रतिदिन सवा महीने तक प्रति दिन ईंधन जमा करके लोकगीत व नृत्य  ‘गींदड़’ डाले जाते हैं. डांडिया रास से मिलता जुलता नृत्य और मुंह में दो अलगोजे लेकर  जब वातावरण में मधुर स्वर लहरी गूंजती है तो पूरा वातावरण ही सरस हो उठता है.

मनोविकार जलाने का पर्व: होली जहां एक और मनोविकारों के दहन का पर्व माना जाता है वहीं ओझा, तांत्रिक व टोने -टोटके वाले भी इस दिन अपना मायाजाल फैलाने का अवसर ढंूढ लेते हैं. कहते हैं इस दिन अपने बच्चों का खास ख्याल रखना जरुरी है क्यांकि कुछ लोग उनके बाल काट कर टोना टोटका कर सकते हैं, अब इस प्रपंच में कितना सच है यह तो नहीं पता पर विज्ञान के युग में इसे अंध विश्वास ही कहा जाएगा.

बिखरे रंग अनेक: वैसे ऐसा भी नहीं है कि होली के नाम पर बस गंदगी ही गंदगी हो. आज भी कुछ सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इलाकों में वहां के लोग होलिका के पर्व की महत्ता को जानते हैं. यही वजह है कि आज भी बृज की लट्ठमार होली, बस्तर की पत्थरमार होली, हरियाणा की कोड़ामार होली, राजस्थान की गाढ़े गुलाबी रंग की ‘गैर’,मथुरा की राधाकृष्ण होली व पंजाब के होला महल्ला का रंग आज भी सर चढ़़कर बोलते देख जा सकता है और वातावरण में इस भागमभाग व आपाधापी के बावजूद ‘होली आई रे कन्हाई, रंग बरसे बजा दे तोरी बांसुरी’ ...जैेसेे सुमधुर गीत सुनाई देते हैं.

गांव की महकती होली: उत्तर भारत के बहुत से गांवों में आज भी उल्लास के साथ न केवल होली का पूजन होता है वरन वहां अब भी रात में होली के गीतों की गूंज व मधुरता के दर्शन हो जाते हैं. वहां आज भी होलिका पूजन होता है. होली को सूत की डोर से बांधकर हल्दी ,बेर, बताशे आदि से पूजा जाता है और रा़ित्रा में पूजा का मुहूर्त निकाल कर ष्शुभ लग्न में होलिका दहन किया जाता है. वहां आज भी माना जाता है कि होलिका के दहन करने से मनुष्य के सारे पाप उसकी अग्नि में जलकर राख हो जाते हैं तथा आज के ही दिन हम नए आने वाले अनाज की प्रथम आहुति अग्निदेव को अर्पित करते हैं.

उफ् यह होली : मगर खेद का विषय है कि होलिका के पर्व का जश्न अब पिछड़े कहे जाने वाले उन्हीं अंचलों में रह गया है जहां अभी भौतिक प्रगति के पांव पूरी तरह से नहीं जमे हैं नहीं तो अधिकांश क्षेत्रों में तो होलिका का पर्व हो -हुल्लड़ या फिर धींगा मस्ती का पर्याय बन कर रह गया है. रंगों की जगह कैमिकल्स, गोबर कीचड़ व अन्य हानिकारक पदार्थों ने होली की गरिमा को लगातार कम किया है वहीं बढ़ती शराबखोरी, भांग व ड्रग्स का इस्तेमाल इस पावन पर्व को खराब किए जा रहा है. होली के बहाने छेड़छाड़ व अश्लीलता पर रोक लगाने का प्रयास अगर नहीं किया गया तो होली का आनंद व पर्व दोनों ही संकट में पड़ जाएंगें.

ज़रूरी हैं बदलाव: अब समय के साथ बदलाव तो लाने ही होने, ऐसे बदलाव जिससे होली की गरिमा व रंग की मस्ती दोनों बचे रहें. होली के मान, मर्यादा व मस्ती के बीच एक संतुलन बनाना होगा. फूहड़ता, अश्लीलता, बदले की भावना व छेड़खानी नशेखोरी होली से हटाना होगा. मनोविकारों का दहन यदि हम होली में कर पाएंगे तो फाग के रंग अपने आप ही निखार कर चारों ओर बिखर जाएंगे और तब सभ्य लोग होली के दिन घरों के दरवाजों के पीछे कैद नहीं हांेगे अपितु वे भी अपनी संस्कारों की होली खेल कर मस्ती को मर्यादा के रंगों से सराबोर कर सकेंगे.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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