शनिदेव को आकाश मंडल मे काल पुरुष का दंड या मृत्यु का देवता kahaar जाता है आठवे भाव मे यह ग्रह बलि होता है, रोग,दुख, महामारी, अकाल इस ग्रह का प्रभाव ही है, सूर्य, चंद्र, मंगल और गुरु ग्रह का ये शत्रु होता है,चंद्रमा का कारक होता है,जब शनिदेव चंद्र पर दृष्टि डालते है, या चंद्र पर से भ्रमण करते है, तब यह समय व्यक्ति के लिए महा कष्टकारी होता है.
*शकट भेदन*- जब शनिदेव सूर्य चंद्र और मंगल के नक्छत्र से भ्रमण करते है, तब यह समय विश्व के लिए कष्टकारी होता है, शनि जब वृषभ राशि,कन्या राशि और मकर राशि मे भ्रमण करता है, तब यह शकट भेदन का समय होता है, खासकर जब शनि देव चंद्र के अंशों मे प्रवेश करते है.
*वर्तमान मे यही स्थिति*-वर्तमान मे शनि महाराज 26 जनवरी से मकर राशि मे भ्रमण कर रहे है,26 जनवरी 2020 से 26 फरवरी 2021 तक ये सूर्य के नक्षत्र मे थे, 26 फरवरी से ये चंद्र के अंशो मे भ्रमण कर रहे है,ये शनि महाराज का शकट भेदन का समय चल रहा है,विश्व और भारत मे कोरोना महामारी का प्रभाव तथा चीन से विश्व के अन्य राष्ट्रों से तनातनी इजरायल और फिलिस्तीन द्वारा युद्ध का वातावरण, ईसाई और मुस्लिम युद्ध का ध्रुवीकरण, तीसरे विश्व युद्ध का माहौल बनना ये सब शनि शकट भेदन का प्रभाव ही चल रहा है.
शनि शकट भेदन और कथा
प्राचीन काल में दशरथ नामक प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजा हुए थे. राजा के कार्य से राज्य की प्रजा सुखी जीवन यापन कर रही थी सर्वत्र सुख और शांति का माहौल था,उनके राज्य काल में एक दिन ज्योतिषियों ने शनि को कृत्तिका नक्षत्र के अन्तिम चरण में देखकर कहा कि अब यह शनि रोहिणी नक्षत्र का भेदन कर जायेगा,रोहिणी-शकट-भेदन भी कहा जाता हैं,शनि का रोहणी में जाना देवता और असुर दोनों ही के लिये कष्टकारी और भय प्रदान करने वाला है तथा रोहिणी-शकट-भेदन से बारह वर्ष तक अत्यंत दुखदायी अकाल पड़ता है.
ज्योतिषियों की सलाह
ज्योतिषियों की यह बात जब राजा ने सुनी, तथा इस बात से अपने प्रजा की व्याकुलता देखकर राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि तथा प्रमुख ब्राह्मणों से कहने लगे: हे ब्राह्मणों! इस समस्या का कोई समाधान शीघ्र ही मुझे बताइए.
इस पर वशिष्ठ जी कहने लगे: शनि के रोहिणी नक्षत्र में में भेदन होने से प्रजाजन सुखी कैसे रह सकते हें. इस योग के दुष्प्रभाव से तो ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी रक्षा करने में असमर्थ हैं,वशिष्ठ जी के वचन सुनकर राजा सोचने लगे कि यदि वे इस संकट की घड़ी को न टाल सके तो उन्हें कायर कहा जाएगा. अतः राजा विचार करके साहस बटोरकर दिव्य धनुष तथा दिव्य आयुधों से युक्त होकर अपने रथ को तेज गति से चलाते हुए चन्द्रमा से भी 3 लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल में ले गए,मणियों तथा रत्नों से सुशोभित स्वर्ण-निर्मित रथ में बैठे हुए महाबली राजा ने रोहिणी के पीछे आकर रथ को रोक दिया.
शनि देव को रोहिणी नक्षत्र मे प्रवेश तथा दशरथ जी से सामना
शनि को कृत्तिका नक्षत्र के पश्चात् रोहिनी नक्षत्र में प्रवेश का इच्छुक देखकर राजा दशरथ बाण युक्त धनुष कानों तक खींचकर भृकुटियां तानकर शनि के सामने डटकर खड़े हो गए.
अपने सामने देव-असुरों के संहारक अस्त्रों से युक्त दशरथ को खड़ा देखकर शनि थोड़ा डर गए और हंसते हुए राजा से कहने लगे: हे राजेन्द्र! तुम्हारे जैसा पुरुषार्थ मैंने किसी में नहीं देखा, क्योंकि देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और सर्प जाति के जीव मेरे देखने मात्र से ही भय-ग्रस्त हो जाते हैं. हे राजेंद्र! मैं तुम्हारी तपस्या और पुरुषार्थ से अत्यन्त प्रसन्न हूँ. अतः हे रघुनन्दन! जो तुम्हारी इच्छा हो वर मांग लो, मैं तुम्हें दूंगा॥
राजा दशरथ ने कहा: (दशरथ उवाच)
हे सूर्य-पुत्र शनि-देव! यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मैं एक ही वर मांगता हूँ कि जब तक नदियां, सागर, चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी इस संसार में है, तब तक आप रोहिणी शकट भेदन कदापि न करें. मैं केवल यही वर मांगता हूँ और मेरी कोई इच्छा नहीं है.
ऐसा वर माँगने पर शनि ने एवमस्तु कहकर वर दे दिया. इस प्रकार शनि से वर प्राप्त करके राजा दशरथ अपने को धन्य समझने लगे.
शनि देव बोले: मैं तुमसे बहुत ही प्रसन्न हूँ, तुम और भी वर मांग लो. तब राजा दशरथ प्रसन्न होकर शनि देव से दूसरा वर मांगा.
शनि देव कहने लगे: हे दशरथ तुम निर्भय रहो. 12 वर्ष तक तुम्हारे राज्य में कोई भी अकाल नहीं पड़ेगा. तुम्हारी यश-कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी. ऐसा वर पाकर राजा प्रसन्न होकर धनुष-बाण रथ में रखकर सरस्वती देवी तथा गणपति का ध्यान करके शनि देव की स्तुति इस प्रकार करने लगे.
*परम पवित्र घोर संकट नाशक दशरथकृत शनि स्तोत्र*
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च.
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ..
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च.
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते..
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:.
नमो दीर्घायशुष्काय कालदष्ट्र नमोऽस्तुते..
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम:.
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने..
नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुखायनमोऽस्तुते.
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे भयदाय च..
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते.
नमो मन्दगते तुभ्यं निरिस्त्रणाय नमोऽस्तुते..
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च.
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:..
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज सूनवे.
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्..
देवासुरमनुष्याश्च सिद्घविद्याधरोरगा:.
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशंयान्ति समूलत:..
प्रसाद कुरु मे देव वाराहोऽहमुपागत.
एवं स्तुतस्तद सौरिग्र्रहराजो महाबल:
इति श्री दशरथ कृत शनि स्त्रोत्र
हिंदी अनुवाद
दशरथ शनि स्तोत्र के माध्यम से प्रार्थना की: (दशरथ कृत शनि स्तोत्र)
जिनके शरीर का रंग भगवान शंकर के समान कृष्ण तथा नीला है उन शनि देव को मेरा नमस्कार है. इस जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप शनैश्चर को पुनः पुनः नमस्कार है॥
जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है. जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट तथा भयानक आकार वाले शनि देव को नमस्कार है॥
जिनके शरीर दीर्घ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु जर्जर शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार नमस्कार है॥
हे शनि देव! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है
सूर्यनन्दन, भास्कर-पुत्र, अभय देने वाले देवता, वलीमूख आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, ऐसे शनिदेव को प्रणाम है,आपकी दृष्टि अधोमुखी है आप संवर्तक, मन्दगति से चलने वाले तथा जिसका प्रतीक तलवार के समान है, ऐसे शनिदेव को पुनः-पुनः नमस्कार है,आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं. आपको सर्वदा सर्वदा नमस्कार है॥
जसके नेत्र ही ज्ञान है, काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है. आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण क्षीण लेते हैं वैसे शनिदेव को नमस्कार ॥
देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते ऐसे शनिदेव को प्रणाम॥
आप मुझ पर प्रसन्न होइए. मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ॥ राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले-
उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं भी अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ. रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा॥
दशरथ उवाच-
प्रसन्नो यदि मे सौरे !
वरं देहि ममेप्सितम् .
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष !
पीडा देया न कस्यचित् ॥
अर्थात प्रभु! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें. बस यही मेरा प्रिय वर है॥
शनि देव ने कहा:हे राजन्! वैसे इस प्रकार का वरदान मैं किसी को नहीं देता हूँ, परन्तु संतुष्ट होने के कारण रघुनन्दन मैं तुम्हे दे रहा हूँ,हे दशरथ! तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो भी मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि के कारण कोई बाधा नहीं होगी. जिनके महादशा या अंतर्दशा में, गोचर में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा.
वर्तमान काल निसंदेह रूप से शनिदेव का ही प्रकोप है, फरवरी मे शनिदेव ने सूर्य के नक्षत्र के बाद श्रवण मे प्रवेश किया जिसके भारत सहित पूरा विश्व महामारी, युद्ध, आपदा से ग्रसित हो रहा है,इसलिए जो भी व्यक्ति इस संकट से मुक्त होना चाहता है उसे स्वयं या किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से ये पाठ करना या करवाना चाहिए, वे निश्चित रूप से लाभान्वित होंगे, लेकिन वर्तमान काल मे श्रद्धा के अभाव मे इसका होना थोड़ा मुश्किल लगता है, फिर भी करना तो चाहिए.
*पंडित चंद्रशेखर नेमा "हिमांशु
983280184,7000460931
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