मायावती की बसपा में टूट या फिर बगावत कोई नई बात नहीं है। पार्टी के गठन 14 अप्रैल 1984 से लेकर अब तक इन 37 सालों में बसपा में टूट-फूट होती रही है। बसपा में इस बार की बगावत मिशन-2022 में परेशानी का सबब न बन जाए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। वजह, बसपा से एक-एक कर कैडर के नेताओं का अलग होना उसके लिए चिंता वाली बात है। एक समय भारी-भरकम नेताओं से भरी यह टीम आज खाली होती दिख रही है। आज बसपा के पास मायावती के बाद दूसरी श्रेणी के नेताओं का टोटा है।
बसपा वर्ष 2017 के चुनाव में 19 सीटें जीती थीं। उसकी सूची में 18 विधायकों के नाम हैं। इन विधायकों में पांच असलम अली, मुख्तार अंसारी, मो. मुजतबा सिद्दीकी, मो. असीम रायनी और शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली अल्पसंख्यक थे। आगामी यूपी विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा के बीच अल्पसंख्यकों को अपने पाले में लाने को लेकर होड़ मचना लाजि़मी है। लोकसभा चुनाव-2019 में गठबंधन करने वाली सपा-बसपा में नतीजे आने के बाद अंदरखाने परस्पर सवाल उठते रहे हैं कि मुस्लिम मतदाता किसके साथ गया? ऐसे में ताजा घटनाक्रम में बसपा से एक साथ तीन अल्पसंख्यक विधायकों असलम राइनी, असलम अली व मुजतबा सिद्दीकी का सपा खेमे की ओर छिटकना अल्पसंख्यक मतदाताओं में वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए एक अलग संदेश दे सकता है, जिसका पार्टी पर असर पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।
एक समय ऐसा था कि बसपा में हर जाति के बड़े चेहरे थे। सोनेलाल पटेल, आरके चौधरी, इंद्रजीत सरोज, आरके चौधरी, स्वामी प्रसाद, मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, धर्मसिंह सैनी। ये वे नाम हैं जिन्हें बसपा के नाम से पहचाना जाता था। समय बदला, परिस्थितियां बदली, कोई इधर गया तो कोई उधर गया। बड़े कुर्मी नेता लालजी वर्मा और राजभरों के बड़े नेता रामअचल राजभर भी आजकल बसपा से निष्कासित चल रहे हैं। बसपा सूत्रों की मानें तो पार्टी के कुछ नेता विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दूसरे दलों का दामन थाम सकते हैं। इसमें एक महिला व पुरुष विधायक भाजपा के संपर्क में बताए जा रहे हैं। कई राज्यों के प्रभारी रह चुके एक पिछड़ी जाति के नेता भी इन दिनों उपेक्षित चल रहे हैं। वह भी नए ठौर की तलाश में बताए जाते हैं।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-कोरोना किट घोटाले को लेकर पंजाब सरकार के खिलाफ अकाली-बसपा का प्रदर्शन, हिरासत में लिए गए सुखबीर बादल
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