प्रदीप द्विवेदी. सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को मीडिया के एक सेक्शन में कम्युनल टोन में रिपोर्टिंग को लेकर नाराजगी व्यक्त की और कहा कि- इस तरह की रिपोर्ट्स से देश का नाम खराब होता है.
खबर है कि अदालत ने पिछले साल दिल्ली में तबलीगी जमात की गैदरिंग को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की जिसमें चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि- समस्या यह है कि मीडिया का एक सेक्शन देश में हर एक घटना को कम्युनल एंगल से दिखा रहा है.
खबरों की माने तो सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर चलने वाली फेक न्यूज को लेकर भी चिंता व्यक्त की, तो वेब पोर्टल की जवाबदेही पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया और कहा कि- वेब पोर्टल पर किसी का नियंत्रण नहीं है.
सोशल मीडिया को लेकर यह कहना था कि- ट्विटर, फेसबुक, यूट्यूब आदि जजों को भी जवाब नहीं देते और बगैर किसी जिम्मेदारी के विभिन्न संस्थानों के खिलाफ लिखते रहते हैं, फर्जी खबरों को लेकर कोई नियंत्रण नहीं है. आप पाएंगे कि कैसे फर्जी खबरें खुलेआम सर्कुलेट हो रही हैं?
इतना ही नहीं, जस्टिस रमना का कहना है कि- लोगों के लिए तो भूल जाओ, वे विभिन्न संस्थान और जजों के लिए भी कुछ भी मनमाना लिखते रहते हैं, जबकि मैंने कभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म की ओर से कार्यवाही होते नहीं देखी, वो जवाबदेह नहीं हैं, वो कहते हैं कि ये हमारा अधिकार है, वे केवल शक्तिशाली लोगों को ही जवाब देते हैं!
पल-पल इंडिया ने वर्ष 2018 में- क्या सारे कायदे-कानून प्रेस के लिए ही हैं? में लिखा था कि....
सारी दुनिया को हक दिलाने में सबसे आगे रहने वाली प्रेस... प्रिंट मीडिया, शुरुआत से लेकर अब तक, इसके लिए तब से बने कानून-कायदों के दायरे में ही चल रही है और अपने हक के लिए कुछ नहीं कर पा रही है!
आजादी के दौर में अंग्रेजों को सबसे बड़ा खतरा प्रिंट मीडिया से ही था क्योंकि तब अकेली प्रेस ही थी जो काफी संख्या में कागज छाप कर अपनी बात का प्रचार-प्रसार कर सकती थी और इसीलिए प्रिंटिंग प्रेस तथा अखबार के लिए घोषणा पत्र देना होता था. अखबार छापने के लिए प्रेस रजिस्ट्रार से स्वीकृति लेनी होती थी, जो व्यवस्था अब तक जारी है! आजादी के पहले तो ऐसा भी समय था जब अखबार पढ़ने के जुर्म में, बांसवाड़ा के पहले प्रधानमंत्री और मुंबई, उदयपुर एवं बांसवाड़ा से अखबार प्रकाशित करनेवाले, स्वतंत्रता सैनानी भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी को सजा मिली थी!
सातवें दशक तक मीडिया के नाम पर प्रिंट मीडिया... अखबार था और सरकारी नियंत्रणवाली आकाशवाणी थी. बाद में प्रिंटिंग के नए-नए तरीके आते गए लेकिन उन पर कोई कानून नहीं लगा. साइक्लोस्टाइल, स्क्रीन प्रिंटिंग, कंप्यूटर प्रिंटिंग से लेकर फोटोकॉपी तक में हजारों की संख्या में कागज छापने की क्षमता होने के बावजूद ये प्रेस के कानून-कायदों से मुक्त रहे!
इलैक्ट्रानिक मीडिया आने के बाद कुछ भी दिखाने की आजादी टीवी को मिल गई, लेकिन प्रिंट मीडिया अपने कानून-कायदे के घेरे में ही खड़ा रहा! व्हॉट्सएप, फेसबुक जैसे प्लेटफार्म ने तो सार्वजनिक तौर पर अपनी बात कहने की सारी मर्यादाएं ही खत्म कर दी हैं!
यहां कुछ भी कहने की आजादी है, न कोई कानून और न कोई स्वीकृति चाहिए? बगैर सबूत के किसी के भी खिलाफ जो मर्जी आए प्रकाशित कर सकते हैं? यही वजह है कि व्हाट्सएप, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के आने के बाद अफवाहों और समाचारों का फर्क ही खत्म होता जा रहा है!
हजारों लोगों तक पहुंचने वाले अखबार को छापने के लिए घोषणा पत्र भरना पड़ता है, लेकिन लाखों लोगों तक पहुंचने वाली व्हॉट्सएप, फेसबुक आदि पर जानकारी के लिए किसी की स्वीकृति नहीं चाहिए, क्यों?
अब समय आ गया है प्रेस के लिए बने कानून-कायदों और व्यवस्थाओं की समीक्षा का... या तो सारे मीडिया के लिए एक जैसे कानून बनें या सब को एक जैसी आजादी मिले... वरना पुराने कानून-कायदों और व्यवस्थाओं में कैद प्रिंट मीडिया अपना वजूद खो देगा!
लेकिन.... देश के प्रमुख पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने ट्वीट किया- मि लार्ड….
ज़्यादा सांप्रदायिक… ज़्यादा ग़ैरज़िम्मेदार… ज़्यादा फेक न्यूज़ …
मेनस्ट्रीम मीडिया में है यहाँ जो न्यूज़ चैनल चलाते हैं वहीं रेगुलेटरी बॉडी भी चलाते है !
https://twitter.com/ppbajpai/status/1433644673562673157/photo/1
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-मि लार्ड….
— punya prasun bajpai (@ppbajpai) September 3, 2021
ज़्यादा सांप्रदायिक…
ज़्यादा ग़ैरज़िम्मेदार…
ज़्यादा फेक न्यूज़ …
मेनस्ट्रीम मीडिया में है यहाँ जो न्यूज़ चैनल चलाते हैं वहीं रागुलेटरी बॉडी भी चलाते है । pic.twitter.com/A7boytsXTX
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