नई दुनिया. भारत में लंबी अवधि के औसत (LPA) (एलपीए) के 99% की सामान्य वर्षा दर्ज की जाने के साथ, चार महीने तक चलने वाला दक्षिण-पश्चिम मॉनसून 2021 आधिकारिक तौर पर समाप्त हो गया है. 1 जून से 30 सितंबर तक पूरे मौसम के लिए देश भर में संचयी वर्षा 880.6 मिमी की सामान्य बारिश के मुक़ाबले 874.6 मिमी पर दर्ज की गई. जबकि ऐसा लगता है कि देश ने साल के अपने वर्षा लक्ष्य को पूरा कर लिया है, मगर मानसून की यात्रा काफ़ी असामान्य रही है.
असाधारण रूप से कम से लेकर असाधारण रूप से उच्च वर्षा तक, और पारंपरिक रूप से वर्षा आधारित क्षेत्रों में शुष्क मौसम और ग़ैर वर्षा आधारित क्षेत्रों में बारिश के साथ, 2021 का मानसून चरम सीमाओं का मौसम रहा है. हम भले ही लक्ष्य के आंकड़े तक पहुंच गए हों, लेकिन ऐसे कई कारक हैं जो मानसून के पैटर्न पर जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष प्रभाव को दर्शाते हैं. इस मौसम में कुछ अनियमित और विषम पैटर्न देखे गए.
• जुलाई और अगस्त के मुख्य महीनों में एक साथ 4 कम दाब वाले क्षेत्र दर्ज किए गए, जबकि अकेले सितंबर में ही 5 कम दाब वाले क्षेत्र देखे गए
• मानसून के अंत में देरी ने इस मौसम में हैट्रिक बनाई
• चक्रवात गुलाब, सितंबर में बंगाल की खाड़ी में सदी का तीसरा चक्रवात
• कम वर्षा वाले क्षेत्रों का चतुर्भुज: केरल, गुजरात, ओडिशा और पूर्वोत्तर भारत
• अगस्त: 24% की कमी के साथ, 1901 के बाद से यह छठा सबसे शुष्क अगस्त था और 2009 के बाद पहला
• बंगाल की खाड़ी में मॉनसून के कम दाब वाले क्षेत्रों की संख्या कम रही लेकिन अंतर्देशीय में अधिक
• भारी बारिश के दिनों में बढ़ोतरी हुई है और सूखे की अवधि भी बढ़ गई है
2021 में मानसून का मौसम एक रोलर कोस्टर की सवारी जैसा रहा है. अप्रत्याशितता मौसम की भविष्यवाणी के लिए एक बढ़ती हुई चुनौती बना रही है और मौसम विज्ञानियों का मानना है कि बदलते मौसम की गतिशीलता के बीच ऐसा ही क़ायम रहेगा.
मानसून 2021 को चरम सीमाओं का मौसम कहना ग़लत नहीं होगा. देश भर में निहायत कम वर्षा से लेकर अत्यधिक अधिशेष वर्षा तक. पश्चिम मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, और महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्रों जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्र सभी अधिशेष बन गए हैं, जबकि केरल, ओडिशा और देश के उत्तर-पूर्वी इलाकों जैसे बारिश वाले इलाकों ने अपने औसत वर्षा कोटा को पूरा करने के लिए भी संघर्ष किया.
काउंसिल फॉर एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (CEEW) (सीईईडब्ल्यू) के एक विश्लेषण के अनुसार, 75% से अधिक भारतीय ज़िले चरम जलवायु घटनाओं की चपेट में हैं. 40% से अधिक ने जलवायु संबंधी व्यवधानों का अनुभव किया है जैसे कि बाढ़-प्रवण होने से सूखा-प्रवण होने या इसका उल्टा होने की ओर परिवर्तन.
दक्षिण पश्चिम मानसून 2021 लंबी अवधि के औसत (LPA) के 99% की सामान्य वर्षा के साथ समाप्त हुआ है. वर्षा वितरण पूरी तरह से अनियमित रहा है. इस पैटर्न ने एक बार फिर भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की पुष्टि की है. हम आपके लिए इस मौसम में अनियमित मानसून पैटर्न की एक संक्षिप्त सूची लेकर आए हैं.
मॉनसून को उसकी सामान्य स्थिति के उत्तर में बनाए रखने वाली मॉनसून मौसम प्रणालियों की कमी, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के पहाड़ी राज्यों और पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे हिमालय की तलहटी में मूसलाधार बारिश लाई. साथ ही, ये मानसून प्रणालियाँ पश्चिमी तट के बराबर अर्ध-स्थायी अपतटीय ट्रफ़ (गर्त) को सक्रिय करती रहती हैं. हालांकि, इन मौसम प्रणालियों के अभाव में ट्रफ़ कमजोर रहा. हिंद महासागर डायपोल (IOD) भी अधिकांश महीने के दौरान नकारात्मक रहा.
निम्नलिखित छवि मौसम के दौरान बनने वाले निम्न दाब के क्षेत्रों की संख्या को दर्शाता है.
“कुछ दिनों को छोड़कर, देश भर में दैनिक आधार पर संचयी वर्षा की कमी 30%-40% रही है. 4-25 अगस्त से होने वाले लंबे समय तक पड़ने वाली शुष्कता ने देश को सूखे जैसी स्थिति की ओर धकेल दिया था. आमतौर पर, हम महीने के दौरान चार निम्न दाब वाले क्षेत्र देखते हैं, लेकिन 2021 में उनमें से केवल दो ही देखे गए और वो भी कमज़ोर थे. इसके अलावा, प्रशांत महासागर में आंधी की गतिविधि भी कम थी, जिसके अवशेष आमतौर पर बंगाल की खाड़ी में यात्रा करते हैं और इससे ताक़तवर बनते करते हैं,” जी.पी. शर्मा, अध्यक्ष- मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, स्काईमेट वेदर ने कहा.
अगस्त में कम वर्षा के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख कारक निम्नलिखित है
“सितंबर के महीने ने उम्मीदों से परे प्रदर्शन किया है और इस तरह का रिबाउंड काफ़ी दुर्लभ है. अगस्त में अत्यधिक विफलता से लेकर सितंबर में अत्यधिक रिकवरी तक - यह किसी चमत्कार से कम नहीं है. यह महीना अपने आप में देश भर में बारिश को 'सामान्य से कम' से 'सामान्य' श्रेणी में लाने में सक्षम रहा. ढलते मानसून को बचाने के लिए पहली बार मिलकर संरेखित होने वाले महासागरीय मापदंडों IOD, और मैडेन जूलियन ऑसिलेशन (MJO) और उभरते ला नीना को श्रेय दिया जाना है. इन सभी स्थितियों की वजह से बैक-टू-बैक मॉनसून कम दाब वाले क्षेत्र बने,” जी.पी. शर्मा ने कहा.
इसके अलावा, गर्मियों में आर्कटिक समुद्री-बर्फ की क्षति की वजह से भी भी मौसम के अंत की तरफ अत्यधिक वर्षा हुई है. CMNS (सीएमएनएस)-एटमॉस्फेरिक एंड ओशनिक साइंस के एक पृथ्वी प्रणाली वैज्ञानिक, प्रोफेसर रघु मुर्तुगुड्डे के अनुसार, "गर्मियों के दौरान आर्कटिक में कम समुद्री-बर्फ, विशेष रूप से कारा सागर के ऊपर, से पश्चिमी यूरोप और पूर्वोत्तर चीन पर उच्च समुद्र-स्तर दबाव पैदा करती है, जो ग्रहों की लहरों को उनके पूर्व की ओर प्रक्षेपवक्र के बजाय दक्षिण-पूर्व की ओर ले जाती है. और ये लहरें मौसम के अंत की तरफ भारत में प्रवेश करके ऊपरी वायुमंडल में परिसंचरण संबंधी विसंगतियां पैदा करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप सितंबर में भारी वर्षा होती है. यह अभिसरण हवा गर्म अरब सागर पर फ़ीड करने और धीर साड़ी नमी लाने में स
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-बदला मौसम का मिजाज: कई राज्यों में भारी बारिश का अलर्ट जारी
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