जन्म कुंडली में सिर्फ विंशोत्तरी दशा ही महत्वपूर्ण क्यों?

जन्म कुंडली में सिर्फ विंशोत्तरी दशा ही महत्वपूर्ण क्यों?

प्रेषित समय :21:27:44 PM / Thu, Feb 23rd, 2023

महर्षि पाराशर जी को श्रद्घा नमन के उपरान्त यह चर्चा करते हैं कि ज्योतिष शास्त्रों में यद्यपि अनेक महादशाओं के नाम व प्रयोग विधि वर्णित है फिर भी महादशाओं का नाम आते ही हम सब सीधे सीधे  विंशोत्तरी  दशा से गणना शुरु करते दिखाई देते हैं. क्या ऐसा इसलिए कि  पुस्तकों में उदाहरण स्वरूप सिर्फ विंशोत्तरी का विभाजन करना व गणना के बाद फल कथन का वर्णन मिलता है या महज एक सुविधाजनक प्रवृत्ति वश? यद्यपि हमें विंशोत्तरी का प्रयोग तभी करना चाहिए जब यह पता लगाना मुश्किल प्रतीत हो कि इस जन्म पत्री पर कौन सी महादशा का प्रयोग किया जाए.

‘वृहत्त-पाराशर होराशास्त्र में 42 प्रकार की दशाओं का वर्णन व नामावली बताई गयी है. कुछ जन्म पत्रियों में जन्मांक देखकर ही पता चल जाता है कि अमुक महादशा का प्रयोग करना चाहिए फिर भी आदतवश विंशोत्तरी की गणना ही को (खासकर कम्प्यूटर द्वारा बनी जन्मपत्री में) विभाजन में प्रयोग लाया जाता है. क्या यह उचित है?
ज्यादातर ‘दशा पद्घति’ नक्षत्र नियम पर आधारित है. जिसमें 27 नक्षत्रों के विभाजन से समय गणना की विधि प्रचलित है. दशा पद्घति में नक्षत्र गणना के हिसाब से वर्ष के दिनों की संख्या 365 होती ही नहीं?  यदि समय गणना हम ‘सौर मास’ के हिसाब से भी करें तो भी दिनों की संख्या 360 ही होती है. फिर हर वर्ष के हिसाब से 5 दिन का समय गणना  में कुछ ही वर्षों में बड़ा अन्तराल आ जाता है. इसका अर्थ है कि हमारे ऋषियों ने समय की गणना का सिद्घान्त ‘‘सौर सिद्घान्त’’ तो प्रतिपादित किया ही है कुछ अन्तर के साथ अधिक मास या मल मास का प्रावधान कर हर चार वर्षो बाद समय को पुर्ने स्थापित किया है. वर्ण के दिनों की संख्या का आंकलन आज भी कहीं न कहीं कमी का या अनुपलब्धता का सूचक है. क्योंकि कुछ नियमों में समय की गणना आज भी नक्षत्र के हिसाब से (27 दिन का माह) ही मानते व लगाते है, जिसे ‘चन्द्र मास’ भी कहते हैं.
कुछ दशा विशेष के नाम व उनको किस प्रकार की जन्म पत्री पर लगाना चाहिए इस ग्रन्थ में स्पष्टï लिखा है. सिर्फ समय का विभाजन विंशोत्तरी के समान कहा गया है न कि ग्रहों की पुनरावृत्ति विंशोत्तरी के समान का वर्णन है. कुछ उदाहरण लेकर आगे स्पष्टï करते हैं.
[1] द्वादशोत्तरी दशा : यह दशाक्रम कुल 112 वर्ष का होता है. इसके लिए स्पष्टï लिखा है कि जिस जन्म पत्री में शुक्र के नवांश में जन्म हो उस पत्रिका में ‘द्वादशोत्तरी दशा’ का प्रयोग करें इसमें नौ ग्रहों की दशा के स्थान पर शुक्र ग्रह को छोडक़र बाकी ग्रहों की 7 वर्ष से शुरु कर 2-2 वर्ष आगे बढाकर वर्ष संख्या लें. ग्रहों को क्रम सू. गु. के. बु. रा. मं. श. चं. इस प्रकार है. हाँ इतनी प्रक्रिया  के बाद व निश्चय के बाद कि द्वादशोत्तरी ही लगानी है. समय गणना अवश्य विंशोत्तरी के समान कर सकते हैं.
[2] अष्टोत्तरी दशा (108 वर्ष) : यहाँ केतु को शामिल नहीं किया गया है तथा इसमें दशा वर्ष सू.-6, च.-15, बु.-17, श.-10, गु.-19, रा.-12, शु., 21 वर्ष है. इस दशा को किस पर लागू करना है- लग्रेश से राहु लग्र को छोडक़र केन्द्र या त्रिकोण में हो तो अष्टïोत्तरी ग्रहण करना.
योगिनी दशा की गणना किए बिना कोई भी ज्योतिषी जातक के भविष्य के बारे सटीक भविष्य संकेत कर ही नहीं सकता. योगिनी दशा के बारे में मान्यता है कि ये दशाएं स्वयं भगवान शिव के द्वारा बनाई हुई हैं एवं जातक के जीवन को प्रभावित करती हैं. ज्योतिष शास्त्र में योगिनी दशाओं का महत्वपूर्ण स्थान है.
योगिनी दशाओं के प्रकार-
योगिनी दशाएं 8 प्रकार की होती हैं एवं इनके भी अधिपति ग्रह होते हैं, ये हैं-
1. मंगला- चन्द्र
2. पिंगला- सूर्य
3. धान्या- गुरु
4. भ्रामरी- मंगल
5. भद्रिका- बुध
6. उल्का- शनि
7. सिद्धा- शुक्र
8. संकटा- राहु
योगिनी दशाओं के भोग्यकाल वर्ष :-
विंशोत्तरी दशाओं के समान ही योगिनी दशाओं के भी निश्चित भोग्य कालखंड होते हैं. आइए जानते हैं कि किस योगिनी की दशा कितने वर्षों की होती है?
1. मंगला - 1 वर्ष, 2. पिंगला - 2 वर्ष, 3. धान्या - 3 वर्ष
4. भ्रामरी - 4 वर्ष, 5. भद्रिका - 5 वर्ष, 6. उल्का - 6 वर्ष
7. सिद्धा - 7 वर्ष, 8. संकटा - 8 वर्ष
कौन सी होती है शुभ योगिनी?
विंशोत्तरी दशा में जहां शुभाशुभ समय का निर्णय केवल महादशानाथ व अंतरदशानाथ की जन्म कुंडली में स्थिति के आधार पर किया जाता है, वहीं योगिनी दशा में इसके अतिरिक्त प्रत्येक योगिनी का एक निश्चित फल भी होता है जिसके आधार पर जातक को परिणाम प्राप्त होते हैं.
> शुभ योगिनी :- मंगला, धान्या, भद्रिका, सिद्धा
< अशुभ योगिनी :- पिंगला, भ्रामरी, उल्का, संकटा
.
विंशोत्तरी दशा 
ज्योतिषशास्त्र में परिणाम की प्राप्ति होने का समय जानने के लिए जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है उनमें से एक विधि है विंशोत्तरी दशा. विंशोत्तरी दशा का जनक महर्षि पाराशर को माना जाता है. पराशर मुनि द्वारा बनाई गयी विंशोत्तरी विधि चन्द्र नक्षत्र पर आधारित है. इस विधि से की गई भविष्यवाणी कामोवेश सटीक मानी जाती है, इसलिए ज्योतिषशास्त्री वर्षों से इस विधि पर भरोसा करके फलकथन करते आ रहे हैं. दक्षिण भारत में ज्योतिषी विशोत्तरी के बदले अष्टोत्तरी विधि का भी प्रयोग कर रहे हैं परंतु, विशोत्तरी पद्धति ज्यादा लोकप्रिय एवं मान्य है.
दशा का मतलब होता है “समय की अवधि”, जिसे एक निश्चित ग्रह द्वारा शासित किया जाता है. यह विधि चंद्रमा नक्षत्र पर आधारित है जिसकी वजह से इसकी भविष्यवाणी को सटीक माना जाता है. विंशोत्तरी दशा को "महादशा" के नाम से भी जाना जाता है.
विंशोत्तरी दशा को क्रम अनुसार ऊपर वर्णित किया गया है. उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति क्रितिका नक्षत्र में पैदा हुआ है तो इसका मतलब है कि उसके जन्म कुंडली में चंद्रमा को क्रितिका नक्षत्र में रखा गया है, जिसकी वजह से उसे सबसे पहले सूर्य ग्रह की महादाशा मिलेगी, इसके बाद चंद्रमा, मंगल, राहु और अन्य होंगे. सूर्य के तुरंत बाद, चंद्रमा की दशा होगी, न कि केतु या शुक्र या फिर किसी अन्य ग्रह की.
विंशोत्तरी दशा में फल निर्धारण :-
विंशोत्तरी दशा में ग्रहों का फल ज्ञात करने के सम्बन्ध में महर्षि पाराशर एवं वारहमिहिर ने एक नियम यह बताया है कि लग्न के अनुरूप कुछ ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ होते हैं जैसे मेष लग्न के लिए शनि मंगल, वृष लग्न के लिए शनि, कन्या लग्न के लिए बुध तथा कर्क लग्न के लिए मंगल I 
लग्न के लिए नैसर्गिक रूप से ग्रह शुभ होने के बावजूद यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि कुण्डली में वह ग्रह कितना बलवान है. अगर ग्रह कमज़ोर अथवा नीच का होगा तो वह शुभ होते हुए भी अपना शुभ फल नहीं दे पाएगा. केन्द्र स्थानों को ज्योतिष में काफी महत्व दिया गया है. आमतौर पर यह माना जाता है कि पाप ग्रह शनि, मंगल, सूर्य कष्टकारी होते हैं परंतु यदि यह केन्द्र भावों के स्वामी हों तो उनकी दशा-अन्तर्दशा में लाभ मिलता है. व्यक्ति के लिए इनकी दशा हर प्रकार से सुखकारी रहती है.
राहु / केतु भी शुभ फलदायी 
राहु या केतु केन्द्र में स्थित हो और त्रिकोणेश से सम्बन्ध बना रहे हो तो राजयोग बनाते है. इसी प्रकार राहु या केतु त्रिकोण में स्थित हो और केन्द्रेश से सम्बन्ध बना रहे हों तो भी राजयोग बनाते है. राहु या केतु केन्द्र, त्रिकोण के अलावा जन्म कुण्डली में किसी भी भाव में केन्द्रेश और त्रिकोणेश से सम्बन्ध बना रहे है शुभ फलदायी होते है. ये सम्बन्ध युति से, दृ्ष्टि से किसी भी प्रकार से बन सकते है.
पाप ग्रह शुभ युक्त या शुभ दृ्ष्ट होने पर शुभ 
नैसर्गिक पाप ग्रह ( सुर्य, शनि, मंगल, राहु ) यदि पाप भाव ( तृ्त्तीय, षष्ठ, अष्टम व द्वादश भाव ) में स्थित हों तो अपनी दशा में भाई बहन का स्नेह सहयोग, रोग ऋण का नाश, बाधा व कष्ट की समाप्ति तथा मान वैभव की वृ्द्धि दिया करते है.
इसी प्रकार पाप भाव या दुष्ट भाव (3,6,8,12 भाव ) के स्वामी कहीं भी बैठ कर यदि शुभ ग्रह या शुभ भावों के स्वामी से युक्त या दृ्ष्ट हों तो वह दुष्ट ग्रह भी अप्नी दशा या भुक्ति में रोग, पीडा़, भय , कष्ट से मुक्ति दिलाकर धन वैभव बढा़एंगे.
शुभ ग्रहों का दशा फल विचार 
प्राय: शुभ ग्रह सबसे पहले उस भाव के फल देते हैं जिस भाव में ये स्थित हैं. मध्य में ये जिस राशि में स्थित है उसके अनुसार फल देते है. अन्त में जिन ग्र्हों से दृ्ष्ट होते हैं उन दृ्ष्ट ग्रहों का फल भी देते है.
अशुभ ग्रहों का दशा फल विचार 
अशुभ ग्रह सबसे पहले राशि सम्बन्धी फल देगा जिस राशि में ये ग्रह स्थित है. उसके बाद उस भाव के कारकत्व सम्बन्धी फल देगा जिसमें ये पाप ग्रह स्थित है. अन्त में विभिन्न ग्रहों की इस दशा नाथ या अन्तर्दशा नाथ पर पड़ने वाली दृ्ष्टि के अनुसार फल मिलेगा.
उच्च ग्रह की दशा 
उच्च ग्रह की दशा में जातक को मान सम्मान तथा यश की प्राप्ति होती है.
नीच ग्रह की दशा 
नीच ग्रह की दशा में जातक को संघर्षों का सामना करना पड़ता है. परन्तु यदि ये नीच ग्रह तीसरे भाव, छठे भाव या एकादश भाव में स्थित हैं और इनका नीच भंग भी हो रहा है तो ये राजयोग देते है. इसे नीचभंग राजयोग कहते है.
वक्री ग्रह की दशा 
वक्री ग्रह जिन भावों में स्थित है और जिन भावों के स्वामी हैं उन भावों के कारकत्वों में कमी ला देते हैं. वक्री ग्रह बार-बार प्रयास कराते है. वक्री ग्रह की दशा में जातक के जीवन में उतार-चढाव काफी रहते है.
मंगल नीच 
कर्क राशि में मंगल को नीच माना जाता है. परंतु कर्क लग्न के लिये मंगल योगकारी ग्रह है. अपनी मेष राशि से चतुर्थ ( सुख भाव ) में होने से व वृ्श्चिक से भाग्य भाव में ( नवम भाव )होने से व्यापार , व्यवसाय तथा मान सम्मान की वृ्द्धि तथा भाग्योदय किया करता है. मंगल की दशा अन्तर्दशा में जातक लाभ और प्रतिष्ठा पाता है.
विंशोत्तरी महादशा--
ज्योतिष में दो प्रकार की दशा होती है अष्टोत्तरी और विंशोत्तरी अष्टोत्तरी दशा में जातक की आयु 108 वर्ष  मानी जाती है और विंशोत्तरी में जातक की आयु 120 वर्ष मानी गई है और वर्तमान में विंशोत्तरी महादशा का अधिक विचार किया जाता है विंशोत्तरी दशा में केवल 27 नक्षत्र मान्य है इसमें सूर्य से प्रारंभ करhके नौ ग्रह को मान्यता प्रदान की गई है तथा प्रत्येक ग्रह को एक साथ तीन नक्षत्र दिए गए हैं
इस प्रकार सूर्य की महादशा 7 वर्ष, चंद्र महादशा  10 वर्ष ,मंगल 7 वर्ष ,राहु 18 वर्ष ,गुरु 16 वर्ष ,शनि 19 वर्ष, बुध 17 वर्ष ,केतु7 वर्ष ,और शुक्र की महादशा 20 वर्ष की होती है I

Astro nirmal

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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