आखिर कब थमेंगी असुरक्षित मासूम बचपन की चीख़ें

पूरा पाकिस्तान एक जनाजे के बोझ के नीचे दबा है, कोई भी अकेली बच्ची इस देश में महफूज नही...मानवता के खिलाफ उठी इस वीडियो को भारत के हर चैनल ने प्रमुखता से कवर किया तो हर सोशल साइट में खूब शेयर भी हुई. पाकिस्तान न्यूज चैनल की एक एंकर ने, लाइव शो में अपनी बेटी को गोद में बिठाकर, लड़कियों की सुरक्षा के मुद्दे पर जो चिंता जताई, उसने एक बार फिर चाइल्ड अब्यूज का मामला गरमा दिया. 

पाकिस्तान के कसूर जिले में आठ साल की जैनब की लाश उनके घर से दो किलोमीटर दूर कूड़े के ढेर में मिली है. पुलिस का कहना है कि बच्ची का रेप करने के उसका बाद कत्ल किया गया. इस खौफनाक वारदात से पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी लोगों में बेहद नाराजगी देखी गई. छह लाख से अधिक सोशल मीडिया यूजर्स ने  जस्टिस फॉर जैनब लिखकर बच्चों के यौन शोषण की व्यापक समस्या पर गहरी चिंता जताते हुए अधिकारियों से कार्रवाई की मांग की. अधिकतर संदेशों में लोगों का भय और शोक नजर आया. दरअसल बच्चे हों या कोई महिलाएं, वे न तो पाकिस्तान में महफूज है और न ही भारत में. इन देशों में उनकी सुरक्षा की गारंटी न के बराबर है. घर-परिवार में जहां हिंसक और वहशियाना बरताव होता हो, वहां एक बेहतर समाज की कल्पना करना नामुमकिन भी है. बाहर भी वही है तो मासूम बचपन हो या व्यस्क महिला की सुरक्षा कौन करे.

महज चार दिन के भीतर हरियाणा में बलात्कार की तीन घटनाओं ने लोगों को स्तब्ध कर दिया. पानीपत, जींद और फरीदाबाद में हुई इन घटनाओं में दो लड़कियां नाबालिग थी. इससे पहले रोहतक, हिसार में हुई घटनाएं महिला सुरक्षा की पोल खोल देते है. हरियाणा हो या उत्तर प्रदेश, दिल्ली या कोई फिर और स्टेट हो, हर जगह औरत और बच्चों की सुरक्षा दांव पर लगी है. परिवार हो, पड़ोस हो, प्ले-स्कूल हो, ट्यूशन हो या फिर क्रेच...उनकी सुरक्षा को लेकर माता-पिता संदेह के घेरे में है. हाल ही में भारत सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वे में पाया गया कि देश के आधे से भी अधिक बच्चे कभी ना कभी यौन दुर्व्यवहार का शिकार हुए हैं. इसमें ज्यादा चिंता की बात यह है कि इनमें से केवल 3 फीसदी मामलों में ही शिकायत दर्ज की जाती है. शिकायत न दर्ज होना मामले को दबा देता है और इससे अपराध में बढ़ोत्तरी ही होती देखी गई है. यौन शोषण के मामले में अक्सर चुप्पी साधना ही विकल्प समझा जाता है. अब इसकी वजह धमकी है या समाज का डर, परिस्थिति पर निर्भर करता है.

बहुत ही मासूम और निर्दोष होता है बचपन. उसे किसी पर शक-संदेह करना नहीं आता. एक टाॅफी के नाम पर वह आपका हो जाता है. उसकी मासूम मुस्कुराहट किसी के मन के मैल को पढ़ना नहीं जानती. मजहब, जात-पात, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी से परे बचपन को राजनीति करनी नहीं आती. हर शक्ल में अपना जैसा चेहरा ढूंढने वाले ऐसे पाक साफ बचपन को कुचलने वाला आदमी किसी वहशी दंरिदे से कम नहीं. अफसोस कि ऐसे दंरिदे आज कहां किस रूप में बैठे है, कहना मुश्किल है. पानीपत की हालिया घटना है जिसमें मुंहबोले नाना-मामा ने लोहड़ी देने के बहाने उसके साथ दुराचार किया और फिर उसे जान से भी मार दिया. नोएडा के एक मदरसे में 8 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म की कोशिश की गई. शर्म की बात है कि हम जिस समाज में रहते है वहां की असलियत दरअसल कुछ और है.

सच तो ये है कि हम जैसे माता-पिता ये उनके साथ हुआ है की सोच या फिर अपने बच्चे से ज्यादा रिश्तेदार या पड़ोसी की बात पर यकीन कर जाने की सोच पर व्यवहार करते है. तो ये सोच गलत है. इसलिए एक बात पूरी तरह से दिल में बैठा ले कि ये उसका बच्चा था, उसके साथ हुआ और हमारे बच्चे या बच्ची के साथ ऐसा कुछ नहीं हो सकता, सोचना ही गलत है. ये बच्चा आपका भी हो सकता है कि सोच ही इस तरह के कुकर्म को होने से रोक सकती है. दूसरी ये सोच कि बच्चे को नुकसान कोई दुश्मन या कोई पराया पुरुष या महिला ही पहुंचा सकती है, निहायत बेतुकी सोच है. क्योंकि इस तरह की कई घटनाओं से यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि बच्चों को शिकार बनाने वालों में 92 प्रतिशत जिम्मेदार रिश्तेदार या दूर पास के जानने वाले होते हैं. एक तो बच्चे बेरोक टोक इनके पास आते-जाते है. दूसरे इन्हें मालूम होता है कि माता-पिता जल्दी बच्चे की बात पर यकीन नहीं करेगे. इस तरह की सोच भी ऐसे मामलों को बढ़ावा ही देती है. कोई माने या ना माने, कहे या न कहे, 95 प्रतिशत लोगों का बचपन कभी न कभी किसी न किसी बहाने से यौन शोषण का शिकार बना है. इनमें से अघिकांशतः कुछ डर से तो कुछ शर्म से अपनी तकलीफ का बयान उम्र भर नहीं कर पाते, तो कहीं मां-बाप की अनदेखी या व्यस्तता उन्हें उनके करीब जाने से रोकती है. और ये बात स्वंय माता-पिता से बेहतर कोई नही जानता.

एक नजर सरकार के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की ओर भी डालते है. जिस तेजी से इसका प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, क्या वाकई में उस तेजी से बेटियां बचाई भी जा रही है. आये दिन की इन घटनाओं से लगता तो नहीं. सरकार समझें कि बेटी बचेंगीं तो ही पढ़ेगी. अगर बेटी बचाने से मकसद सिर्फ भ्रूण हत्या को रोकने से है, तो जो जिंदा है, असुरक्षित माहौल में जीने को मजबूर है, उनका क्या? भय का आलम ये है कि अगर किसी मां का बच्चा थोड़ी देर के लिए भी आॅंख से ओझल होता है तो अनहोनी की आशंका से उसका दिल काॅंप उठता है. फिर बलात्कार जैसी घटनाएं तो पूरे परिवार की मनःस्थिति को बिगाड़ देती है. बेटे से ज्यादा जवान होती बेटी की सुरक्षा की चिंता मां-बाप को खाती है. लेकिन जब बचपन ही खतरे में पड़ जाये तो कहां जाये. बेटी बचाओ के अन्तर्गत भ्रूण रक्षा से आगे,  अस्तित्व रक्षा का भी संकल्प होना जरूरी है. सुरक्षा के लिए ऐप बना देने से या मोबाइल पर एक नंबर शुरू कर देने से सुरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता. फिर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध तो व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर करते है. उसमें लड़का है कि लड़की, ये मायने नहीं रखता. ऐसे में महज मनोवैज्ञानिक कारणों के निदान की तलाश जरूरी है. हालांकि एक सच ये भी है कि हर बात का ठीकरा सरकार पर भी नहीं फोड़ सकते. लेकिन सरकार स्कूल, क्रेच या ट्रेनिंग सेंटर को तो सख्त नियम-कानून के अंदर लाये जा सकते है. 

मुझे याद है दिल्ली में हुए निर्भया रेप कांड के बाद भारत में महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया. यहां तक कि 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा भी बना दिया. उस वक्त अपनी चुनावी सभाओं में मोदी ने ’एक्ट नहीं एक्शन’ और ’गुड गवर्नेंस’ का नारा भी दे दिया था. भाजपा जीत कर आ गई लेकिन महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा जस का तस रहा. उसके बाद की जो स्थिति है वह आंकड़ो में सामने है. 2015 में देश भर में बलात्कार के 34,000 से ज्यादा मामले सामने आए. 2016 में यह संख्या बढ़कर 34,600 के पार चली गई. ये संख्या तब है जबकि कईक मामले घर की चारदीवारी में ही दफन हो जाते है. समाज-शर्म की बेड़ियां थानों तक पहुंचने की हिम्मत नहीं दिखा पाती. जीडीपी ग्रोथ के मुकाबले यहां स्थिति में होता इजाफा देश की शर्मनाक स्थिति को दर्शाता है. एक्ट नहीं, एक्शन चाहिए  कहने वाले मोदी अब प्रधानमंत्री है. उनके सामने हजारों मसले हैै, लेकिन क्या महिलाओं की सुरक्षा का मसला किसी भी अन्य समस्या की तुलना में कम है. इस बिगड़ती मनोदशा का जिम्मेदार जो भी हो, उस पर लगाम लगाया जाना जरूरी है. जरा सोचिये उस मासूम बचपन की जो ऐसे हादसों में जान की बाजी तो जीत जाते है लेकिन मन की कुंठा से जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते. आखिर क्यों? तो इसका जबाब है एक अनाम कवि की ये पक्तियां......

बचपन से हर शख्स याद करना सिखाता रहा,

भूलते कैसे है ? बताया नही किसी ने.....

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