राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे की एक हालिया रिर्पोट का जिक्र करना चाहती हूं, जिसके अनुसार बेटियां जितना पढेगीं,जनसंख्या का बोझ देश पर उतना कम होगा. 2015-16 के विश्लेषण पर आधारित इंडिया स्पेंड की रिर्पोट के मुताबिक 12 साल या उससे ज्यादा पढ़ने वाली लड़कियों की, पहले बच्चे को जन्म देते समय, उम्र 24.7 होती है. जबकि कभी स्कूल न जाने वाली लड़कियां औसतन 20 साल की उम्र में मां बन जाती हैं. वहीं कोई लड़की 12 साल या उससे ज्यादा पढ़ती है तो वह औसतन 2.01 बच्चों को जन्म देती हैं. जबकि कभी स्कूल न जाने वाली लड़कियां औसतन 3.82 बच्चों की मां बनती है. एक अन्य रिर्पोट के मुताबिक देश के 33.6 फीसदी बच्चे किशोर लड़कियों की संतान होते हैं. अगर इन लड़कियों की उम्र बढ़ाई जाए तो 2050 तक देश की संभावित 1.7 अरब की आबादी में एक चौथाई की कमी आ सकती है. इस बारे में मैं पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की निदेशक पूनम मुतरेजा के कथन से, कि शिक्षा से बेहतर कोई गर्भनिरोधक नहीं, पूर्णतया सहमत हूं. दुनिया के कई देशों ने महिलाओं को शिक्षित करके ही अपने देश की जनसंख्या को नियंत्रित किया है.
ये तो रही एक सर्वे की रिर्पोट, जो एक सपने को हकीकत का जामा पहनाने की कोशिश कर रही है. इससे इतर एक कड़वी सच्चाई है जो ’सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे’ की रिर्पोट में है. इसकी 2014 की रिपोर्ट के अनुसार 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं. ’मानव विकास मंत्रालय’ ने भी 2013 में एक रिर्पोट जारी की थी जिसके अनुसार प्रति वर्ष पूरे देश में 5वीं तक आते-आते करीब 23 लाख छात्र-छात्राएं स्कूल छोड़ देते हैं. हो सकता है इन रिर्पोट में सुधार के नजरिये से, तब से कुछ फर्क आया हो. लेकिन ये फर्क आज भी बहुत बड़ा अंतर नहीं दिखायेगा. क्योंकि स्कूल छोड़ने के कारणों में फर्क नहीं आया.
ये वजहें दकियानूसी सोच का होना या बेटी-बेटा में अंतर समझना, विद्यालयों का दूर होना, लड़कियों के लिए स्कूलों में शौचालयों की सुविधा का ना होना या फिर असुरक्षा का भय... या कुछ भी हो सकता है, जो वैसे का वैसा ही है.
ये बड़े ही शर्म की बात है कि देश के 61 लाख बच्चे आज भी शिक्षा की पहुंच से दूर है. इसमें उत्तर प्रदेश की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है. तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद अभी 16 लाख बच्चे शिक्षा के कोसों दूर है. यह आंकड़े यूनिसेफ की वार्षिक रिपोर्ट द स्टेट ऑफ द वर्ल्डस चिल्ड्रेन के हैं, जिसकी रिपोर्ट के अनुसार स्कूल जाने वाले बच्चों में भी 59 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो ठीक से पढ़ भी नहीं पाते हैं. जिस देश में लडकियों की शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी से कहीं ज्यादा जोर उसकी घरेलू शिक्षा-दीक्षा और शादी-ब्याह पर दिया जाता हो, वहां देश के बेहतर भविष्य की उम्मीद रखना बेकार है. भारत में 22 लाख से भी ज्यादा लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है. और इस मामले में केरल को छोड़कर, जहां की साक्षरता दर 100 प्रतिशत है, बाकी राज्य अपवाद है.
आपको आश्चर्य होगा ये जानकर कि आर्थिक विकास के अपने मॉडल के लिए विश्व भर में सुर्खियाँ बटोरने वाला राज्य, गुजरात, लडकियों की शिक्षा के मामले में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है. गुजरात में 15 से 17 साल की 26.6 प्रतिशत लड़कियां किसी न किसी कारण से स्कूल छोड़ देती हैं. मतलब राज्य में 26.6 प्रतिशत लड़कियां 9वीं और 10वीं कक्षा तक भी नहीं पहुंच पाती हैं. ’सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे’ के सर्वे में शामिल 21 राज्यों में गुजरात लड़कियों की शिक्षा के मामले में 20 वें स्थान पर है. इस सर्वे के अनुसार 15 से 17 साल की स्कूल जाने वाली लड़कियों का राष्ट्रीय औसत छतीसगढ़ में 90.1 प्रतिशत, असम में 84.8 प्रतिशत, बिहार में 83.3 प्रतिशत, झारखंड में 84.1 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 79.2 प्रतिशत, यूपी में 79.4 प्रतिशत और उड़ीसा में 75.3 प्रतिशत है. ये वे लड़कियां है जो हाई स्कूल के पहले ही स्कूल छोड़ देती हैं. अगर 10 से 14 साल की लड़कियों की शिक्षा की छोड़ने की बात करें तो इसमें सबसे निचले पांच राज्यों में उत्तर प्रदेश भी आता है.
कर्नाटक में 30 प्रतिशत से भी अधिक लड़कियों का 18 वर्ष की आयु के पहले विवाह कर दिया जाता है. जबकि वहां की सरकार द्वारा कम उम्र में विवाह न किये जाने को लेकर कई तरह के जागरूक एवं प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रम चलाये जा रहे है.
लेकिन आज भी ऐसे कई ढाँचागत सामाजिक कारण है जो सरकार के जागरूक कार्यक्रमों और प्रोत्साहन भरी योजनाओं का मखौल उड़ा रहे है. इनमें से एक कारण स्कूल की भौगोलिक स्थिति का सही न होना, घर के निकट हाईस्कूल का न होना, कई मील पैदल स्कूल जाना आदि है. दूसरा कारण पारंपरिक प्रक्रिया है जो ग्रामीण इलाकों में अधिकांशत नजर आती है. बचपन से ही लड़कियों को, उच्च शिक्षा के लिए तो दूर की बात है, बेसिक ज्ञान देने के लिए ही प्रेरित करना ’बेकार की बात’ है. इसके बजाय उसे शादी के लिए तैयार किया जाता है. लड़की के 14-15 साल के होते ही उसका यौन शोषण का भय, उसकी सुरक्षा का अभाव और शादी कर देने का सामाजिक दबाव आदि भी लड़कियों के स्कूल छुड़वा देने और जल्द शादी कर दिए जाने के अन्य बड़े कारण हैं. गरीब तबकों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अल्पसंख्यक परिवारों की लड़कियां तो इस तरह के जोखिमों से ज्यादा घिरी पायी जाती है. इस तरह के वर्गों के लोगों की शिकायत पर पुलिस का दोस्ताना व्यवहार कैसा होता है, ये हम सब जानते है. फिर ऐसे मामले में अगर किसी रसूखदार का नाम आ गया तो पुलिस पीड़ित के घर झांकने भी नहीं आयेगी. ऐसी ही परिस्थिति से डर कर और सुरक्षा का कोई विकल्प न देखकर माता-पिता अपनी लड़कियों को घर पर ही रखना पसंद करते है या फिर जल्द से जल्द उसका विवाह कर देते हैं. कम उम्र में विवाह, एक के बाद एक बच्चे किसी भी लड़की का स्वास्थ्य और जीवन दोनों तबाह करने के लिए काफी है.
शिक्षा को लेकर सरकार के प्रयासों में भले कमी रही हो लेकिन सरकारी अभियानों से शिक्षा की स्थिति में सुधार आया है. खासतौर पर सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है. जरूरत बालिका शिक्षा को बढ़ाने और उन्हें उचित वातावरण और सुरक्षा का ’कमिटमेंट’ करने की भी है. हालांकि कई राज्यों ने यह सुनिश्चित करने के लिए प्रभावशाली कदम उठाए हैं कि बच्चे, विशेष रूप से लड़कियाँ, स्कूल जरूर जाए और अधिक से अधिक समय तक अपना पढ़ना जारी रखें. इसी के तहत सरकार आरक्षित वर्ग की छात्राओं के स्कूल ड्राप आउट को कम करने की पहल पर प्रयास कर रही है. दरअसल केन्द्र सरकार कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विदयालय को 12वीं तक विस्तार देने की तरफ काम कर रही है.
इस मुताल्लिक केन्द्र सरकार ने वित मंत्रालय को बजट सत्र में इस योजना के विस्तार को लेकर फंड मुहैया कराने की मांग की है. सरकार का ये प्रयास निश्चित तौर पर सराहनीय है. अभी तक आठवीं के बाद कक्षा न होने के कारण ड्राप आउट संख्या बढ़ जा रही है. 12वीं कक्षा तक शिक्षा की व्यवस्था हो जाने से इसमें बहुत कमी आएगी. लेकिन सिर्फ 100 बालिकाओं के इस विदयालय के लिए ’नम्बर ऑफ स्टूडेंट’ को बढ़ाने की मांग पर भी सरकार को काम करना होगा. सुरक्षा और शिक्षा की दृष्टि से कस्तूरबा आवासीय विदयालय श्रेष्ठ है. यहां ग्रामीण और गरीब बेटियों के लिए सुरक्षित वातावरण है तो अच्छे आचार-व्यवहार की सीख के साथ, खेलकूद एवं बेहतर शिक्षा की व्यवस्था है. सरकार की इस योजना के तहत निश्चित तौर पर हम आने वाले वर्षों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों को सच्चाई में बदल सकेगें जो कहती है कि बच्चियों के शिक्षित होने से आने वाली पीढ़ी उज्जवल ही नहीं होगी बल्कि आबादी को कंट्रोल करने में भी सक्षम होगी. या मुतरेजा के शब्दों में यूं कहें कि शिक्षा का पूर्ण ’डोज’ किसी ’गर्भनिरोधक’ से बेहतर काम करेगा.