भारत के विकास की एक और झलक देखने को मिली जबकि अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान ने भुखमरी पर अपनी हालिया रिर्पोट जारी की. आपको जानकर हैरानी होगी कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2017 में 119 देशों की सूची में भारत 100वें स्थान पर पहुंच गया है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में भारत का स्कोर 31.4 है जो कि गंभीर श्रेणी में आता है. वैश्विक भुमखरी सूचकांक 100 आधार बिंदुओं के पैमाने पर तैयार किया जाता है जिसमें शून्य सबसे अच्छा स्कोर तथा 100 सबसे खराब स्कोर माना जाता है. इस रिर्पोट के मुताबिक भारत इस सूची में अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे है. चीन 29वीं, नेपाल 72वीं, म्यांमार 77वीं, श्रीलंका 84वीं और बांग्लादेश 88वीं रैंकिंग में है. इस सूची में पाकिस्तान 108वीं और अफगानिस्तान 107वें नंबर पर है.
भूख को मापने का एक अंतर्राष्ट्रीय मानक है, बाडी मास इंडेक्स यानी बीएमआई. एक सामान्य बीएमआई के लिए अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्य सीमा 18.5 है. 17 से 18.4 की बीएमआई वाले को कुपोषित कहा जाता है और 16.0 से 16.9 के बीच वाले को गंभीर रूप से कुपोषित कहा जाता है. इसी तरह 16 से कम बीएमआई वाले को भुखमरी का शिकार कहा जाता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 35.6 फीसदी महिलाओं और 34.2 फीसदी पुरुषों का बीएमआई 18.5 से कम है.
2016 के वैश्विक सूचकांक में भारत का स्थान 97वां था जबकि वर्ष 2015 में 117 देशों में यह स्थान 80 वां था. यकीनन सूचकांक की लेटेस्ट स्थिति बेहद ‘गंभीर’ है. कुपोषण, बाल मृत्यु दर, लंबाई और वजन की चार कसौटियों पर किये जाने वाले इस सर्वे में भारत की जमीनी विकास की पोल खुल जाती है. एक तरह से यह विकास के चेहरे पर एक तमाचा है जो कहता है कि अब बस भी करो विकास-विकास का राग अलापना. आंखे खोलो और देखो दुनिया में दूसरे सबसे बड़े खाद्यान्न उत्पादन देश का हाल, जहां कुपोषित लोगों की दूसरी बड़ी आबादी है. इस बदतर स्थिति के कारण ही आज भारत दक्षिण एशिया सूचकांक में दक्षिणी सहारा देशों के करीब पहुंच गया है. वैश्विक प्रतिबंध झेलते उत्तर कोरिया और तीन दशक से युद्ध और आतंकवाद से ग्रसित देश इराक से भी गई बीती स्थिति होना चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है.
वर्ष 2016 के आंकड़ों पर नजर डाले तो भारत का स्कोर अल्पपोषण में 15.2, लंबाई के अनुपात में कम वजन वाले बच्चों में 15.1 आयु के अनुपात में कम लंबाई वाले बच्चों में’ 38.7 तथा बाल मृत्यु दर में 4.8 रहा. कहने को गत वर्ष की तरह इस वर्ष भी भारत की स्थिति पाकिस्तान (106वां स्थान) से बेहतर दिख रही है. लेकिन भारत से आर्थिक रूप से कमजोर देश जैसे नेपाल (72वें स्थान), श्रीलंका (84वें स्थान) तथा बांग्लादेश( 88वां स्थान) से खराब है. बांग्लादेश गत वर्ष 90वें स्थान में था. दुनिया भर में भुखमरी का शिकार होने वाले कुल लोगों का एक-चौथाई भारत में ही रहता है. दरअसल, तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था के बावजूद हर साल भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ रही है. यकीनन इस समस्या से निपटने में सरकारी सोच और नीतियां ही सबसे बड़ी बाधक हैं. आंकड़ों के हवाले से यह तस्वीर और भी साफ हो जाती है. इस रिर्पोट को जारी करने वाले वाशिंगटन स्थित अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान का कहना है कि भारत में एक फीसदी आबादी का 50 प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा है, साथ ही जीडीपी की ऊंची दर, जिसे हम अपनी आर्थिक प्रगति के उदाहरण के तौर पर पेश करते हुए गौरवान्वित होते है, स्वास्थ्य और पोषण की गारंटी नहीं हो सकती. क्या ये टिप्पणी हमारे विकास के दिखावे की राजनीति की ओर इशारा नहीं करती?
विश्व में खाद्य असुरक्षा की स्थिति, 2014 शीर्षक एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 19.07 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं. इसी रिपोर्ट के मुताबिक, देश में रोजाना 19 करोड़ लोग भूखे सोने पर मजबूर हैं. ये किसी भी प्रगतिशील राष्ट्र के लिए शर्मनाक स्थिति है. भारतीय आबादी के सापेक्ष भूख की मौजूदगी करीब साढ़े 14 फीसदी की है. पांच साल से कम उम्र के 38 प्रतिशत बच्चे सही पोषण के अभाव में जीने को विवश है जिसका असर मानसिक और शारीरिक विकास, पढ़ाई-लिखाई और बौद्धिक क्षमता पर पड़ता है. रिपोर्ट की भाषा में ऐसे बच्चों को स्टन्टेड कहा गया है. रिपोर्ट बताती है कि युवा उम्र की 51 फीसदी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं यानी उनमें खून की कमी है.
भारत में खाद्य वितरण प्रणाली में भारी दोष है. भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही के कारण वांछित काम नहीं हो पा रहे. मिड-डे मील स्कीम, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल के लिये योजनाओं के प्रावधान में पारदर्शिता की कमी होने से बिचौलिये खूब फायदा उठा रहे है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बारे में कौन नहीं जानता कि लगभग 50 प्रतिशत खाद्य साम्रगी भ्रष्टाचार के कारण उपलब्ध नहीं हो पाती. ऊंची कीमतों में बिचौलिए इसे वहां पहुंचा देते है जहां से उन्हें भारी मुनाफा होता है. पोषण से भरपूर और बेहतर क्वालिटी के खाद्यान्न बाहरी देशों को भेज देना या फिर परिवहन और भंडारण व्यवस्था की खामियों के चलते खाद्य चीजों का नष्ट हो जाना भी खाद्यान्न संकट की वजह बन जाती है. इसी मारामारी या कमी के चलते योजनाएं निचले स्तर तक नहीं पहुंच पातीं. देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार ने इसीलिये लोगों को अकाल मौत मरने को मजबूर है. नतीजा यह है कि सस्ता सामान खरीदने के फेर में, जो कि मिलावटी है, बीमारियां ही घर ले आयी जाती है. लेकिन योजनाओं की मलाई चटोर जाने वाले इन बातों से कोई सरोकार नहीं रखते.
दुर्भाग्य है देश का जहां अन्न भारी मात्रा में होने के बावजूद दो हिस्सों में बंॅट जाता है. अति उत्तम ओर सामान्य. अति उत्तम है तो उसके ऊंचे दाम भी है, जिसे वही खरीद सकता है जो उसका मूल्य चुका सकता है. और सामान्य है तो उसके मिलावटी होने में कोई संदेह नहीं रह जाता. और ये बेहद सस्ता कहा जाने वाला अन्न ही गरीब से गरीबतर आदमी लेता है. इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा कि सरकारी राशन की दुकान में मिलने वाला अनाज कोई भी उच्च तबके वाला या अमीर नहीं खरीदता. और शहर दर शहर घूमते घूमते पिछड़े इलाकों तक पहुंचने तक इसमें मिलावट का स्तर भी बढ़ जाता है. अफसोस व्यवस्था के जालों में फंसे गरीब आदमी का मूल्य सिर्फ और सिर्फ एक वोट भर तक ही है. न जाने कितनी सरकारें आई और गई लेकिन गरीबी, भूखमरी और कुपोषण का इलाज आज तक न हो पाया. एक ओर जहां चीन के साथ आर्थिक विकास की दौड़ लगाये जाने की बेसब्र चाहत जोर मारती है, वहीं दूसरी ओर इन मुद्दों में होते ’विकास’ की गति से आंखें मूंद ली जाती है.
आखिर कब तक? भारत को गरीबी, भूखमरी के तमगे से बाहर निकलना होगा. सरकार को हर साल जारी होती इन रिर्पोटस पर अपनी चेतना को जगाना ही होगा. विकास की परिभाषा बदलनी होगी. जीवन की बेहद जरूरी चीजों पर जमीनी तौर पर कामयाबी हासिल करनी होगी. सरकारी योजनाएं पर पूरी मंशा से काम कराना होगा. और इसके लिए नियम-कानून की भी सख्ती जरूरी है. क्योंकि सुनिश्चित क्रियान्वयन के लिए दंड का विधान भी होना आवश्क हो. खाने के वितरण की हर राज्य में जिला स्तर पर और भी यथासंभव निचले स्तरों पर मॉनीटरिंग की व्यवस्था होगी तभी समाज को बदहाली और कुपोषण से छुटकारा दिलाया जा सकेगा. बेसिक जरूरतों को पूरा करने का लक्ष्य प्रथम हो तभी उस विकास की राह पकड़ी जाये जिसका होने न होने से फर्क नहीं पड़ता. अंधाधुंध शहरीकरण और निर्माण की जगह हरेक की शिक्षा का इंतजाम हो जिससे उन्हें सरकारी योजनाओं की पूर्ण जानकारी हो.