सावधानी हटी, दुर्घटना घटी यानी संक्रमण से लाॅकडाउन भला

मौत का ज़हर है फिज़ाओं में, अब कहां जा के सांस ली जाए,
बस इसी सोच में हूं डूबा हुआ, ये नदी कैसे पार की जाए.

राहत इंदौरी के लिखी इन पंक्तियों में नोवल कोरोना नाम के खौफनाक वायरस की गिरफ्त में जकड़े लाचार विश्व की दषा साफ बयान होती है. पूरी दुनिया के लोग आषंकित से घरों में बंद होने को मजबूर है. अनिश्चतकाल-आपातकाल-त्रासदी-विभीषिका जैसे लफ्ज़ भी इसके आगे बौने हो रहे. वैश्विक अर्थव्यवस्था तक को ताला लग चुका है. गिरगिट की तरह रंग बदलती इस महाभंयकर महामारी से बचने का एकमात्र उपाय फिलवक्त तो घर में स्वंय को कैद कर लेना है. जरा सी लापरवाही क्या विस्फोट कर दे, ये उन देषों के हालत देखकर समझा जा सकता है जिन्होंने इसे हल्के में लिया.

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के टीएच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के वैज्ञानिकों को इस बात का अंदेशा है कि लापरवाही हुई तो आने वाले समय में वायरस और अधिक घातक और जानलेवा रूप धारण कर लेगा. शोधकर्ताओं के अनुसार सामाजिक दूरी का सख्ती से पालन होगा तभी वायरस को दोबारा फैलने से रोका जा सकता है. वैज्ञानिकों का मानना है कि वायरस इंफ्लूएंजा के तौर पर दुनियाभर में रहे है. इस आधार पर कम से कम मौजूदा हालात को देखते हुए 20 सप्ताह यानी 140 दिन तक हर हाल में सावधानी बरतनी होगी. शोधकर्ताओं का मानना है कि कोरोना समय-समय पर रंग बदलने वाला वायरस है जो बेहद खतरनाक है. किसी में इसके लक्षण दिखते है तो कोई बिना लक्षण के ही इसकी चपेट में आ जाता है. चीन में हालात सामान्य होने के बाद अचानक से इसकी वापसी हो गई. ऐसा कहीं भी हो सकता है. ऐसे में इसे दोबारा फैलने से रोकने के लिए सावधानी ही सबसे बेहतर उपचार है.

एक अध्ययन में यह भी दावा किया गया है कि कोरोना वायरस के मरीज बीमारी के लक्षण दिखने से दो या तीन दिन पहले ही कई लोगों को संक्रमित कर सकते हैं. हांगकांग यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के मुताबिक, अध्ययन में पाया गया कि संक्रमण के संपर्क में आने और लक्षण दिखने के बीच अवधि अगर कम है तो यह लक्षण दिखने से पहले भी संक्रमण फैला सकता है. चीन के गुवांग्झू के अस्पताल में भर्ती 94 मरीजों के वायरल शेडिंग के अस्थायी पैटर्न का आंकलन किया गया. नेचर मेडिसिन जर्नल में छपे अध्ययन के मुताबिक, लक्षण दिखने के बाद नियंत्रण उपाय करने से इस बीमारी को फैलने से काफी हद तक रोका जा सकता है. हालांकि कई कारक हैं जो इन उपायों को प्रभावित कर सकते हैं. इन मरीजों में गले के स्वैब लेने के बाद दो से तीन दिन बाद कोरोना वायरस के लक्षण दिखाई दिए. अध्ययन के मुताबिक, 414 स्वैब का परीक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि लक्षण की शुरूआत से पहले इन मरीजों में संक्रमण फैलाने का लोड अधिक था.


कहने का मतलब है कि जितने भी शोध इस वायरस को लेकर सामने आ रहे है उन्हें किसी भी हालत में नजरअंदाज करना उचित नहीं. चीन ने क्या किया, क्या नहीं या उसे क्या करना चाहिए था, की जगह हम अगर अब क्या करें, क्या न करें पर काम करें तो बेहतर होगा. गौर करने की बात ये है कि यह वायरस अमीर-गरीब, गोरा-काला, ऊंच-नीच, धर्म-कर्म देखकर अटैक नहीं कर रहा है. ब्रिटिष नागरिक हो या ब्रिटिष राजकुमार, न्यूयार्क जैसा वैभवषाली देष हो या दुुनिया के गरीब देष सभी इस वक्त इस आपदा से ग्रसित है. एक विशेषज्ञ ने तो बहुत पहले ही कह दिया था कि इस वायरस की चपेट में दुनिया के 80 प्रतिषत लोग आएंगें. वायरस के फैलते संकमण को देखते हुए फरवरी 2020 से कई देषों में अलर्ट जारी किए जाने लगे थे. फिर भी जानते-बुझते की जाने वाली लापरवाही को आप क्या कहेगें? धर्मान्ध और कट्टर लोग, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय के हो, मानवता को अपने स्वार्थवश नुकसान पहुंचाते आये है. चाहे वे भारत में तब्लीगी जमात वाले हो जिन्होंने चेतावनी के बावजूद देशी-विदेशी लोगों का जमावड़ा किया या फिर लुसियाना के धर्मगुरू टाॅम स्पेल जिन्होंने चेतावनी को मानने से इंकार कर दिया और गिरिजाघर खुला रखा, लोगों को इकट्ठा भी किया. इसराइल के हेल्थ मिनिस्टर ने भी सिनेगाॅग खोलकर लोगों को एकत्र किया. उन्होनें यहां तक कह दिया कि प्रार्थना करने से कोरोना नहीं होगा. आज खुद संक्रमित है.

यू ंतो इस वायरस की अनदेखी किए जाने को लेकर डब्ल्यूएचओ की भूमिका भी संदेह के घेरे में है. फिर भी अपने पर लगे आरोपों से खुद को बचाने में लगे डब्ल्यूएचओ की इन बातों को फिलहाल नजरअंदाज करना ठीक नहीं होगा कि लॉकडाउन से कोरोना वायरस को रोकने में क्या सफलता मिली है, इसका आंकलन करने के लिए भी दो हफ्ते का और इंतजार जरूरी है. इस आंकलन के बाद ही प्रतिबंधों को ढीला करना चाहिए और जब तक वैक्सीन नहीं बन जाती तब तक लापरवाही बरतना खतरनाक सिद्ध हो सकता है. फिलहाल तो वैक्सीन बनाने में दुनियाभर के वैज्ञानिकों को अभी तक कोई कामयाबी नहीं मिल पाई है. कुछ दावा कर रहे है उन्होंने इसमें सफलता प्राप्त करने की कगार पर है तो कुछ ये भी मानते हे कि 2021 से पहले इसकी वैक्सीन की खोज मुश्किल है.

वैज्ञानिकों का तो ये भी मानना है कि कोरोना से बुरी तरह प्रभावित देश अमेरिका को 2022 तक सोशल डिस्टेंसिंग का पालन सख्ती से करना होगा हालांकि अमेरिकन प्रेसीडेंट कर रवैया इससे उल्ट ही दिखता है. आज अमेरिका के जो हालात है वह उनकी लाॅकडाउन की घोषणा में की गई देरी का नतीजा है. पर जिद्दी और अहमक राष्ट्रपति का अपरिपक्व अंदाज आज अमेरिका को जिन हालात में ले आया वो इस शक्तिशाली देष के नेतृत्व की खिल्ली ही उड़ा रहा. इस लेख के लिखे जाने तक, अमेरिका के जॉन्स हॉप्किन्स विश्वविद्यालय के अनुसार, 24 घंटे में 2600 लोगों की मौत हुई. इसके साथ ही अमेरिका में मृतकों की की कुल संख्या 28,326 पहुंच गई है जो किसी भी देश के मुकाबले मृतकों की सबसे अधिक संख्या है. सबसे बुरे दौर से गुजर रहे अमेरिका के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का 15 अप्रैल को दिया गया ये बयान हास्यास्पद लगता है कि अमेरिका कोरोना वायरस महामारी के सबसे बुरे दौर से निकल चुका है और वह 16 अप्रैल को अर्थव्यवस्था को फिर से खोलने के लिए दिशानिर्देशों की घोषणा करेंगे. मानव हित साधने के बजाय राजनीतिक हित साधना आपकी अदूरदर्षिता का परिचय देते है ये कौन अब अमेरिकी मुखिया को बताये?

कोरोना वायरस की तुलना सार्स और प्लेग के करीब-करीब या उससे अधिक भयावह रूप में की जा रही है. हालांकि प्लेग के समय मेडिकल सुविधा इतनी प्रभावी नहीं थी जितनी की सार्स के समय तक हो चुकी थी. प्लेग की त्रासदी झेल चुकी उत्तर प्रदेश में बांदा के अतर्रा में रहने वाली 120 साल की जनिया देवी, कोरोना को प्लेग से बड़ी महामारी नहीं मानती. उन्होंने प्लेग का विकराल रूप देखा था. 1920 में देश में फैली प्लेग महामारी में उनके पति समेत 11 परिजनों की मौत हो गई थी. उन्हें आज भी याद है गांव के लोग एक शव का अंतिम संस्कार करके लौटते थे तो घर पर एक और शव मिलता था. बहुत से शवों को मिट्टी में दफनाना पड़ा था. दफन करने की नौबत इसलिए आई क्योंकि जलाने के लिए लकड़ी की कमी हो गई थी. दहशत इतनी थी कि लोग जल्द से जल्द लाश से छुटकारा पाना चाहते थे. तब इस महामारी से बचने के लिए बाकी बचे गांव के लोगों ने जंगलों में शरण ली थी. हौसले की बानगी जनिया कहती है कि ”उ जमाने मा तौ वैद्य तक नाहीं रहैं, अब तौ हर गांव में डागडर (डाक्टर) हवैं. डरने की कौनो बात नाहीं.”

प्लेग एक तरह का बैक्टीरिया था ,जो छूने से फैलता था. चूहे (रोडन) से होता था, जो मक्खियों से मनुष्य तक पहुंचता था. तेज बुखार, शरीर में तेज दर्द सहित शरीर की ग्रंथियों में सूजन आने के बाद तत्काल मृत्यु होती थी. यह महामारी हॉन्ग कॉन्ग से भारत में आई थी. 1920 में महामारी भारत में अपने चरम पर थी.

आज महामारी से जूझते विश्व के सामने आर्थिक समस्यायें मुंह बांयें खड़ी है. घर में और कई दिन बंद होने के ख्याल भी खासा मानसिक संतुलन बिगाड़ने वाला है. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस वक्त लाॅकडाउन मानव सभ्यता को बचाने के लिए बेहद जरूरी है. मशहूर वास्तुविद् और जियोपैथिक रेडिएशन एक्सपर्ट अजय पोद्दार से मैं सहमत हूं कि अपने कृत्यों से मानव ने प्राकृतिक पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाया. लोग सोचते है कि एक दिन सब अपने आप ठीक हो जाएगा. आशावाद जीवन में सकारात्मकता लाता है, लेकिन कोरा आशावाद कई बार पलायनवादी भी बन जाता है. प्रकृति की व्यवस्था में जो होता है, बहुत ही सुव्यवस्थित तरीके से होता है. कुदरत के पास कोई कितु-परंतु नहीं है. एक हाथ ले, दूसरे हाथ दे जैसा न्याय है. ये वक्त जीने के लिए आशावादी होने के साथ-साथ व्यवहारिक और यथार्थवादी होने का भी है. इसलिए प्रकृति की समस्याओं से अब और अनजान बने रहना उचित नहीं.

दि न्यूयार्क टाइम्स में टिमोथा एगन के अनुसार हर संकट कोई अनजान रास्ता खोल देता है. देखते ही देखते असंभव से लगने वाली बात संभव हो जाती है. अल्पावधि की किसी तेज दौड़ में इतिहास अंधेरे की ओर ले जा सकता है या प्रबुद्ध जननीति के लिए नया दिन साबित हो सकता है. अमेरिकी इतिहास की महान घटनाएं, जैसे दास प्रथा से मुक्ति, सामाजिक सुरक्षा, साफ हवा-पानी पर अधिकार, इन सभी का जन्म हादसों से ही हुआ. अभी हमारे लिए कोरोना वायरस ही दुख का महाकाव्य है और कई महीनों तक इसकी विभीषिका जारी रहने वाली है. मगर, देखा जाए तो तमाम तकलीफों, प्रियजनों को खोने के दुख और आइसोलेशन में अकेलेपन के बीच हमारे पास एक अवसर है यह विचार करने का कि हम अपनी दुनिया फिर से कैसे रच दें.

इस लाॅकडाउन का पालन करते हुए स्वंय को-अपनों को संक्रमित होने से बचाते हुए नई दुनिया का संकल्प रचते हुए हम क्यों न उस चेतावनी को बार-बार जेहन में बनाये रखें, जो लंबी यात्रा के दौरान घुमावदार रास्तों में अक्सर हमें अलर्ट करता रहता है -सावधानी हटी दुर्घटना घटी !!! 

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