बोल्सेनारो और जॉनसन से भिन्न है मोदी का करिश्मा

में जैसे ही डोनाल्ड ट्रंप के जाने और डेमोक्रेट जो बाइडन के राष्ट्रपति निर्वाचित होने का फैसला हुआ, भारत में वामपंथी रुझान रखने वाले विश्लेषकों ने कहना शुरु कर दिया था कि अब दुनियाभर की राजनीति में बड़ा परिवर्तन आएगा. उनका ख्याल था कि ब्राजील में बोल्सेनारो, इस्राइल में नेतन्याहू और ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन की विदाई होने वाली है.
भारत के बारे में उनका गणित था कि नरेंद्र मोदी सरकार का तख्तापलट तो नहीं हो सकता लेकिन वह अगले चार साल आसानी से शासन नहीं चला पाएंगे. भारत में सरकार के विरोध में कई आंदोलन अचानक उठ खड़े होंगे, अगर सरकार इन्हें दबाएगी तो बाइडन प्रशासन उसकी आलोचना करेगा. किसान आंदोलन के मामले में हमने इसका नमूना देख भी लिया है. यह डेमोक्रेट्स का काम करने का तरीका रहा है. इन्हीं विश्लेषकोंं ने यह मसला भी उठाया है कि ट्रंप के साथ बड़े शो करना मोदी की रणनीतिक गलती थी.
बोरिस जॉनसन के खिलाफ विरोध के स्वर उठने शुरु भी हो गए हैं, लेकिन मोदी सरकार इन्हीं बोरिस जॉनसन को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाना चाहती है. नेतान्याहू बहुत मामूली बढ़त के साथ ट्रंप की पसंद के रूप में टिके हुए थे और वह बाइडन की पसंद नहीं है. बाइडन चीन से रिश्ते सुधारेंगे, ईरान के साथ फिर परमाणु समझौता करेंगे, अफगानिस्तान से फौज नहीं निकालेंगे और पाकिस्तान को इंगेज करेंगे. नई रणनीतिक परिस्थितियों में भारत को अच्छा दोस्त बनाए रखना उनकी प्राथमिकता में होगा, लेकिन यह हो सकता है कि वह बयानबाजी और अन्य तरीकों, जो डेमोक्रेट्स पहले भी आजमाते रहे हैं, के जरिए मोदी सरकार पर दबाव बनाए रखें.
भारत के मामले में कोई अगर यह उम्मीद कर रहा है कि मोदी को सत्ता से बाहर करने में बाइडन प्रशासन विरोधी दलों की कोई अप्रत्यक्ष मदद करने वाला है, तो वह बहुत गलत आकलन कर रहा है. बाइडन ने जो सहयोगी चुने हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत की परिस्थितियां बहुत भिन्न हैं. भारत में नरेंद्र मोदी को करोड़ों लोगों ने वोट देकर चुना है, फिर यह बात आपको भले ही पसंद हो या न हो, आप उन्हें हिंदू नेशनलिस्ट समझें या दक्षिणपंथी, हालांकि भारतीय जनता पार्टी आर्थिक दक्षिण पंथ की उस परिभाषा के फ्रेम में नहीं आती, जो पश्चिम में प्रचलित है. यह पक्की बात है कि बाइडन प्रशासन या कोई भी अन्य बाहरी शक्ति अगर भारत की अंदरूनी राजनीति में दखल देती है और जनमत को अपदस्थ करने की कोशिश की गई तो इसके गंभीर परिणाम होंगे. अब तक धुर मोदी समर्थकों के बारे में एक खास बात जो बार-बार दिखाई दी है वह यही है कि जब भी मोदी पर हमला होता है, वे इसे अपने लिए चुनौती के रूप में देखते हैं. मोदी की राजनीतिक चतुराई यह रही है कि वह ऐसा तब तक होने देते हैं, जब वह परिघटना उनके पक्ष में न चली जाए. विरोधी शक्तियों की यही राजनीतिक घात उस वर्ग को ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया के लिए प्रेरित करती है, जिसे आप हिंदू नेशनलिस्ट कहते हैं. मुझे व्यक्तिगत रूप से नहीं लगता कि अमेरिका की नई सरकार इस आग में अपने हाथ जलाना चाहेगी, जब वह देख रही है कि आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण चीन ने बड़े योजनाबद्ध तरीके से भारत में करोड़ों लोगों को नफरत करने वालों में बदल दिया है. अब इसे नरेंद्र मोदी भी चाहें तो सामान्य संबंधों में आसानी से तब्दील नहीं कर सकते.
विरोधी दल अगर सत्ता में लौटना चाहते हैं और मोदी को अपदस्थ करना चाहते हैं तो उन्हें साधारण लोगों के मोदी सरकार से  पूरी तरह निराश होने का इंतजार करना पड़ेगा और खुद को ज्यादा असरदार विरोधी के रूप में तैयार करना होगा. मोदी की छवि का तुलनात्मक रूप से उज्जवल या धूमिल दिखना, विपक्ष की छवि से सीधा जुड़ा हुआ है.

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