अभय जी को एक श्रद्धांजलि

नईदुनिया के पूर्व मालिक व संपादक अभय छजलानी नहीं रहे. इस अवसर पर मेरे लिए अभय जी को याद करना और उन्हें श्रद्धांजलि देना बहुत लाजिमी है.

हालांकि मेरी उनसे ज्यादा जमी नहीं, फिर भी छह साल तक उन्होंने मुझे काम करने की इजाजत दी. यह उनका बड़प्पन था. यह बात पक्की है कि वह नहीं होते तो मैं पत्रकारिता में नहीं आया होता. म. प्र. सरकार का कर्मचारी होता. अभय जी पत्रकारों को नईदुनिया में शामिल होने के लिए एक बड़ी मुश्किल किस्म की छह घंटे की परीक्षा लिया करते थे. संयोग से मैं उस परीक्षा में बैठ गया. और फिर पत्रकारिता में ही रह गया.

अभय जी को संपादकीय की जबर्दस्त समझ थी, जो स्मृतियों के एक खास पीरियड में स्थिर हो गई थी. वह लिखते भी बहुत अच्छा थे और अच्छा लिखने वालों की कद्र भी करते थे, बशर्ते वह उनके स्थापित विचारों के बहुत ज्यादा विरुद्ध नहीं होता था. पढ़ने-लिखने वाले पत्रकारों के लिए उन्होंने नईदुनिया में बहुत अच्छा वातावरण उपलब्ध कराया. राजेंद्र माथुर की लाइब्रेरी परंपरा को वह लगातार जारी रखे रहे, जबकि उन्हें इसके लिए काफी खर्च करना पड़ता था. जब वह लाइब्रेरी समाप्त हुई तो उन्हें कैसा लगा होगा, इसकी मैं कल्पना कर सकता हूं.

मैंने देखा कि वह बहुत ही उदार होते थे, जब कोई उन्हें इस्तीफा देने जाता था और मैं आश्चर्यचकित हो जाता था कि इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति को वह इतनी आसानी से कैसे खो देते हैं. लेकिन यह उनका अपने ऊपर अत्यधिक विश्वास और उनका खुफिया तंत्र था, जो उनसे गलत फैसले करवाता था.

मैंने करीब तीन साल तक अभय जी के ठीक सामने 5-6 फुट दूर रखी कुर्सी पर बैठे हुए देखा कि उनके सामने जाने-माने लोग किस मुद्रा में खड़े रहते थे. कई लोग तो टेबल के नीचे घुसकर उनके पैर छूने का प्रयास करते थे. इंदौर शहर की सत्ता एक समय जैसे उनकी मुट्ठी में थी. प्रधान संपादक वही थे और सिटी एडीटर भी. मालिक और संपादक की भूमिकाओं का अंतर्विलय हो जाना भी अखबार के लिए मुश्किलें पैदा करता रहा. संबंध निभाने में उनका कोई सानी नहीं था, भले ही उससे अखबार को नुकसान हो जाए. एकबार दो खालिस्तानी आतंकवादी इंदौर में पकड़े गए. आईजी ने उनसे आग्रह किया कि संवेदनशीलता को देखते हुए खबर का प्रकाशन ठीक नहीं होगा. अगले दिन केवल नईदुनिया में खबर नहीं थी.

आगे चलकर उन्हें अखबार बेचना पड़ा. मैंने सुना है, इसके पीछे कई तरह के डायनामिक्स थे. अखबारों का अर्थशास्त्र दैनिक भास्कर ने बदल दिया था. स्केलेब्लिटी महत्वपूर्ण चीज हो गई थी और नईदुनिया को जैसे विस्तार की कोई जल्दी नहीं थी. मेरी थ्योरी है कि वह नईदुनिया अखबार केवल लेकर बैठे रहते, भले ही कम संख्या में छापते तब भी अंतिम समय तक इंदौर शहर में अघोषित सत्ता का केंद्र रहते. तमाम असहमतियों के बावजूद पता नहीं क्यों मैं अभय जी को अंतिम समय तक ताकतवर देखना चाहता था. शायद मेरे नास्टेल्जिया की वजह से ऐसा हो.

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