अभी तो मेंहदी सूखी भी न थी: पहलगाँव की घाटी में इंसानियत की हत्या

22 अप्रैल 2025, सुबह के कुछ शांत लम्हे। जम्मू-कश्मीर के पहलगाँव में बर्फीली वादियाँ पर्यटकों का स्वागत कर रही थीं। नवविवाहित जोड़े, बच्चे, बुज़ुर्ग – सबको उम्मीद थी कि कश्मीर की हवा में सुकून मिलेगा, तनाव से कुछ राहत मिलेगी। लेकिन तभी आतंक की आहट हुई। बंदूकें गरजीं। और उस वादी में जहाँ बर्फ गिरती है, अब खून बहा।

राजस्थान से आया एक नवविवाहित दंपत्ति भी उन्हीं पर्यटकों में था। दोनों ने अभी पांच दिन पहले ही शादी की थी। वो अपने हनीमून के लिए कश्मीर आए थे। लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। आतंकियों ने गाड़ी रोकी, नाम पूछा, पहचान की और फिर गोली मार दी। युवक हिन्दू था। बस यही उसके मरने की वजह बन गई। सिर में गोली लगी। मौके पर ही दम तोड़ दिया। उसकी पत्नी, जिसके हाथों की मेंहदी अभी भी गीली थी, स्तब्ध खड़ी थी। शोक से ज़्यादा वो एक अनकहे डर में जमी हुई थी – जैसे समय वहीं थम गया हो।

ये हत्या नहीं, धार्मिक घृणा है

यह सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं था। यह योजनाबद्ध हत्या थी – एक सोच के तहत, एक धर्म के आधार पर। आज आतंकवाद महज़ क्षेत्रीय या वैचारिक लड़ाई नहीं रह गया है। यह अब धार्मिक पहचान को मिटाने का एक उपकरण बन चुका है। यह हत्या बताती है कि कुछ तत्व अब यह तय कर चुके हैं कि कौन जिएगा, कौन मरेगा – और यह फ़ैसला नाम पूछकर किया जाएगा।

क्या यही इंसानियत है? क्या यही ‘कश्मीरियत’ है, जिसके नाम पर हम वर्षों से शांति की दुहाई दे रहे हैं?

जब शहीद की पत्नी की चीखें खामोश हो गईं

सोशल मीडिया पर उस पत्नी की तस्वीर वायरल हुई, जो अपने पति के शव को निहार रही थी। न चीख, न रोना, न प्रतिरोध। बस एक स्थिर मौन – जो पूरी व्यवस्था पर सबसे कठोर आरोप बन गया। उस मौन में एक सवाल छुपा है: “हमने क्या ग़लत किया?” क्या एक जोड़े का कश्मीर आना, उसकी सुंदरता देखना, उसकी वादियों से प्यार करना अब गुनाह बन चुका है?

हमें समझना होगा कि इस तस्वीर में केवल एक महिला नहीं थी, बल्कि उस पूरे राष्ट्र की आत्मा थी – जख़्मी, असहाय और शर्मसार।

सुरक्षा की विफलता और प्रशासन की संवेदनहीनता

हर हमले के बाद सरकार की ओर से एक तैयार स्क्रिप्ट आती है – निंदा, मुआवज़ा, जाँच। लेकिन जवाबदेही कहीं नहीं होती। क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि घाटी में आतंकियों को खुलेआम चलने-फिरने की छूट कैसे मिलती है? वे नाम पूछकर कैसे किसी को गोली मार सकते हैं और फिर बच निकलते हैं?

क्या पर्यटन सीजन में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती नहीं होनी चाहिए? क्या जम्मू-कश्मीर प्रशासन को यह नहीं पता कि ऐसे हमले पर्यटन, अर्थव्यवस्था और भारत की एकता – तीनों पर हमला करते हैं?

मानवाधिकार या आतंक के अधिकार?

जब भी भारत आतंक के ख़िलाफ़ सख़्ती दिखाता है, तो मानवाधिकार की दुकानें खुल जाती हैं। दिल्ली, लंदन, न्यूयॉर्क – हर जगह के तथाकथित बुद्धिजीवी अचानक ‘संवेदना’ से भर जाते हैं। लेकिन जब किसी हिंदू नागरिक को सिर्फ उसके नाम के कारण सिर में गोली मारी जाती है, तब यही आवाज़ें खामोश हो जाती हैं।

 

क्यों? क्या एक विशेष समुदाय के पीड़ितों के लिए ही संवेदना है? क्या हिन्दू होना अब मानवाधिकार के चश्मे से अदृश्य हो जाना है?

यह हमला पूरे भारत पर है

पहलगाँव हमला केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं है – यह भारत की आत्मा पर हमला है। यह संदेश देने की कोशिश है कि “यहाँ तुम्हारी जगह नहीं है”। यह भारत की एकता, समरसता और धर्मनिरपेक्षता को चुनौती है। और यदि हमने इस चुनौती को केवल ट्वीट और मोमबत्तियों से उत्तर दिया, तो अगला निशाना कोई और शहर, कोई और नाम, कोई और नवविवाहित होगा।

पाकिस्तान का रोल और वैश्विक चुप्पी

हमेशा की तरह, इस हमले के पीछे जिस आतंकी संगठन का नाम आया – ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ – वह लश्कर-ए-तैयबा का ही नया अवतार है। और इसकी जड़ें पाकिस्तान में हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान अभी भी ‘आतंकवाद का शिकार देश’ बना बैठा है।

संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका, यूरोप – सभी को यह साफ-साफ कहना चाहिए कि धार्मिक आधार पर नागरिकों की हत्या केवल एक देश का नहीं, बल्कि वैश्विक मानवता का संकट है।

अब निर्णय का समय है

भारत को अब दो टूक निर्णय लेने की ज़रूरत है। कश्मीर में आतंक का सामना केवल पुलिस नहीं कर सकती, इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। अलगाववाद की नर्म परतों को उखाड़ फेंकना होगा। धार्मिक पहचान के नाम पर फैलाई जा रही नफ़रत को सामाजिक स्तर पर भी चुनौती देनी होगी।

 

इसके साथ-साथ, हमें यह तय करना होगा कि कश्मीर में पर्यटन केवल “स्वर्ग” दिखाने का सौदा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता का सेतु है – और इस सेतु की रक्षा हम सबकी जिम्मेदारी है।

अंतिम पंक्तियाँ: एक और शहीद, एक और सुहाग उजड़ा

हर आतंकी हमले के बाद हम कुछ दिन दुखी होते हैं, फिर भूल जाते हैं। लेकिन उस स्त्री के लिए, जिसने अपने पति को खोया, जो लहूलुहान सपनों के साथ अकेली रह गई, यह घटना एक जीवन भर का घाव है।

उसके लिए यह कोई न्यूज़ नहीं, यह उसका टूटता संसार है।

 

हमारी संवेदना केवल सोशल मीडिया पोस्ट तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। हमें पूछना चाहिए – "कब तक?"

कब तक हम अपने नागरिकों की रक्षा नहीं कर पाएँगे?

कब तक हम आतंकी हमलों पर केवल मोमबत्तियाँ जलाते रहेंगे?

शब्द नहीं, कार्रवाई चाहिए। शोक नहीं, उत्तरदायित्व चाहिए। क्योंकि इस बार सवाल सिर्फ नाम का नहीं है, यह इंसानियत का प्रश्न है।

 

डॉ. सत्यवान सौरभ के अन्य अभिमत

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