परमानन्द परम. तिब्बत में एक ऐसी झील भी है जिसे बौद्ध मतावलंबी भविष्य बताने वाली मानते हैं। उनकी धारणा है कि हर दलाई लामा के लिए कम से कम एक बार अपने जीवन में इसका दर्शन करना जरूरी है क्योंकि यह उसके भावी जीवन और मृत्यु के संबंध में बताती है। इसी तरह पोताला प्रसाद (महल) के साथ भी दलाई लामाओं के जीवन के अनेक रोमांचक प्रसंग जुड़े हुए हैं।
इतिहासकार पंडित चन्द्रगुप्त वेदालंकार के ग्रंथ ‘वृहत्तर भारत के तिब्बत में बौद्ध संस्कृति’ में इस भविष्य बताने वाली झील के विषय में जानकारी दी गई है। इस ग्रंथ के अनुसार तिब्बती ‘पाकोर, ग्यल क्यीनम् सो’ के नाम से पुकारते हैं। यह झील ल्हासा से एक सौ मील दक्षिण-पूर्व में है।
तिब्बत के तकपो प्रांत में स्थित इस झील के विषय में बताया गया है कि इस पर एक मंदिर है। इसमें झील की अधिष्ठात्री देवी की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा इतनी भयानक है कि केवल दलाई लामा ही उसके दर्शन कर सकते हैं। वे अकेले ही इस मंदिर में जाकर अपने भावी जीवन के बारे में सवाल करते हैं। इस देवी को रिझाने की एक विशेष विधि बताई गई है।
इस झील के साथ अनेक दंतकथाएं एवं जनश्रुतियां भी जुड़ी हुई हैं। इन जनश्रुतियों में से एक यह है कि झील की अधिष्ठात्री देवी को रिझा पाने की विद्या से अनजान चार दलाई लामा अपने बचपन में वहां गये थे। उनका देवी के दर्शन करने के कुछ ही समय बाद निधन हो गया। देवी को प्रसन्न करने की विधि-विधान से अनजान होना उनके लिए महंगा साबित हुआ। वे देवी के कोप के शिकार बने थे।
तिब्बती बौद्धों में प्रचलित एक दंतकथा के अनुसार नौवें दलाई लामा सन् 1806 में अपने पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। केवल दस साल ही जीवित रहे। दसमें दलाई लामा बीस की उम्र में ही चल बसे। ग्यारहवें दलाई लामा का निधन सन् 1853 में सिर्फ 17 साल की आयु में ही हो गया था जबकि बारहवें दलाई लामा अठारह साल की अल्पायु में ही परलोक सिधार गये।
तिब्बती इन चारों दलाई लामाओं की अकाल मृत्यु के रहस्य को देवी को रिझा पाने में असमर्थता से जोड़कर देखते हैं। ऐसा कहा जाता है कि ये चारों दलाई लामा इस मंदिर में गये थे और इन्हें यह पता नहीं था कि देवी को किस प्रकार प्रसन्न किया जाता है। नतीजतन देवी नाराज हो गयीं और उसके दर्शन के कुछ समय बाद ही वे अकाल मृत्यु का ग्रास बन गये।
तेरहवें दलाई लामा दीर्घजीवी रहे थे। उन्होंने 25 साल की उम्र में देवी के मंदिर में अकेले जाकर भयानक प्रतिमा के दर्शन किए थे। उन्हें देवी को रिझाना आता था, इसीलिए वे दीर्घायु हुए।
इसी तरह पोताला के प्रसाद महल से भी दलाई लामाओं से संबंधित गाथाएं जुड़ी हुई हैं। सन् 1615 में पांचवें दलाई लामा का जन्म हुआ था। उस समय दे.सी. सड्. पा. संपूर्ण मध्य तिब्बत का शासक था। वह का.दम.पा. के नाम से संबोधित किये जाने वाले एक संप्रदाय का अनुयायी था। उसने पांचवें दलाई लामा के प्राण लेने के लिए कुछ लोगों को तैनात किया था किंतु पांचवें दलाई लामा बहुत साहसी थे। बीस साल के होने पर उन्होंने मंगोल सरदार गुसरी खां से सहायता मांगी जिसने 1642 ई. में तिब्बत पर आक्रमण करके दे.सी.सड्.पा. को हराकर संपूर्ण इलाके को जीत लिया और इसे दलाई लामा को भेंट कर दिया था।
पांचवें दलाई लामा और गुसरी खां ने एक ही गुरु से विद्याभ्यास किया था। राज्य शक्ति हासिल करने के बाद पांचवें दलाई लामा ने स्वयं को अवलोकितेश्वर के अवतार के रूप में मशहूर कराया और अपना पुराना निवास स्थान छोड़कर रक्त पर्वत पर नया प्रासाद बनवाया था। इस प्रासाद का नाम दक्षिण भारत के एक पर्वत के नाम पर ‘पोताला’ रखा गया था।
कुछ दिनों बाद पांचवें दलाई लामा तिब्बत के राजा भी बन गये। जिस पर्वत पर दलाई लामा ने अपना प्रासाद बनवाया था, यह वही है जिस पर तिब्बत के महाप्रतापी सम्राट के रूप में जाने गये सोड सेन गम पो निवास करते रहे थे। ऐसा माना जाता है कि इस प्रासाद के पूरे होने में चालीस वर्ष लगे थे। प्रासाद के निर्माण कार्य पूरा होने से पहले ही सम्राट् का निधन हो गया था।
किंवदंतियों के अनुसार सम्राट सोड सेन गम पो झील के बीच में स्थित देवी के मंदिर में नित्य जाया करते थे। एक बार वे कमसिन कम उम्र की लड़कियों को लेकर झील के मध्य में पहुंचे और वहां उन लड़कियों के साथ गलत व्यवहार करने लगे। पांचों लड़कियों ने भागकर देवी की प्रतिमा के पीछे शरण ली और वहां रखी कटार से अपना अंत कर दिया।
प्राणान्त से पहले उन लड़कियों ने सम्राट को श्राप देते हुए कहा कि जिस प्रतिमा के सामने उसने लड़कियों के वस्त्र हटाए थे, उस प्रतिमा का भयानक रूप कोई देख नहीं पायेगा। अगर किसी ने इस प्रतिमा को देख भी लिया तो वह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकेगा।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-रहस्य रोमांच: नक्कारे में प्रेतात्मा!
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