राज सक्सेना. संसद के इस बजट सत्रा में राजधानी दिल्ली राष्ट्रीय क्षेत्रा संशोधन विधेयक 2021 पास कर दिया गया जिसके द्वारा दिल्ली राज्य प्रशासन नियमों में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये गये थे। विधेयक का विरोध दिल्ली पर राज करने में तानाशाही की सीमारेखाओं को हदों तक छू रही आप पार्टी के तीनों सांसदों ने तो सदन में जम कर किया ही, पूरी आप पार्टी अपने मुख्य मंत्राी की अध्यक्षता में जन्तर मन्तर पर विरोध प्रदर्शन के लिए एक दिन के धरने पर बैठी नजर आयी। पूरे दिन मोदी की तानाशाही और उनकी दिल्ली हार, और तो और, नगर निगमों में भाजपा की करारी हार पर भी दिल्ली में सुशासन के कसीदे पढ़े गये।
इस धरने और संसद में मोदी सरकार पर असंवैधानिक कार्य करने के आरोपों की झड़ी लगादी गयी। हर वक्ता प्रवक्ता ने इसे एक असंवैधानिक कार्य बताते हुए दिल्ली की चुनी हुयी सरकार को उपराज्यपाल के माध्यम से पंगु बनाने की योजना का बखान किया, यह सब भूल कर कि खुद दिल्ली की सरकार का गठन संविधान में संशोधन कर 1991 में किया गया था। मूल संविधान में वर्तमान प्रशासन की परिकल्पना थी ही नहीं। दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है और जैसा कि उसके नाम से स्पष्ट है। दिल्ली के शासन प्रशासन में केंद्र का प्रारम्भ से ही अधिक दखल है जो सर्वथा उचित भी है। दिल्ली एक संवेदनशील क्षेत्रा है, इसमें किसी भी दुर्घटना का देश पर दूरगामी परिणाम स्थापित कर सकता है। जब तक केजरीवाल ने सत्ता नहीं संभाली, केंद्र और प्रदेश में कोई गम्भीर विवाद नहीं हुआ मगर आप के सत्ता में आते ही विवादों की झड़ी लग गयी।
केजरीवाल जो सार्वजनिक रूप से स्वयं को अराजकतावादी घोषित कर चुके हैं, ने गम्भीर विवादों की श्रंृृखला दिल्ली के एंटीकरप्शन ब्यूरो की जद में दिल्ली प्रदेश की सीमा में कार्यरत प्रधानमंत्राी सहित केंद्र और अन्य विभागों के समस्त अधिकारियों की जांच और उसमंे उनके फोन टैप करने तक का अधिकार पाने का विधेयक लाकर इस ‘संवैधानिक’? कार्य के लिए उन्होंने एक विदेशी कम्पनी को फोन टैप करने की डिवाइस का आदेश भी जारी कर दिया था। इस क्रम में वे वहीं नहीं रुके और तबके मोदी विरोधी मुख्यमंत्राी नीतीश कुमार से मांग कर एक तेज तर्रार पुलिस अधिकारी को भी एलजी द्वारा नियुक्त अधिकारी के सर पर बैठा कर मनमानी शुरू करदी।
दिल्ली में तीन कम्पनियां विद्युत् वितरण करती हैं। दो के मीटरों पर केजरीवाल को शक नहीं हुआ मगर मोदी के तथाकथित गुजराती दोस्त अंबानी की कम्पनी के मीटर तेज चलते बताये गये और खम्भों पर चढ़ कर केजरीवाल ने डायरेक्ट कनेक्शन तो दिए ही, तत्कालीन कांग्रेसी बिजली मंत्राी मोइली और विद्युत् सचिव के खिलाफ एंटीकरप्शन ब्यूरो में जांच भी बैठा दी। विभिन्न आयामों से गुजरता यह प्रकरण समाप्त हुआ तो एलजी के अधिकारों के विरोध में उनके आवास पर ही गेस्टरूम में पूरी मंत्राी परिषद द्वारा धरना शुरू कर दिया गया जो कई दिन चला। फिर केजरीवाल और आप पार्टी जेएनयू के टुकड़े टुकड़े गैंग के समर्थन में खड़ी हो गयी और इस हद तक चली गयी कि जब तक कोर्ट से फटकार नहीं लगी, तब तक उनके विरुद्ध चार्जशीट का अनुमोदन तक नहीं किया गया। एलजी से टकराव को लेकर पहले हाईकोर्ट और फिर दिल्ली सरकार सुप्रीमकोर्ट तक चली गयी। इसके बाद तो सुप्रीमकोर्ट के अस्पष्ट फैसले का लाभ उठा कर केजरीवाल सरकार ने एलजी को फाइलें तक भेजनी बंद करदीं। अपने घर पर रात के ग्यारह बजे दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव से केंद्र का आदमी बताकर मारपीट की गयी और परिसर के साथ कक्ष की सीसीटीवी फुटेज नष्ट करदी गयी।
मुल्ला-मौलवियों को वेतन भत्ते दिए गये। दादरी के अशफाक के आश्रित को क्षेत्रा से बाहर होने के बावजूद एक करोड़ रूपया दिया गया। सीएए का खुला विरोध और शाहीनबाग का खुला समर्थन इतिहास में दर्ज है। दिल्ली दंगों में आप पार्टी की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। हद तो तब हो गयी जब दिल्ली को बंधक बनाने की योजना लेकर अपने साथ चार महीने का राशन लेकर आए आंदोलनकारी कुछ किसानों को दिल्ली में आने का खुला निमंत्राण मुख्यमंत्राी द्वारा दिया गया। बार्डर पर अपनी सीमा से बाहर उन्हें वाईफाई सुविधा दी गयी और केंद्र द्वारा अस्थाई जेल के रूप में परिवर्तित करने के लिए मांगे गये स्टेडियमों को देने से इनकार कर दिया गया और किसानों के पक्ष में इसकी खुली घोषणा भी कर दी गयी। लाल किले पर झंडा फहराने की निंदा करने के बजाय गाजीपुर बार्डर पर उप्र सरकार द्वारा आंदोलनकारियों को पानी की सुविधा बंद कर देने पर मनीष सिसोदिया द्वारा दिल्ली सरकार के टैंकरों से पानी की सुविधा की घोषणा की गयी। यह टकराव की चरमसीमा थी। दिल्ली जैसे नाजुक क्षेत्रा को कोई भी केंद्र सरकार अपनी मनमानी चलाने वाले शख्स के भरोसे छोड़ कर अपने लिए समस्याएं खड़ी नहीं करना चाहेगी। शायद इसे ध्यान में रख कर ही मोदी सरकार ने आये दिन की समस्याओं से बचने के लिए उपराज्यपाल की भूमिका स्पष्ट करने के ये संशोधन प्रस्तावित किये हैं।
जहां तक संशोधनों का प्रश्न है, संविधान में अब तक संशोधनों की संख्या शतक का आंकड़ा पार कर चुकी है और संविधान निर्माताओं ने वक्त की जरूरतों को ही ध्यान में रख कर एक निश्चित प्रक्रिया के अधीन संविधान में संशोधन का प्रावधान किया होगा जिसका समय समय पर चुनी हुयी सरकारों ने जनहित में प्रयोग किया है। अगर इस सम्बन्ध में केंद्र द्वारा अब इस अधिकार का प्रयोग किया जा रहा है तो इसे असंवैधानिक कैसे कहा जा सकता है। आप का पहले किसान बिल का समर्थन करके फिर विधानसभा में ही नकार कर उसे फाड़ देना तो संवैधानिक है और बहुमत से ही देश के सुप्रीम सदन में पारित ये संशोधन असंवैधानिक है, इसे कौन गले से उतारेगा। दिल्ली शासन में किसी उपमुख्यमंत्राी का प्रावधान नहीं है मगर केजरीवाल एक नया पद बनाकर खुद आराम से केंद्र के खिलाफ जाल बुनते हैं और सारा कार्य सिसोदिया करते हैं। क्या यह असंवैधानिक नहीं है।
इस सन्दर्भ में संशोधन पर केजरीवाल का पहला ट्वीट अवलोकनीय है। इसमें वे केंद्र पर आरोप लगाते हैं कि दिल्ली के लोगों द्वारा खारिज किये जाने, विधानसभा में आठ सीटें और एमसीडी में एक भी सीट न मिलने के बाद भाजपा लोकसभा में विधेयक के जरिये चुनी हुई सरकार की शक्तियों को कम करना चाहती है। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत है। हम भाजपा के असंवैधानिक और लोकतंत्रा विरोधी कदम की कड़ी निंदा करते हैं। एक अन्य ट्वीट में केजरीवाल फरमाते हैं कि विधेयक कहता है कि दिल्ली में सरकार का मतलब एलजी होगा तो फिर चुनी हुयी सरकार क्या करेगी? सभी फाइलें एलजी के पास जाएंगी।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि दिल्ली की सरकार को लोगों ने जनहित के कार्यों के लिए चुना है या मनमानी कर चुनाव जीतने के फंडे लागू करने की व्यवस्था करने के लिए। अगर केजरीवाल दिल्ली की जनता के हित में कोई निर्णय लेते हैं तो पत्रावली को एलजी के अनुमोदन के लिए भेजने में क्या हर्ज है, वे यह मानकर ही क्यों चलते हैं कि उनका हर प्रस्ताव निरस्त या विलम्बित ही होगा? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व में जिन जिन देशों में संघात्मक प्रजातंत्रा है, वहां इस प्रकार की समस्याएं आयी हैं कि जब केंद्र और राजधानी क्षेत्रा में अगर विरोधी सरकारें आ जाएं तो क्या होगा। इसके लिए उन देशों ने अपने अपने क्षेत्रों की परिस्थितियों के अनुसार व्यवस्थाएं स्थापित की हैं जिनमें केंद्र को सबल और राजधानी क्षेत्रा की सरकार पर नियन्त्राण की व्यवस्थाएं प्रतिपादित की गयी हैं।
कुल मिला कर यह केवल अहम के टकराव का एक उदाहरण मात्रा है। न तो केजरीवाल हमेशा दिल्ली के मुख्यमंत्राी रहने वाले हैं और न ही मोदी देश के प्रधानमंत्राी। हाँ यह संविधान निर्माताओं की दूरगामी सोच का परिचायक जरूर है कि ऐसी परिस्थिति आने पर क्या समाधान सम्भव हो सकता है, इतना लचीलापन उन्होंने संविधान में जरुर इसी तरह की परिस्थितियों के लिए छोड़ा होगा जिसका प्रयोग मोदी सरकार इस वक्त कर रही है।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-मोदी-शाह के लिए केजरीवाल और ममता बनर्जी को सियासी मात देना आसान नहीं!
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