प्रदीप द्विवेदी. कमाल है, मुद्दों की भीड़ में एक और मुद्दा आ गया है- जाति आधारित जनगणना!
लेकिन, बड़ी उलझन है? इन कुछ सालों में बैंकों ने सबको कर्जदार बना दिया है, तो ब्लड बैंक ने रिश्तेदार.... रक्त-संबंधी!
यही नहीं, अंतरजातीय विवाह ने भी जाति समीकरण को उलझा दिया है, ऐसे में जाति जनगणना कैसे होगी?
जिन्होंने ब्लड लिया-दिया उन्हें पता ही नहीं कि नया रिश्तेदार कौन है? किसने ब्लड दिया, किसने लिया? लेनेवाला किस जाति का है? देनेवाला किस जाति का है?
बैंकों का राष्ट्रीयकरण तो बहुत पहले ही हो गया था, आधुनिक चार्वाकों के उधारीकरण के दौर ने सबको ऋणं कृत्वा का महान मार्ग दिखा कर कर्जदार बना दिया है, कोई मकान की ईएमआई भर रहा है, तो कोई कार लोन चुका रहा है, कोई पर्सनल लोन लेकर काम चला रहा है, तो कोई बिजनेस लोन के चक्रव्यूह में अभिमन्यु बन गया है?
खैर! खबर है कि कुछ समय पहले एक सवाल के जवाब में जब गृह राज्य मंत्री ने संसद को बताया कि भारत सरकार ने नीतिगत फैसला किया है कि जनगणना में एससी और एसटी के अलावा अन्य जाति-वार आबादी की गणना नहीं कराएगी, तो इस पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत कई नेता जाति आधारित जनगणना कराने की मांग करने लगे.
इन नेताओं का कहना है कि इससे वास्तव में जरूरतमंदों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक मदद मिलेगी.
याद रहे, नीतीश कुमार, जीतन राम मांझी, रामदास अठावले सहित भारतीय जनता पार्टी की नेता पंकजा मुंडे भी यह मांग उठा चुकी हैं.
यकीनन, बीसवीं सदी के हमारे महान नेताओं ने गरीबों के उत्थान के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी. उसका लाभ भी मिला और कई प्रतिभावान लोगों कोे आगे आने का अवसर मिला, लेकिन अब आरक्षण का लाभ उस जाति में सबको मिले, इसमें सबसे बड़ी बाधा उसी जाति की क्रीमी लेयर बन गई है.
एक ही परिवार के कई-कई लोग अफसर बन गए हैं, उन्हीं सक्षम परिवारों के बच्चे आरक्षण का लाभ भी लगातार उठा रहे हैं और जिन्हें वास्तव में आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए, वे तो अपनी पढ़ाई भी ठीक से नहीं कर पा रहे हैं.
जातिगत आरक्षण भले ही रहे, लेकिन इसके लाभ से क्रीमी लेयर को हटाया जाना चाहिए, तभी आरक्षण का लाभ उस जाति के वास्तविक हकदार को मिल सकेगा!
https://twitter.com/Pankaj___Sharma/status/1422213866352611333
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