वर्जनाओं के विरुद्ध एकजुट होते : सोच और शरीर

लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा .
किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब जीवन को कैसे जियें ? सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं वाली श्रेणी में रखा जाता है. अर्थात भूख लगी तो रोटी खालो सेक्स की ज़रूरत है तो प्रबंध कर लो ?
जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग जन्य हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती .  किंतु आने वाला कल ऐसा न होगा.. जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो  दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी
यह कोई भविष्य वक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है.
यह ऐसा बदलाव होगा जिसे न तो हमारी सामाजिक-नैतिक व्यवस्था रोकेगी और न ही खाप पंचायत जैसी कोई व्यवस्था इसे दमित कर पाएगी. कुल मिला कर इसे  बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का एक साथ खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक गहरा असर डाल सकता है.
उस पर कुछ विचारक ऐसे हैं जो कि मानते विवाह संस्था अब केवल फर्जीवाड़ा रह गई है प्रासंगिक नहीं है। और इसी काल्पनिक फर्जीवाड़े का हवाला देते हुए विमेन लिबरेशन के नाम पर कभी अभिव्यक्ति एवं सुख की आजादी के सामाजिक संरचना को क्षति पहुंचाने में कोई कमी नहीं छोड़ी जा रही  । अब प्रोफेसर रजनीश को ही लें जिनने विवाह संस्था को घर और ट्रेडिशनल कम्युनिटी से कम्यून में ले जाकर तोड़ा हॉट गृहस्थों के जीवन को छिन्न-भिन्न करने की पूरी कोशिश की गई यही तो दुख है।
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें.
सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उससे किसी को इनकार नहीं है । उसी तरह अपने पारिवारिक समुच्चय में रहना सामाजिक व्यवस्था है इससे भी किसी को इनकार करने की जरूरत नहीं है.
परंतु एक तो अनाधिकृत लिबर्टी वाली सोच और जीवन यापन के लिए बाहर जाकर कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा.
तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है . ऐसे कई उदाहरण समाज में व्याप्त हैं..बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं. पाश्चात्य और कम्यून व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है जहां से वापस लौटना मुश्किल होगा ।
किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था को ताक में रखकर इर्द गिर्द उपलब्ध बहुल सेक्स अवसरों को बिना रोकटोक लिव इन को कानूनी जामा पहना दिया ।
एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, इसलिए विज्ञान भी सहायक हो गई है। विज्ञान ने तो कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श देकर अपनी जिम्मेदारी से खुद को मुक्त कर दिया। पर सामाजिक विचारक क्या करेंगे। वह तो आने वाले कल के लिए तनावग्रस्त है।
आपको अंदाज़ा भी होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं. गर्लफ्रेंड ब्वॉयफ्रेंड ब्रेकअप पैचअप एक्स गर्लफ्रेंड एक्स ब्वॉयफ्रेंड आदि शब्द कहां से आ गए..! सोशल मीडिया और बहुत सारे ऐप्स के जरिए बहुत तेजी से वायरल हो रही है यह शब्दावली। शर्म आती है जब बच्चे जो 8 या 10 साल के होते ही इन सब शब्दों का इस्तेमाल सीख जाते हैं और समझते भी है।
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. अगर नकारते हैं तो नकार दीजिए मुझे और मेरी चिंतन को पर याद रखिए आने वाले समय में लोग विवाह संस्था को तेजी से बदनाम अवश्य करेंगे और संबंधों में अचानक बेरुखी, पारिवारिक व्यवस्था में टूट-फूट दांपत्य जीवन में स्थायित्व का ना होना आप सहजता से देख पाएंगे। तब ना कोई कम्यून बचा सकता है और ना ही कानून विवाह संस्था को।

गिरीश बिल्लोरे “मुकुल” के अन्य अभिमत

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