जनजाति गौरव दिवस अनूठी पहल

भारत की वैभवशाली परंपराएं भारतीय सभ्यता के चरम विकास प्रक्रिया का परिणाम है। जैसा कि आप जानते हैं कि भारतीय सभ्यता के विकास इस मन्वंतर में ब्रह्मा के द्वारा रखी गई आधारशिला पर आधारित है। वेद उपनिषद आरण्यक शास्त्र पुराण जो श्रुति के सहारे अगली पीढ़ी तक कम्युनिकेट हुए, उन्हें लिपिबद्ध किया गया। इसके अलावा बहुत सारी ऐतिहासिक बिंदु भी लिपिबद्ध किए गए। इनमें रामायण काल की गाथाएं तथा महाभारत कालीन सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था तथा इन दोनों काल के अस्तित्व के संबंध में विस्तृत जानकारियां लिपि एवं ताड़ पत्रों की खोज तक श्रुति के माध्यम से विद्वानों के मस्तिष्क में पहुंची और स्मृति में संयोजित तथा सुरक्षित हो रहीं थीं। और जब इन्हें लिपि के माध्यम से सुरक्षित किया तब भी लोगों तक श्रुति के माध्यम से ही यह सब विस्तारित होता रहा। यह वह दौर था जब दस्तावेजों की अनेक प्रतियां नहीं की जा सकती थीं । ऐसा करने के लिए अधिक परिश्रम और मशीनों का होना जरूरी था। इसके लिए महाभारत काल के उपरांत विश्वविद्यालय एक उत्तम विकल्प थे। जहां के ग्रंथों में विवरणों की प्रतियां सुरक्षित रखी गई। इसके अलावा कई गुरुकुल इन दस्तावेजों के सुरक्षा केंद्र की रहे थे।
    यवन आक्रांता भारत में आए किंतु असफल रहे। परंतु अब्राह्मिक विचारों को विस्तारित करने वाले
आक्रांताओं ने इन दस्तावेजों को एकमुश्त समाप्त करने के लिए ग्रंथालयों एवं गुरुकुलों जलाने या लूटने का काम किया। विदेशी विद्वान भी इस लूट में पीछे नहीं रहे। कहते हैं कि चीनी यात्री भारत आकर बहुत सारी मौलिक पुस्तकें  ले जा चुके हैं। इसकी प्रमाणिकता की पुष्टि आसानी से की जा सकती है।
  यवन के उपरांत सबसे पहले अब्राह्मिक मत के इस्लामिक संप्रदाय को मानने वाली जातियों ने भारत पर बर्बर तरीके से हमला किया। और इस हमले में सफल होकर भारत के प्रमुख केंद्रों के शासक हुए। खिलजी इसका बहुत बड़ा उदाहरण है जिसने भारत के ऐतिहासिक ग्रंथों को जिसमें जीवन उपयोगी संपूर्ण साहित्य था को जलाया।
   यही था राक्षस संस्कृति का एक नया स्वरूप। रक्ष संस्कृति के समय यही सब कुछ होता था । परंतु रक्ष संस्कृति के दौर में केवल विद्वानों एवं विषय विशेषज्ञों को बंदी बनाया जाता था। और उनका उपयोग अपने ऐशो-आराम के लिए किया जाता था। इसका विवरण रामायण से आप समझ सकते हैं। सामान्यतः रावण ने किसी भी महानगर पर आक्रमण नहीं किया। जबकि अब्राह्मिक विचारधाराओं को मानने वाले लड़ाकू समूहों ने इससे बढ़कर भारतीय संस्कृति पर सीधे-सीधे आक्रमण किया। इनका उद्देश्य केवल राज्य करना नहीं था बल्कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था को अपने अनुरूप परिवर्तित करना भी था। अखंड भारत के कई सारे रहस्य और वर्तमान में लिखा गया इतिहास आपस में मेल नहीं खाते। हम पर जबरन एक इतिहास थोपा जा रहा है।  रानी कमलापति के इतिहास को सच में मध्य प्रदेश के के लोग बहुत कम ही जानते थे। नाही प्रदेश के इतिहास में इसका कोई उल्लेख मिलता है। झलकारी बाई रानी दुर्गावती रानी अवंती बाई लोधी रघुनाथ शाह शंकर शाह टंट्या भील भीमा नायक सीताराम कंवर रघुनाथ सिंह भिलाला के इतिहास से कितने लोग परिचित हैं ?
   1947 से लेकर अब तक जनजाति के इन महान लोगों के बारे में जानकारी नहीं दी गई जो दी जानी थी। दूसरी ओर अकबर की कब्र कहां है यह हमें जानना जरूरी था नहीं तो हम अगली क्लास के लिए उत्तीर्ण नहीं हो सकते थे।
    भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही है कि- घर की मुर्गी दाल बराबर होती है जैसी कहावत का  प्रभाव हम सब पर हैं। ना तो हम ऋषि कणाद पर चर्चा कर पाएंगे नाही हमें सूर्य सिद्धांत के संबंध में कुछ जानकारी है। 500 वर्ष पूर्व यूरोपीय विद्वानों ने साइंस को कथित तौर पर विकसित किया। तब से लगभग 10,000 वर्ष से पूर्व सूर्य सिद्धांत का आगमन हो चुका था। स्पेस साइंस के लिए भारत में वेधशाला का ना होना हमारी गुलामी का साक्ष्य है। श्रीधर वाकणकर ने भी भारतीय इतिहास को समझने के लिए अपनी जिंदगी अर्पित करती परंतु समकालीन इतिहासकारों एवं सरकार ने उन्हें ना तो समुचित सहायता दी और ना ही अवसर। इतना ही नहीं दक्षिण भारत की कला संस्कृति और वहां का वास्तुशिल्प संगीत भाषाई विकास में बाधा उत्पन्न करने के लिए उन्हें वर्गीकृत कर दिया। और यह वर्गीकरण जाति एवं भाषाई रहा है।
   इन उदाहरणों से आप समझ सकते हैं कि जनजातीय जननायको के बलिदान एवं उनकी सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप को सामने प्रस्तुत नहीं करने का एक बड़ा षड्यंत्र जारी रहा है।
   जनजातीय आर्थिक सामाजिक व्यवस्था ( सोशियो इकोनामिक सिस्टम) को देखा जाए तो कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों से ऊपर ही नजर आएगा। जनजातीय परिवारों से अब तक हुई मुलाकात से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वहां समानता निर्णय लेने की क्षमता अर्थ उपार्जन पूरी तरह से श्रम पर आधारित है । मेरा मानना है कि जनजातीय सामाजिक व्यवस्था में पूंजी और श्रम का तालमेल बेहद अत्याधुनिक है । ऐसा नहीं है कि परिस्थिति वश वहां अर्थात जनजाति समुदाय में  उत्पादन में परिस्थिति वश * (जैसे बीमारी या शारीरिक अक्षमता के कारण) सक्रिय भाग न लेने वाली जनसंख्या नहीं है।
परंतु सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है कि कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं रह सकता। हमारे जनजाति समुदाय ने न केवल अपने सामाजिक ढांचे को सुव्यवस्थित कर रखा है बल्कि आजादी के लिए अपने आप को अर्पित भी किया है। ऐसे ही संघर्षशील वीरों और जातियों को नमन करना हमारा मौलिक दायित्व है। 

गिरीश बिल्लोरे “मुकुल” के अन्य अभिमत

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