वामधारा सिंचित नक्सलबाड़ी वार से रक्तपात भारत को बचाने चरम प्रयासों की ज़रूरत

नक्सल वाद एक चरमपंथी राष्ट्रद्रोही विचार समुच्चय है । चरम सदा ही पतन का प्रारंभ होता है। अक्सर आप जब शिखर पर चढ़ने का प्रयास करते हैं तब आपका उद्देश्य होता है.... स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर देना। इसका अर्थ यह है कि आप चाहते हैं-" आप उन सब से अलग नज़र आएं जो भीड़ का हिस्सा नहीं है । वामधारा चरमपंथी धारा है। यह एक ऐसी विचारधारा है जिसका प्रारंभ ही कुंठा से होता है। कोई भी व्यक्ति जो कुंठित है अर्थात पीडा और क्रोध के सम्मिश्रण युक्त व्यवहार करता है या कुंठित है वह सामान्य रूप से हिंसा के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति बनता है। अर्थात पीड़ा और क्रोध हिंसा सृजन का प्रमुख घटक है। अब आप यह कहेंगे कि-" कृष्ण ही नहीं महाभारत के लिए उत्प्रेरित क्यों किया क्या वे पीड़ा युक्त क्रोध यानी कुंठा से ग्रसित थे..!" नहीं कृष्ण कुंठा से ग्रसित नहीं थे। कृष्ण ने युद्ध टालने के बहुत से प्रयास किए उनका अंतिम कथन यह था की कुल 5 गांव पांडवों को दे दिए जाएं । कुंठित तो दुर्योधन था जिसने इतना भी नहीं स्वीकारा । जिसका परिणाम आप सब जानते हैं । नक्सलवाद दुर्योधनी विचार प्रक्रिया का परिणाम है । वामधारा का अर्थ भी यही है। 25 मई 1967 में चारू मजूमदार और कनू सान्याल ने जिस गांव से इस आंदोलन की शुरुआत की थी वह गांव था नक्सलबाड़ी। नक्सलबाड़ी ग्राम की स्थानीय समस्या को किसानों के अधिकार चैतन्य के कारण उनका शक्ति प्रदर्शन भी एक सीमा तक उचित मानने योग्य माना जा सकता है जहां तक आंदोलन जान लेवा न हो । किंतु उनकी इस विजय के उपरांत तत-समकालीन व्यवस्था को इस बिंदु को अपने चिंतन में शामिल करना था ताकि ऐसी हत्यारी परिस्थितियां निर्मित ना हो । यह सत्य है कि न्यायालयीन आदेश का भी कोई पक्षकार पालन ना करें यह सर्वथा अनुचित है असवैधानिक है पर इसका विकल्प हत्या नहीं हो सकता। खैर 1967 के बाद बहुतेरे कैलेंडर बदल गए हैं 2021 में 3-4 मार्च को ऐसी कौन सी जरूरत आ पड़ी थी कि- 700 नक्सलियों ने 24 निर्दोष पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। सच पूछिए तो जरूरत बिल्कुल नहीं थी। न आदिवासी मजदूर किसान जमीदार या सूदखोर के चंगुल में थे नाही ऐसी कोई विषम परिस्थिति थी परंतु 1967 से 1970 तक आयातित विचारधाराओं के सहारे यह कांसेप्ट जरूर पुख्ता हो गया कि-" हम सरकार के समानांतर सरकार चला सकते हैं। छत्तीसगढ़ बंगाल बिहार उड़ीसा और झारखंड आंध्र प्रदेश का कुछ हिस्सा सन 1970-71 व्याप्त हो गया । कहते हैं कि 11 प्रदेशों के 90 से अधिक जिले इस समस्या से प्रभावित रहे हैं । समानांतर सरकार व्यवस्था और न्याय व्यवस्था सामान्यतः लोग यह नहीं जानते की समस्या के आधार में क्या है ? साहित्यकारों ने तो लिखना पढ़ना ही छोड़ दिया। तथाकथित असभ्य संस्कृति का विकास और विस्तार का आधार वामधारा ही है। एक अध्ययन से पता चलता है कि आज 18 राज्यों के 218 जिलों जिनमें 460 थाने इस हिंसक संस्कृति के प्रभाव में हैं। इस विस्तार के लिए वाम धारा ने इन्हें पर्याप्त बौद्धिक खाद पानी दिया हुआ है जिसके प्रमाण आए दिन आप पढ़ते सुनते हैं परंतु अब इन सूचनाओं से आम आदमी को कोई लेना देना नहीं। नक्सलवाद का विस्तार करने के लिए जिन चार महत्वपूर्ण बिंदुओं की जरूरत होती है उनमें :- [ ] अंतरराज्यीय सीमा पर स्थित क्षेत्र सबसे महत्वपूर्ण होते हैं [ ] दुर्गम क्षेत्र भी नक्सलवाद को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं [ ] आदिवासी जनसंख्या इनका मुख्य चारागाह है। [ ] सरकार से हमेशा नाराज रहने वाली तथाकथित आयातित विचारधारा के पैरोंकारों से इन्हें खासी मदद मिलती है। इस समस्या पर 1970 आते-आते तक तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी गंभीरता से ध्यान देना शुरू ही किया था कि बांग्लादेश की समस्या ने घेर लिया। पर यह भी जानकारी मिलती है कि इंदिरा जी इस समस्या को हल करना चाहती थीं । 1970 से 1980 वाली दशक में नक्सल समस्या प्रभावित इलाकों में घटनाएं कम अवश्य हुई थी पर अचानक क्या हुआ के 1990 से 2004 तक नक्सलवादी हिंसा में उतार चढ़ाव देखा गया । 2004 से 2012 तक अचानक नक्सली हिंसा में वृद्धि हुई थी किंतु कोविड-19 आते हिंसा के आंकड़ों में कमियां आने लगी। व्यवस्था के विरुद्ध आतंक फैलाना राष्ट्र के भीतर की समस्या नहीं मानी जा सकती। उनसे हम क्या माने..? "लाल समस्या आंतरिक नहीं है..!" यह समस्या कश्मीर समस्या से कम तो नहीं है। नक्सली समस्या में वह सारे तत्व मौजूद हैं जो अमित्र एवम कुंठित राष्ट्रों द्वारा दूसरे राष्ट्र में फैलाए जाते हैं । माओवाद का विस्तार प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध है। खासतौर पर जब भी चुनाव होते हैं तब नक्सलवादी गतिविधियां अपेक्षाकृत तेजी से विस्तार पाती हैं। आयातित विचारक अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बुज़ुरूआ और सर्वहारा का वर्गीकरण हमेशा जीवंत रखना चाहते हैं। अगर वर्गीकरण न भी हो तो वर्ग बनाना इनकी प्राथमिक नीति होती हैं । छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र की बॉर्डर पर हिडमा नामक कमांडर (जो अपने साथ 800 गुमराह महिलाओं पुरुषों की जमात के साथ चलता है) सक्रिय नजर आता है . छत्तीसगढ़ के पुलिस चीफ का कहना है कि बीजापुर सुकमा की घटना में 700 नक्सलवादियों ने हमला किया था। हमने पहले ही स्पष्ट किया है कि- "वामधारा अक्सर वर्ग संघर्ष पैदा करने में सक्रिय रहती है। आपने देखा होगा कि विश्वविद्यालय के कैंपस से लेकर थिएटर और आयातित विचारधारा पर केंद्रित साहित्य अगर वर्ग संघर्ष ना हो तो भी वर्गीकरण करके दो वर्गों में परस्पर वैमनस्यता और अस्थिरता पैदा करते हैं। बेशक अर्बन नक्सली गतिविधि कहा जाना गलत नहीं है।" इसका उदाहरण सीएए विरोधी आंदोलन में स्पष्ट रूप से नजर आया है। कुछ तथाकथित प्रगतिशील विचारकों के आर्टिकलस #पहल नामक एक मैगजीन में देखे गए। साथ ही आपको याद होगा कि चिकन नेक पर अपना हक जमाने के लिए किस तरह से इसी आंदोलन में उत्प्रेरित एवं उत्तेजित किया जा रहा था। गंभीरता से सोचें तो माओवाद का उद्देश्य पशुपति से तिरुपति तक खूनी संघर्ष लक्ष्य की प्राप्ति करना है। मार्क्स लेनिन स्टालिन माओ यह वह ब्रांड नेम है जिनके विचारों को वर्गीकरण को आधार बनाकर विस्तार दिया जा रहा है। पर्यावरण कार्यकर्ता मानव अधिकार कार्यकर्ता के लबादों में यह विचारधारा बकायदा गोबर के कंडे में राख के अंदर छिपी हुई आग की तरह जिंदा रहती है। तो इसका समाधान क्या है...? वर्तमान संदर्भ में इसका एकमात्र समाधान उसी भाषा में जवाब देना है जिस भाषा में इन्हें जवाब समझ में आता है फिर भी कुछ समाधान सुलझाने की कोशिश करना मेरा साहित्यकार होने का दायित्व है :- [ ] गृहमंत्री की की बॉडी लैंग्वेज में अभी तो स्पष्ठ कठोरता नज़र आ रही है । पर यह कब होगा देखने वाली बात है । [ ] कठोर सैन्य कार्रवाई- क्योंकि यह हमारे देश के नागरिक हैं किंतु उनके मस्तिष्क में इनके विदेशी आकाओं और कमांड देने वाली ताकतों के प्रति अटूट सम्मान है नज़र आता है इनका सीधा रिश्ता भारतीय एकात्मता को प्रभावित करने वालों से है। [ ] विश्व बिरादरी और मानव अधिकारों की पैरोंकारी करने वाले लोगों को मात्र सूचना देकर आर्मी के एयर सर्विलांस पर इन्हें रखा जाना चाहिए और आवश्यकता पड़ते ही पूरी दृढ़ता के साथ बल प्रयोग करना चाहिए । [ ] स्थानीय समुदाय पर इन का सर्वाधिक प्रभाव होता है तथा इनकी अदालतें चलती है उस पर व्यवस्था की पैनी निगाह होनी चाहिए । [ ] इंटर स्टेट बॉर्डर्स (सीमाओं) पर अत्याधुनिक सर्विलांस सिस्टम स्थापित करना आवश्यक है। [ ] अर्बन नक्सलियों पर चाहे कितना भी विरोध हो सरकारी तौर पर शीघ्र ही जानकारी एकत्र कर ली जानी चाहिए । [ ] जन सामान्य को इनके दुष्कृत्यों की जानकारी देने का दायित्व मीडिया साहित्यकार कवियों और लेखकों नाटककारों चित्रकारों का होना चाहिए क्योंकि समाज यानी जनता को भी राष्ट्र धर्म का पालन करना जरूरी है। अभी तो देखना है कि सरकारी हिसाब से नक्सलियों की हिंसक प्रवृत्तियों को कब तक स्थानीय राष्ट्रीय समस्या की श्रेणी से हटाकर कब तक वैदेशिक हस्तक्षेप माना जावेगा । बीबीसी वेब पोर्टल ने कहा है कि-"शनिवार को जो मुठभेड़ हुई, वह हिड़मा के गांव पुवर्ती के पास ही है. 90 के दशक में माओवादी संगठन से जुड़े माडवी हिड़मा ऊर्फ संतोष ऊर्फ इंदमूल ऊर्फ पोड़ियाम भीमा उर्फ मनीष के बारे में कहा जाता है कि 2010 में ताड़मेटला में 76 जवानों की हत्या के बाद उसे संगठन में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई. इसके बाद झीरम घाटी का मास्टर माइंड भी इसी हिड़मा को बताया गया. इस पर 35 लाख रुपये का इनाम है." इसी बीबीसी एवम अन्य कई मीडिया ने सलवा जुडूम को आदिवासी विरोधी कहा था । मीडियाा की भूमिका येे थी ( 5 /6/15 की बीबीसी की रपट) ) एक दर्ज़न हथियारबंद सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहने वाले चैतराम अट्टामी को आज भी लगता है कि सुप्रीम कोर्ट एक न एक दिन यह मान लेगी कि सलवा जुडूम सही आंदोलन था. दंतेवाड़ा के कसौली कैंप में बैठे अट्टामी अपनी मुट्ठियां भींचे कहते हैं, “अगर सलवा जुडूम ग़लत था तो मान कर चलिये कि भारत की आज़ादी की लड़ाई भी ग़लत थी.” अट्टामी दस साल पहले बस्तर में शुरु हुए सलवा जुडूम आंदोलन के ज़िंदा बचे हुए शीर्ष नेताओं में से एक हैं. छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सरकार के संरक्षण में शुरु हुए सलवा जुडूम यानी कथित शांति यात्रा के दस साल पूरे हो गए हैं."

गिरीश बिल्लोरे “मुकुल” के अन्य अभिमत

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