शिवराज की अनसुनी क्या उचित है ?

बात तब की है, जब बाल ठाकरे चला-चली की बेला में थे.. लेकिन आखिरी सांस उनसे बहुत दूर होती जाती थी.. उस समय मैं मुंबई में ही मौजूद था.. तब एक कार्टून देखा था, यमराज घुटनों के बल बैठकर ठाकरे के सामने गिड़गिड़ा रहे हैं.. कह रहे हैं,साहेब मेरी इज्जत का सवाल है' और ठाकरे मराठी में जवाब दे रहे हैं.थाम्बा' यानी अभी रुको.. बात दिवंगत ठाकरे के निधन के इंतजार की नहीं थी.. कार्टून तो उन्हें उस महानायक के रूप में चित्रित कर रहा था, जिनकी मर्जी के आगे मौत जैसा अटल सत्य भी बेबस है.. अब मध्यप्रदेश में कई भाइयों की राजनीतिक सांसें उखड़ने लगी हैं कि मंत्रिमंडल में विभागों का बंटवारा आखिर कब होगा
मध्यप्रदेश  के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दिल्ली से आकर मंगलवार सुबह मीडिया से रूबरू हुए.. इस चीखते सवाल पर बेहद ठन्डे अंदाज में जवाब दिया कि फिलहाल इस मसले पर वे अभी और कसरत करेंगे.. मलाईदार विभागों की उम्मीद के लिहाज से जीने-मरने के बीच अधर में झूलते लोगों के लिए शिवराज ने भीथाम्बा' जैसा भाव अपना लिया.. इसके साथ ही इस अहम मसले को लेकर सस्पेंस और बढ़ गया.. जाहिर है कि सिंधिया ने ऐसा लम्बा पेंच उलझाया है कि प्रदेश सरकार में यथास्थितिवाद टलने का नाम ही नहीं ले रहा.. अब मजे लेने वालों का कोई क्या करे.. बिहार में बैठे शत्रुघ्न सिन्हा के पेट में भी दर्द हो गया.. उन्होंने ट्वीट कर शिवराज की इस स्थिति पर कटाक्ष कर दिया..
प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने सिन्हा के कहे का जवाब भी दे दिया.. लेकिन सवाल तो ढेर सारे उठ रहे हैं, उनमें से भी बहुत सो के जवाब मौजूद नहीं हैं.. बड़ा सवाल यह कि आखिर यह ढुलमुल स्थिति क्यों और इससे बड़ा सवाल यह कि यह स्थिति आखिर किसलिए ? ये कहना तो नितांत मूर्खता होगा कि इस देरी के पीछे प्रदेश के महत्वपूर्ण महकमों कोयोग्यतम शिरोमणियों' से सुशोभित करने की कोशिश हो रही है.. क्योंकि मंत्री चाहे जो भी बन जाए, अधिकांश मामलों में विभागों का संचालन तो अफसर ही करते हैं.. मंत्री का तो केवल यह कि यदि सक्षम है तो विभाग के नाम पर कुछ मलाई उदरस्थ कर लें या फिर अफसरों की लगाम थामकर उनसे वह काम करवा ले, जिसे करने में अफसरों की रूचि नहीं रहती है..
बाकी विभागीय गाड़ी तो अपनी रफ़्तार से दौड़ती ही रहती है.. अब यहां मामला उलझा है, अपने-अपने ईगो को लेकर.. जाहिर है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ने के बावजूद उस पार्टी में लम्बे समय से मिले लाड़-दुलार की आदत से उबर नहीं सके हैं.. पुरानी पार्टी में हर बात मनवा लेने की आदत को वे नए दल में भी कायम रखना चाहते हैं.. शिवराज यूं बेहद सहज हैं.. लेकिन अब तो उनके लिए भी सब्र का बांध टूटता दिख रहा है.. आखिर सरकार चलाना उन्हें ही है.. जनता से जुड़े काम करने हैं.. चौबीस सीटों पर होने वाले उपचुनावों को जिताने का बड़ा जिम्मा भी उन पर है..
यदि वे ही मुख्यमंत्री रहे तो करीब साढ़े तीन साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी की संभावनाओं को विजयश्री दिलाने की भी उम्मीद उनसे ही रखी जाएगी.. यह सब तो तब ही संभव है, जब मंत्रिमंडल शिवराज के मुताबिक हो.. लेकिन मजबूरी यह कि पार्टी नेतृत्व उन्हें हाथ पीछे बांधकर सफर की शर्त वाली जटिल हालत में ले आया है.. भाजपा विवश है.. कम से कम अगले तीन साल तक उसे सिंधिया की बात सुनना ही होगी, लेकिन क्या जरूरी है कि ऐसा करने के लिए शिवराज की पूरी तरह अनसुनी कर दी जाए? ये तो उस दल का मामला है, जिसने भयावह विपरीत परिस्तिथियों का कुहांसा चीरकर खुद को देश में राजीनीतिक शीर्ष तक ला खड़ा कर दिया.. इसके लिए पार्टी तमाम मोर्चों पर विरोधियों से सफलतापूर्वक निपटी.. तो फिर ऐसा क्या है कि मध्यप्रदेश के सन्दर्भ में उसकी यह क्षमता काम नहीं आ पा रही है.. यह भ्रम की स्थिति न भाजपा के लिए अच्छी है, न सरकार के लिए और न ही प्रदेश के लिए.. इसका जल्दी निराकरण होना चाहिए.. ऐसे मामलों मेंथाम्बा' जैसा भाव कार्टून में ही अच्छा लगता है..

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