किसी देश की फौज में एक नाकाबिल ने कमांडर के पद पर ‘कब्जा’ कर लिया. वह विचित्र बातें करता था. ऐसी बातें, जो शायद खुद उसे भी समझ न आती हों. जंग हुई तो वह पलटन लेकर लाम पर गए. दुश्मन ने फायरिंग की. कमांडर ने बगैर कोई रणनीति तैयार किए चीखते हुए आदेश दिया, ‘दागो!’ पल-भर में लाम की इस ओर सन्नाटा छा गया. कमांडर ने पाया कि वह अकेले ही दुश्मन के निशाने पर आ गए थे. किसी तरह जान बचाकर वह बैरक में पहुंचे. पलटन पर बरसे. जवाब आया, ‘ हमने तो सुना था कि आप ‘भागो’ कह रहे हैं. तो हम वहां से भाग निकले.’
कमांडर का यह काल्पनिक चरित्र राहुल गांधी से काफी मिलता-जुलता है. और हुआ यह है कि जिस समय उन्होंने पार्टी के लोगों को ‘भारत जोड़ो’ वाला आदेश दिया है, तब से ही पार्टी में ‘कांग्रेस छोड़ो’ वाला क्रम और तेज हो गया है. सितंबर में शुरू होने वाली गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तैयारी के बीच ही आनंद शर्मा का पार्टी पदों से और जयवीर शेरगिल तथा गुलाम नबी आजाद का पार्टी से इस्तीफा देखकर कहा जा सकता है कि सितंबर से पहले ही इस पार्टी को सितमगर वाली ‘कांग्रेस छोड़ो यात्रा’ से दो-चार होना पड़ रहा है.
सच्चे कांग्रेसियों के लिए एक तथ्य बहुत गंभीर है. ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर जितिन प्रसाद के इस्तीफे के बाद सामने आया कि कांग्रेस में युवा सहज नहीं महसूस कर रहे हैं. जाहिर है कि राहुल गांधी के चलते युवा चेहरों को अपने लिए भविष्य की संभावनाओं पर ग्रहण लगता दिख रहा है. अब आनंद शर्मा की नाराजगी और कपिल सिब्बल से लेकर आजाद जैसे उम्रदराज नेताओं के इस्तीफे से यह चित्र भी दिख रहा है कि इस दल में आयु तथा अनुभव के लिहाज से परिपक्व पीढ़ी भी नाराज हो रही है. यूं भी G-23 में इन दोनों वर्ग के चेहरे शामिल हैं. तो राहुल गांधी को यह देखना होगा कि किस तरह वह दो पीढ़ियों में सामान रूप से पनप रहे असंतोष के ठीक बीच में खड़े होकर इसके प्रमुख कारण बने हुए हैं.
आजाद ने इस्तीफे में जो बातें लिखीं, वह यदि उनकी आंतरिक पीड़ा को दिखाती है तो वह कांग्रेस की आंतरिक दुर्दशा को भी समान रूप से दिखा रही है. मजे की बात यह कि यह सब लंबे समय से साफ दिख रहा है, लेकिन लगता है कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा यह सब नहीं देख रहे. विशुद्ध चमचत्व की प्रतियोगिता में जुटा कांग्रेसी समूह भी ऐसे हालात का सच बताने की बजाय अपने इस आका परिवार को ‘अश्वत्थामा हत:… ‘ वाले आधे सच से ही अवगत करा रहा है. महाभारत में इस अर्ध सत्य को शंख की ध्वनि से दबा दिया गया था और कांग्रेस में चाटुकारों के जयकारों का शोर भी यही काम कर रहा है. और यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सोनिया गांधी अपनी आंखों पर पुत्र-पुत्री मोह की पट्टी बांधकर पार्टी को यूं मलहम-पट्टी वाली आवश्यकता का शिकार होने दे रही हैं.
राहुल पार्टी के लिए सफलता की बजाय विफलता का पर्याय बनकर रह गए हैं. प्रियंका दो विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव में ‘खुल गयी तो खाक की’ साबित हो चुकी हैं. लेकिन पार्टी के शीर्ष से लेकर पार्टी को गर्त में ले जाने पर आतुर समुदाय के कान पर मानों जूं भी नहीं रेंग रही है. ये सब मिलकर देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के भविष्य को लेकर जुआ खेलने पर आमादा हैं और नतीजे में एक परिवार की गुलामी का जुआ अपने-अपने कंधे से हटाने का क्रम भी तेज हो गया है. क्रिया की यह प्रतिक्रिया जिस तरह कांग्रेस को तेजी से कमजोर करने की प्रक्रिया बन गयी है, यह विचारणीय है. अब तो स्थिति यह दिखने लगी है कि शायद राहुल को ‘कांग्रेस जोड़ो यात्रा’ का कार्यक्रम तय करना पड़ जाए. क्योंकि आजाद होने का यह सिलसिला एक गुलाम नबी पर आकर नहीं थम जाएगा, यह आज की तारीख में तय है.