अमित शाह केंद्रीय गृह मंत्री हैं. कश्मीर में आठ कट्टर भाजपा- विरोधी दलों के संगठन 'गुपकार' को लेकर वे काफी आक्रामक हैं. मामला राष्ट्रीय स्तर का है. कश्मीर में होने जा रहे पंचायत चुनावों से जुड़ा हुआ है. इसलिए शाह की यह आक्रमकता कारणों सहित समझ आ जाती है. लेकिन यदि इसी मुद्दे को लेकर उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान भी शाह की तरह ही आक्रामक रवैया दिखाएं तो कारण खोजना तो बनता है. गुपकार का देश के बाकी राज्यों से कोई लेना-देना नहीं है. फिर भी चौबीस घंटे से कम के अंतराल में पहले योगी और फिर शिवराज जमकर गरजे. 'गुपकार' वाले दलों को उन्होंने पाकिस्तान का एजेंट बताया. साथ ही इस मसले को लेकर कांग्रेस को भी उन्होंने शाह की तर्ज पर ही घेरा है. तो यह तय मानना चाहिए कि मामला उतना सीधा बिलकुल भी नहीं है, जितना दिखता है या दिखाए जाने की कोशिश की जा रही है
कश्मीर में गुपकार के बैनर के नीचे जुटे नेताओं के सामने अस्तित्व का संकट है. क्योंकि देश के इस हिस्से से 'रोशनी एक्ट' हटने के बाद मेहबूबा मुफ़्ती सहित फारूख अब्दुल्लाह और उनके बेटे उमर के सिर पर तलवार लटक गयी है. आरोप है कि रौशनी एक्ट की आड़ में इन सभी ने घाटी से भगाए गए हिन्दुओं की अरबों की जमीन औने-पौने दाम में हड़प ली. अब पंचायत चुनाव के पहले ये पार्टियां एकजुट होकर बीजेपी को हारने का प्रयास कर रही हैं. कांग्रेस आज की तारीख तक गुपकार से दूरी बनाये हुए है, लेकिन भाजपा ने इस मामले में उसे लगातार निशाने पर ले रखा है. कांग्रेस गुपकार से नहीं जुड़ी है लेकिन उनके साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. वजह साफ है कि बीजेपी अब भी देश में कमजोर धरातल पर खड़ी हो चुकी कांग्रेस को अपने लिए बड़ी चुनौती मानकर चल रही है.
शाह सहित योगी और चौहान ने जिस तरह इस विषय पर लगातार राहुल गांधी का नाम लिया, वह भी सोद्देश्य ही है. भाजपा यही चाहेगी कि मोदी के मुकाबले हमेशा राहुल ही कांग्रेस की तरफ से सामने रहें. ताकि जब बात तुलना की हो तो बहुत आसानी से गांधी को मोदी के मुकाबले कमजोर बताकर कांग्रेस का आधार कम किया जा सके. कांग्रेस का भले ही जनाधार सिकुड़ा हो, किन्तु उसका कमिटेड वोट अब भी उसके साथ है. इसके अलावा उसके सामने पहचान का कोई संकट कभी नहीं आएगा. दुगर्ति उसके अपने कारणों से हो रही है. मध्यप्रदेश विधानसभा के हालिया हुए उपचुनावों में भी इस दल को हारने के बावजूद पर्याप्त वोट मिले हैं.तो बीजेपी जानती है कि जिन राज्यों में उसका कांग्रेस से सीधा मुकाबला है या जहां भाजपा विरोधी मतदाताओं के पास कोई और विकल्प नहीं है, वहां कांग्रेस उनकी मजबूरी है. लिहाजा उसके लिए अब भी बड़ी चुनौती कांग्रेस ही है.
और मजेदार यह भी है कि बीजेपी जो एजेंडा सेट कर दे रही है, कांग्रेस उसके इर्द गिर्द घूमने को मजबूर हो रही है. इसीलिये गुपकार की आलोचना के जरिए राज्यों के स्तर पर भी कांग्रेस को क्षति पहुंचाने और धारा 370 की समाप्ति को जिंदा रखन का प्रयास किया जा रहा है. बहुत मुमकिन है कि पंचायत चुनाव में गुपकार के दल मिलकर बीजेपी को शिकस्त दे दें. लेकिन यह हार बीजेपी के लिए मुनाफे का सबब ही बनेगी. पंचायत चुनाव तक गुपकार को लेकर देशव्यापी ऐसा विरोध अभियान चलाया जा सकता है, जिससे इन दलों को देशद्रोही साबित करने का पुख्ता बंदोबस्त किया जा सके. भाजपा को शेष देश में इसका जोरदार फायदा मिलेगा. खासतौर पर पश्चिम बंगाल और केरल में वह इसका लाभ ले सकती है. इन दोनों ही राज्यों में बीजेपी का मुकाबला उसके अपने हिसाब से तुष्टिकरण की राजनीति से है.
ऐसे में कश्मीर की फिजाओं से उठा देशद्रोह वाला सन्देश इन राज्यों में भाजपा के काम आ सकता है. निकट भविष्य में संभव है कि अन्य राज्यों से भी भाजपा के शीर्ष और प्रभावी नेता गुपकार के खिलाफ योगी या शिवराज जैसी मुद्रा में ही नजर आएं. कांग्रेस की मुसीबत है कि गुपकार के खिलाफ बोलकर वह कश्मीर के इन क्षेत्रीय दलों को नाराज नहीं कर सकती. साथ ही वह इस गठबंधन का खुला समर्थन करके शेष देश में भी अपनी छवि खराब करना नहीं चाहेगी. इसलिए चुप्पी फिलहाल उसकी मजबूरी है और भाजपा की मजबूती का बड़ा आधार भी है. इस मुद्दे से भाजपा के एक और मुनाफे को देखिए. देश में चाहे कोई भी सरकार बन जाए, कश्मीर में अनुच्छेद 370 की वापसी उसके लिए संभव नहीं होगी. जबकि भाजपा लगातार इस अनुच्छेद को हटाने के क्रेडिट को भुनाती रहेगी. यह अनुच्छेद हटाने का जिस तरह देश की अधिकांश जनता ने समर्थन किया है, उसके चलते कोई भी दल अब कश्मीर में उस राज्य का झंडा वापस लाने की गलती करना भी नहीं चाहेगा. भाजपा भले ही कश्मीर का पंचायत चुनाव हार जाए, लेकिन इस एक नुकसान का उसे देश-भर में लाभ मिलना तय है. यही वजह है कि गुपकार जैसा मामला अब राज्यों के स्तर पर भी उठाया जाने लगा है.