कुछ अलग नजरिये से देखें तो मध्यप्रदेश का स्थापना दिवस बीते कुछ सालों में खालिस सरकारी आयोजनों वाली सीमा-रेखा को तोड़ने लगा है. बात आयोजन की भव्यता की नहीं है. वह तो समयानुकूल प्रक्रिया है. बात यह कि इस आयोजन से जनता का जुड़ाव बढ़ा है. ऐसा इसलिए हुआ कि स्थापना दिवस के इन आयोजनों में जनता के बीच यह विश्वास भी स्थापित हुआ है कि वह अब बीमारू राज्य की बजाय सुचारू विकास वाले वातावरण में प्रवेश कर चुकी है.
शासन का स्थायित्व किसी भी विकसित व्यवस्था के लिए अनिवार्य तत्व है. दुर्भाग्य से मध्यप्रदेश में वर्ष 2005 तक अधिकांश अवसरों पर अलग कारणों से इसकी कमी ही देखी गयी. मध्यप्रदेश गठन के बाद पंडित रविशंकर शुक्ल के दो महीने के कार्यकाल के बाद दूसरे मुख्यमंत्री भगवत राव मंडलोई केवल 21 दिन इस पद पर रहे. लंबे समय तक चली कांग्रेस की सरकारों में कैलाशनाथ काटजू ,द्वारकाप्रसाद मिश्र, प्रकाश चंद सेठी और अर्जुन सिंह ही दिग्विजय सिंह से पहले तक ऐसे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने पांच साल तक कम से कम राज किया. 2003 तक तो कांग्रेस की सत्ता हर दस साल बाद ही बदली लेकिन दिग्विजय सिंह अकेले मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने दस साल लगातार शासन किया. बरना कांग्रेस की सरकारों वाले दौर में सरकार तो स्थिर रही लेकिन मुख्यमंत्री कभी स्थिरता प्राप्त नहीं कर सके. और जिस कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने दस साल का समय पूरा किया उसके कार्यकाल को आज मध्यप्रदेश के लोग भूल कर भी याद करने को तैयार नहीं होंगे.
वर्ष 1980 में अर्जुन सिंह खींच-तान कर अपने कार्यकाल को पांच साल के मुहाने तक ले जा सके. उसके बाद फिर वही ‘आधी में पूरी छुट्टी’ वाला सियासी खेल चलता रहा. कभी मोतीलाल वोरा, कभी फिर अर्जुन सिंह, उनके बाद फिर वोरा और अंत में श्यामाचरण शुक्ल के गिनती के शासनकाल को राज्य ने देखा. दिग्विजय सिंह ने अलबत्ता इस क्रम को तोड़ा और दस साल तक लगातार शासन किया. लेकिन वह सरकार अपने स्थायित्व के संघर्षों में इस कदर उलझी रही कि मध्यप्रदेश बिजली, सड़क और अन्य कई बुनियादी सुविधाओं के अकाल के अभिशाप से मुक्त होना तो दूर गहरा घंसता चला गया. 2003 में आयी भाजपा की सरकार ने दो साल में तीन मुख्यमंत्री देकर यह संकेत दे दिया कि यह दल अब भी अपने वर्ष 1977 से 1980 के बीच वाले तीन मुख्यमंत्रियों, कैलाश जोशी, वीरेंद्र सखलेचा और सुन्दर लाल पटवा वाले प्रसंगों की छाप से मुक्त नहीं हो सका है.
मगर वर्ष 2005 में भारी राजनीतिक अनिश्चितता के बीच मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान ने कालांतर में कई मिथक तोड़े. भाजपा सरकार के लगातार तीन कार्यकाल. इनमें से दो में शिवराज के नेतृत्व में पार्टी की सत्ता में शानदार वापसी. स्थायित्व को लेकर तमाम चुनौतियों के बाद भी असीम लोकप्रियता. जनता से जीवंत संवाद. इसका परिणाम ही रहा कि वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की गाड़ी बस किनारे आकर अटकी. 15 साल बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई लेकिन उसकी अंतर्कलह ने उसे 15 महीने में ही सत्ता से बाहर कर दिया. इसके बाद प्रदेश में पहली बार हुए 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में जनता ने एक बार फिर शिवराज के चेहरे पर ही भरोसा जताया. निश्चित ही उस चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया का फैक्टर भी असरकारी रहा, लेकिन शिवराज कितने प्रभावी थे, इस बात का अंदाज यूं लगाया जा सकता है कि पार्टी ने चौथी बार भी उन्हें ही मुख्यमंत्री का पद देना जरूरी समझा. शिवराज ने अपने दीर्घ कार्यकाल को उन अवसरों में बदला है, जिनसे वह बहुत हद तक राज्य की तस्वीर बदलने में भी सफल रहे हैं.
सोचकर देखें कि पिछली बार मध्यप्रदेश के लिए ‘बीमारू राज्य’ का शब्द आपने कब सुना था. भले ही मध्यप्रदेश पूरी तरह हृष्ट-पुष्ट होकर दौड़ न लगाने लगा हो, शिवराज के शासन में वह इस दौड़ के लिए तमाम फिटनेस टेस्ट में सफल रहा है. जो लोग कहते हैं कि कमलनाथ को पंद्रह महीने में काम करने का अवसर नहीं मिला, उन्हें यह समझना होगा कि नाथ ने अपने सियासी सहोदर दिग्विजय सिंह की ही तरह शासन की पूरी अवधि को हालात को अपने पक्ष में बनाए रखने की कोशिश में ही स्वाहा कर दिया था. जनता उस सरकार के काम करने की राह ही देखती रह गयी और नाथ का सारा समय सरकारी मशीन को ताश के पत्तों की तरह फेंटने में ही बीत गया.
यदि पंद्रह महीने में वाकई नाथ ने काम किए होते तो यह संभव ही नहीं था कि राज्य की जनता 28 सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस को केवल नौ सीटों पर ही जीत प्रदान करती. शिवराज ने कोई जादू की छड़ी नहीं फिराई. कोई सम्मोहन विद्या का सहारा नहीं लिया. उन्होंने केवल वह किया, जो उनके अधिकांश पूर्ववर्ती अवसर मिलने के बाद भी नहीं कर पाए. शिवराज ने काम पर अधिक फोकस किया है. उन योजनाओं को खास तौर से गति दी है, जो सीधे जनकल्याण से जुड़ी हुई हैं. उनकी सबसे बड़ी ताकत वह सहज और सरल छवि है, जो एक मुख्यमंत्री और आम जनता के बीच की दूरी को कम करती है. उनकी इस विशेषता के आगे शायद कोई राजनेता कहीं नहीं ठहरता है. मध्यप्रदेश में पिछले कुछ वर्षों के स्थापना दिवस की लोकप्रियता में वृद्धि को क्या इन कारणों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए.